दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’ 

01-06-2023

दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’ 

दिनेश कुमार माली (अंक: 230, जून प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

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प्रोफ़ेसर असीम पारही के अंग्रेज़ी कविता-संग्रह ‘ऑफ संस एंड फ़ादर्स’ जब मैंने हिंदी अनुवाद ‘पिताओं और पुत्रों की’ शीर्षक से किया तो मुझे उन कविताओं में न केवल उत्तर आधुनिकता देखने को मिली, वरन् कवि के धारा के विपरीत चलने की तीव्र इच्छा भी से भी साक्षात्कार हुआ। विश्व के मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अधिकांश पिता और पुत्र, माता और पुत्री के सम्बन्धों में कुछ हद तक टकराहट पाई जाती है, जिसे अंग्रेज़ी में ऑडिपास/हेमलेट कॉम्प्लेक्स के नाम से जाना जाता है, जबकि विपरीत लैंगिक सम्बन्धों में प्राकृतिक आकर्षण अटूट होने की वजह से प्रगाढ़ सम्बन्ध बनते हैं, अर्थात् परिवार में भी पिता का पुत्री की ओर और माँ का पुत्र की ओर ज़्यादा रुझान होता है और इसका व्यतिक्रम भी सही है। भले ही, इन सारी मनोवैज्ञानिक धारणाओं का उलटते हुए प्रोफ़ेसर असीम पारही ने आधी दुनिया की आबादी को अप्रत्यक्षतः चुनौती देते हुए अपने अर्जित अनुभवों और भारतीय और अंग्रेज़ी साहित्य के गहन शोध के आधार पर पिता-पुत्र के उदात्त सम्बन्धों को समर्थन दिया है, मगर नारीवादी विचारधारा के अनेक पहलुओं को दरकिनार नहीं किया है। जहाँ आधुनिक युग में नए-नए रूप में नारिवादिता पर आधारित साहित्य पूरे विश्व में चर्चा का विषय बनता है, वहाँ कवि का मानना है कि आधुनिक युग में जब स्त्री-पुरुष समान माने जाते हैं तो साहित्य में पुरुष-विमर्श उतना ही ज़रूरी है, जितना नारी-विमर्श। जिस तरह हिन्दी के प्रख्यात कवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता की कुछ पंक्तियाँ ‘अबला हाय तेरी यह कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी’ के माध्यम से नारी के प्रति संवेदना जताई है, ऐसी संवेदना आज तक भारतीय साहित्य के किसी भी कवि ने पुरुष वर्ग के प्रति नहीं दर्शाई है। प्रोफ़ेसर असीम पारही मैथिलीशरण गुप्त की उपर्युक्त पंक्तियों से सहमत नहीं है, अपनी कविता ‘मनु-पुत्र’ में इसका जवाब देते हैं:

“नहीं थी कोई भी नारी कभी असहाय, 
नहीं अनसुनी या चेहरे पर भय
मैंने नहीं दिया कभी कोई प्रवचन, 
चाहे वह दलित, नारीवादी या धर्मनिरपेक्ष परिजन
या सामाजिक प्रवक्ता या धोखेबाज़ कार्यकर्ता
मुझे केवल याद है, एक अकेला नर, 
जातिवाद-सांप्रदायिकता से ले रहा था टक्कर
अकेले पूर्वाग्रही लैंगिक भेद मिटाने के ख़ातिर”

सच में, पुरुषों के दुख-दर्द पर लिखने वाले कितने कवि हैं? कितने कवि ऐसे हैं जो पुरुषों के अंतर्मन की टोह लेते हैं? वास्तव में यह धारा के विपरीत चलने वाला कार्य नहीं तो और क्या है? जहाँ समूचे विश्व की सहानुभूति महिला वर्ग की और हो; सारे क़ानून महिलाओं के हितों के लिए बने हों, वहाँ वैश्विक साहित्य को आधार बनाकर विश्व के कोने-कोने से हर युग की नारियों के चरित्र का आकलन कर उन्हें यथार्थ का आईना दिखाते हुए पुरुष वर्ग की दुरावस्था की ओर ध्यान आकर्षित करने वाले कवि उँगलियों में गिने-चुने ही मिलते हैं। ऐसा साहस हर किसी के बस की बात नहीं है। कवि असीम अपनी कविता ‘जियो पुरुष, जियो!’ में कहते हैं:

