पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
माता

1.
सुनो, मेरी कुँवारी माँ
आख़िर तुमने मेरी गहरी नींद में
पाई मुझसे मुक्ति
याद है न? 
मैं जाग रहा था उस अंधकार, 
चारों तरफ़ स्थिर, 
मगर अशांत नदी का हाहाकार
प्रिय हृदय से नहीं अति दूर
नरम हाथों के लिए सशक्त
चारों ओर देखकर
करने लगा रुदन
पाने को भोजन, 
भयभीत होकर
खोज रही थी मेरी उँगलियाँ निरंतर
मानव मांस का छुअन . . . 
तुम कहाँ थी? 
और उसके बाद
एकत्रित हुए अनेक अमानुष
जल-तरंगें, खतपतवार, पवन-वर्षा, 
मेरे जनक, अश्रुल दिनकर, 
और प्रकृति, मेरी इकलौती माँ
जिसने किया मेरा पालन-पोषण
चेहरे पर खिली
प्यार-दुलार की मुस्कान
तब से
जाग रहा हूँ मैं
सारी रात, सारे दिन
इसलिए मैं, उस पिता का पुत्र
करूँगा सर्वनाश
क्यों दिए मेरी महिमा-मंडन के लिए कवच? 
क्यों सौंपे प्राणों की सुरक्षा के लिए मुझे कुंडल? 
क्यों बख्शा मैंने तुम्हारे पाँचों पांडवों को? 
क्यों उस असभ्य नारी ने चालाकी से हरा मेरा मन? 
क्यों दिया मैंने उन ग़ुलामों को जीवन-दान? 
क्यों नहीं किया मैंने अपने महान पूर्वजों का अनुकरण? 
क्यों वह चिंगारी और वह बलिदान? 
किस चीज़ का अहंकार? 
क्यों वह एकांत वास? 
क्यों दिव्यता का अभाव? 
क्यों लड़खड़ाहट? 
क्यों व्यर्थ महानता? 
क्यों अकेलेपन के शिकार? 
मैं, महानतम
मैं, श्रेष्ठतम
मैं, रहस्यमयी धनुर्धर, 
फिर भी बनाता जनता को मूर्ख, 
सैनिकों को देता अभिशाप
फिर क्यों पश्चाताप? 
राजकुमार का विरोध? 
बने रहो मानव
तुम हो मेरी सर्वोच्च कलाकार। 
 
2. 
क्यों फेंका तुमने मुझे
घुप्प अँधेरे में, 
बहती नदी की
गरजती लहरों की
तीव्र धाराओं के मध्य
जीवन के निस्संग पथ पर? 
क्या तुमने कभी सोचा
डूब सकता हूँ मैं
जन्मजात नायक होकर भी? 
मेरी जादूई ढाल में
बसते हैं मेरे पिता
मेरे कानों में बजता उनका संगीत
मेरे आहत हृदय पर मरहम लगाने वाले पिता
उनकी अनुभूति
मेरे रक्षक, मेरे शिक्षक
और तुम मेरी माँ, मेरी क़ातिल
परशुराम, मेरे प्रशिक्षक
दुर्योधन, मेरे उद्धारक
और तुम! स्वार्थी माँ! 
क्यों किया तुमने पक्षपात? 
इसलिए, नहीं दूँगा उपहार
तुम्हें मेरे हथियार
तुम मेरी निर्दयी माँ। 

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