पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
प्यारी माँ

बिना शिकायत कैसे करूँ विस्मरण? 
बिना तपस्या कैसे करूँ विश्राम? 
बग़ैर किए भ्रू-लुंठन
मैं चाहता हूँ अतीत को डूबाना, 
लेथे की निर्दयी कला में
चाहता हूँ सब-कुछ भूल जाना। 
तुम और तुम्हारे सभी शुभचिंतक
वे कहते हैं, तुम मृत्यु के बाद बनी हो आत्मा! 
फिर क्यों नहीं आती मिलने
क्यों न चुनती मेरी काया, 
 
मेरी आत्मा करती अतिक्रम मेरी सीमा? 
बेहतर होगा, स्वर्ग छोड़कर करो धरती पर शासन, 
मुझ पर विजय पाकर जलाओ चूल्हा
दुनिया बहुत बड़ी है। 
मेरे भीतर बच्चे के लिए
विनम्र और उन्मुक्त
कहीं ऐसा न हो
उसका धड़कता हुआ हृदय, 
चीखते-चिल्लाते, काँपते पैर हो जाएँ आहत
चाहे तुर्की समुद्र तट हो या वेश्या विरंजन
सभी बच्चे मर जाते हैं युवा
वयस्क जो उन्हें मारते हैं, 
विलुप्त माँ, क्यों नहीं उनका करती सफ़ाया? 
तुम कब उन पर करोगी क़ब्ज़ा
कब बनोगी उनकी शासक
बेहतर, 
मुझे फेंक दो, 
मुझे घुमा दो
मगर मुझे मत छोड़ो, 
बल्कि, तुम आत्मा, जगाओ मुझे। 

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