“हे व्याधि मानव! 
हे पीड़ित-पुरुष! 
किसी ने आज तक नहीं गाई गाथा
तुम्हारे ऐतिहासिक विरासत की, 
तुम्हारे नारकीय जीवन की, 
मध्याह्न जीवन के अंतहीन ज़ंजीरों, 
मरणासन्न चुड़ैलों और उनके सत्य की, 
क्लांत-पुत्रों और विश्रांत-जनता
पर कटार चलाने वाले जल्लादों की। 
माताएँ होती हैं, 
सनातन हत्यारिनें
भले ही, आँकी नहीं गई हों, 
महाकाव्य, मिथक, या आधुनिक मानस में? 
क्या याद है द्रौपदी, कुंती जैसी नारियाँ? 
सशक्त स्त्री, असहाय पुत्र! 
मासूमों पर क़हर ढाती क्रूरता?” 

इस दृष्टिकोण से अगर देखा जाए तो प्रोफ़ेसर असीम पारही बहुत हिम्मत वाले कवि हैं, जो यह अच्छी तरह जानते हैं कि आधुनिक महिलाएँ, लेखिकाएँ और उनके महिला संगठन उनके कार्यों को अच्छी निगाहों से नहीं देखेंगे, बल्कि आपत्ति दर्ज करवाएँगी। मगर उनकी कविताओं की एक-एक पंक्ति अंतर्मन को रोमांचित करती है, हिला कर रख देती है। सत्य यह है कवि अपने विषय का चयन करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है। यह दूसरी बात है कि पाठक वर्ग इसे स्वीकार करें या नहीं करें। जिस तरह भवभूति ने ‘उत्तर रामचरितमानस’ लिखकर कहा था कि कभी तो वह समय आएगा, जब उनके साहित्यिक कार्यों का मूल्यांकन होगा। ऐसा समय आया भी, और उनका कार्य पाठक वर्ग में विख्यात भी हुआ। प्रोफ़ेसर असीम पारही अत्यंत गंभीर चेतना के कवि हैं, कम बोलते हैं लेकिन जितना वह बोलते हैं, बहुत कुछ कह जाते हैं। इसी तरह कम लिखते हैं, लेकिन जितना लिखते हैं उसे समय की शिलालेख पर अमर कर देते हैं। ओड़िशा की पी.ऐन. ऑटोनॉमस कॉलेज के अंग्रेज़ी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. नंदकिशोर विश्वाल के अनुसार उनकी अधिकांश कविताओं में कवि की निस्संगता और निजता झलकती है क्योंकि कविताओं में कवि के अनुभवों के साथ-साथ स्वीकारोक्ति भी है, उपमा और अलंकारों के रूप में, फिर भी उनकी कविताएँ व्यक्तिगत होते हुए भी सार्वभौमिक बन जाती हैं और साथ ही साथ समकालीन होते हुए कालजयी भी। आलोचकों की इन पंक्तियों ने मुझे असीम जी के कविता-संग्रह ‘ऑफ़ संस एंड फ़ादर्स’ को पढ़ने के लिए प्रेरित किया, कुछ गवेषणात्मक तथ्यों को संगृहीत करने के लिए। आख़िर कवि ने कर्ण को ही अपने काव्य का केंद्रीय पात्र क्यों चुना? इस पात्र के माध्यम से वह क्या संदेश देना चाहते हैं इस आधुनिक युग में, जिस युग में लोग पौराणिक पात्रों को केवल पुरातन कवियों की मन-गढ़ंत कल्पना मानकर उनका तिरस्कार करते हैं? क्या मिथकीय पात्रों में भी आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता की झलक मिल सकती है? नस्लवाद, वर्णवाद, बहुपति-पत्नीवाद, अवैध सम्बन्धों की भरमार वाले तत्कालीन समाज के मूल्य-बोधों को खँगालने से वर्तमान पीढ़ी को क्या मिलेगा? क्या द्रौपदी और कुंती के अपराध-बोध और पश्चाताप की अग्नि में जलने की कथा से जघन्य कर्मों के कुपरिणामों से भयभीत होकर आधुनिक पीढ़ी उन दुष्कर्मों एवं दुवृत्तियों की पुनरावृत्ति नहीं करेगी? आख़िर कवि की निहित भावना क्या है? क्या इस तरह का कविता-संग्रह लिखकर अपने लेखकीय व्यक्तित्त्व को ऊँचा उठाना मात्र तो नहीं है? फिर पौराणिक पात्र अगर इस युग में ज़िन्दा होते तो उनका आचरण कैसा होता, यह दिखाने की उनकी मंशा है? एक साथ अनेक सवालों का झंझावात मेरे हृदय में उमड़ पड़ा। ‘ऑफ़ संस एंड फ़ादर्स’ पढ़ते-पढ़ते ‘द वेस्ट लैंड’ जैसी विश्व-विश्रुत कविता के रचयिता नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी कवि एवं परंपरावादी आलोचक टी एस इलियट के एक आलेख की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं, जिसमें उन्होंने लिखा था, “काव्य का विषय अपने व्यक्तित्व का वर्णन नहीं है, बल्कि उससे मुक्त होकर अपने चिंतन के अंतर्वेग या भावना की अभिव्यक्ति करना है।” उनकी यह उक्ति असीम पारही जी पर पूरी तरह लागू होती है। इस आलेख लिखने का मेरा उद्देश्य उनकी इस कृति के सार को अखिल मानव-संतति के सम्मुख रखकर वर्तमान समाज पर केंद्रित कर नए विमर्श को जन्म देना है। मेरी दृष्टि में भी एक उत्कृष्ट कवि की भी यही ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपनी रचनाओं को काल के सापेक्ष रखकर सर्जित करें। 

इस कविता-संग्रह में एक प्रसंग जो मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है, वह है द्रौपदी का सदेह स्वर्गारोहण के दौरान पहाड़ियों से नीचे गिरना। युधिष्ठर को छोड़कर बाक़ी पांडव और द्रोपदी स्वर्ग तक नहीं पहुँच पाए, वहाँ युधिष्ठर का कुत्ते के साथ पहुँचना उनके अप्रतिभ व्यक्तित्त्व की झलक प्रदर्शित करता है। उसके अलावा, कुत्ते को भी अपने साथ स्वर्ग में ले जाने की इंद्र से अनुमति माँगना हज़ारों मानवीय कमज़ोरियों से ग्रस्त होने के बावजूद उन्हें महान व्यक्तित्व प्रदान करता है। जब साधारण पाठक के रूप में मैं उनके इन गुणों से प्रभावित हो सकता हूँ तो सूक्ष्म-अन्वेषी प्रोफ़ेसर असीम पारही जैसे कवि और अन्य सर्जनधर्मी उनके जीवन चरित्र पर अगर विशद कृतियाँ लिखेंगे तो कोई ख़ास आश्चर्य की बात नहीं है! ‘समय का शरणार्थी’ कविता की पंक्तियों में कवि अपनी इच्छा प्रकट कर देता है:

“मर चुकी है कॉर्डेलिया की माता
हो गई है कुंती पागल सदा के लिए
द्रौपदी स्वर्ग सिधारी पहाड़ियों से गिरकर
लियर, अपने बेटे के कानों में गुनगुनाओ
अपने सबसे छोटे बेटे कॉर्डेलिया को
सिंहासन आरूढ़ करो
शाश्वत राज्याभिषेक के लिए
एक मातृहीन राज्य में।” 

इस कविता-संग्रह के पढ़ने के बाद पहले-पहल ऐसा लगता है कि शायद कवि अपने पिता से भावनात्मक रूप से ज़्यादा जुड़े हुए थे। शायद अपनी माँ की तुलना में बचपन से ही उनके पिता के व्यक्तित्व और कृतित्व ने उन्हें इस क़द्र प्रभावित किया कि वे उनके सामने अपनी माता, बहन, पत्नी और अन्य स्त्री को उनके तुल्य स्थान नहीं दे पाए। उनका अपना मनोवैज्ञानिक ढाँचा है। वे अपने भीतर भारतीय पौराणिक मिथकीय पात्र कर्ण, दुर्योधन और पाश्चात्य पात्र हेमलेट, हेन्चार्ड (मेयर ऑफ़ कैस्टरब्रिज), लियर की व्यथा-वेदना-संवेदना को गहराई से अनुभव करते हैं और इस कविता-संग्रह की रचना कर डालते हैं। उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर की शोधार्थी रचिता स्वाईं अपने आलेख ‘ऑफ़ एंड फ़ॉर मेन हू येट रिजॉइस इन द एपिक स्ट्रगल’ में लिखती हैं कि महाभारत के कथानक पर आधारित प्रोफ़ेसर असीम पारही का अंग्रेज़ी गीतिकाव्य ‘ऑफ़ संस एंड फ़ादर्स’ पौराणिक काव्यों से गुज़रते हुए वर्तमान की परिस्थतियों की पड़ताल करता है, जबकि अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर सुप्रिया चौधरी इसे अंग्रेज़ी का एक अन्यतम गीतिकाव्य मानती है। उनकी अंग्रेज़ी कविताओं में एक आंतरिक लय है जो पाठकों के विचारों को सहजता से प्रभावित करती है, यद्यपि सटीक और सार्थक भाव सम्प्रेषणशीलता के लिए अनुवाद में यह लय अक्षुण्ण नहीं रह पाई। कवि के अपने तर्क हैं कि कर्ण के पैदा होते ही माँ कुंती ने उसे छोड़ दिया, अपनी इज़्ज़त की रक्षा के ख़ातिर। उसमें कर्ण का क्या दोष था? पहले तो दुर्वासा के मंत्रों का प्रयोग कर कुंती ने बहुत बड़ी ग़लती की थी, फिर अगर कर्ण उनकी अवैध संतान था तो उसे पैदा क्यों किया? और अगर पैदा कर भी लिया तो जन्मते ही उसका गला क्यों नहीं घोट दिया? और अगर गला भी नहीं घोंटा तो उसकी रक्षा करने के बजाए मौत के मुँह में छोड़ने का हक़ तो उन्हें नहीं था। शायद उस ज़माने में मानवीय अधिकारों पर तो बिल्कुल चर्चा नहीं होती होगी। अतः दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कुंती ने अप्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों से कर्ण की हत्या भले ही नहीं की हो, मगर उसकी व्यक्तिगत अस्मिता को आजीवन कलंकित कर दिया। यह उसकी क़िस्मत है कि वह बच गया, मगर एक ऐसा जीवन जीने के लिए, जिसने विश्वगुरु कहलाने वाले पूरे भारतीय समाज पर तमाचा मार दिया। कर्ण बच गया तो क्या हुआ? किसी सेवक ने उसे शरण दी, नतीजा समाज में नीच जाति का तमगा लगने की वजह से जातिवादी पक्षपाती द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या की शिक्षा देने से इंकार कर दिया। भले ही, बाद में गुरु परशुराम ने शिक्षा तो दी, मगर जब वह गुरु की सेवा में तल्लीन थे, एक बिच्छू ने कर्ण को काटा और उसके मुँह से आह तक नहीं निकली तो उसे अभिशाप दे दिया, यह कहकर, “तुम ज़रूर क्षत्रिय हो, अन्यथा यह पीड़ा सहन नहीं कर पाते और मैंने सारे क्षत्रियों को मारने का संकल्प लिया है। तुम धोखे से मेरे से शिष्य बन गए हो, इसलिए मैं अभिशाप देता हूँ कि तुम वक़्त आने पर यह विद्या भूल जाओगे।” 

दोनों परशुराम और द्रोणाचार्य के मन में जातिवाद का कीड़ा किस क़द्र कुलबुला रहा था, सोच के दायरे से बाहर है। द्वापर युग में भी हमारे देश में इतना प्रचंड जातिवाद समाज को खोखला कर रहा था! यह आज भी अकल्पनीय है। इससे बेहतर तो आज का कलियुग है। जहाँ कम से कम सारी जातियाँ क़ानून की दृष्टि में तो समान हैं, भले ही, अभी भी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और वैचारिक दृष्टिकोण पर जातियों के बीच में खाई बनी हुई है। एक सदी पहले प्रेमचंद ‘ठाकुर का कुआँ’ और ‘बूढ़ी काकी’ जैसी कहानी लिखते हैं और आज इस सदी में चित्रा मुद्गल ‘डोमेन काकी’ और ‘प्रेतयोनि’ लिखती हैं। क्या बदला है, कुछ भी तो नहीं। क्या उस समय दलित लेखन साहित्य का हिस्सा नहीं होता था? या सारा दलित समाज ब्राह्मणवाद के सिरसा की तरह खुले मुँह में ग्रास कर लिया गया था। जब प्रोफ़ेसर असीम पारही इस समस्या की तह तक पहुँचने के लिए कभी द्वापर युग के अतीत का अनुसंधान करते हैं तो कभी त्रेतायुग में टहल आते हैं। अंत में महाभारत के कर्ण के व्यक्तित्व को अपने भीतर आत्मसात कर उनका समाधान पाने का प्रयास करते हैं। कुछ आलोचकों का मानना है कि कवि असीम पारही इन कविताओं के माध्यम से समाज में नारी विरोधी आंदोलन चलाकर घृणा और नफ़रत फैलाने का कार्य कर रहे हैं, जबकि यह पूरी तरह असत्य है। उनकी कविताएँ पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि न तो वे कोई नारी विरोधी कार्य कर रहे हैं और न ही नफ़रत का बीजारोपण, बल्कि वे नारी वर्ग के आगे कुछ ऐतिहासिक, पौराणिक और साहित्यिक दृष्टांतों के माध्यम से उनकी ग़लतियों को सामने रखकर भविष्य में उनसे बचने का आह्वान करते हैं, ताकि मनुष्य समाज में पिता-पुत्र, माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन और अन्य सगे संबंधियों के साथ मधुर व्यवहार बना रहे। इस कविता-संग्रह की शुरूआत होती है, पुत्र के नाम पिता के पत्र से, ये दोनों ही अनाम हैं। पत्र इस प्रकार हैं:

“प्रिय पुत्र, 

कोई भी कवि, कवि की तरह ही मरता है चाहे वह कविता लिखे या न लिखे। वे उसे अनुभव करते हैं, हर प्रकार के छल-प्रपंच दूर से रहते हुए। मैं चाहता हूँ तुम भी सामान्य मनुष्य की तरह एक अच्छी निर्दोष आत्मा बनो। हमारे चारों तरफ़ ख़तरा मँडरा रहा है और वह ख़तरा है पाखंड, धूर्तता और दिखावेपन का। अपने छोटे से सुंदर जीवन के ख़ातिर उन्हें नज़र अंदाज़ कर देना। तुम्हारे ख़ून की धमनियों में साहित्य की पंक्तियाँ दौड़ेंगी और ख़ून अपने ख़ून को अवश्य खोजेगा। जो बचपन में नहीं मिल सका, वह तुम्हें अपने यौवन में प्राप्त होगा। आशा करता हूँ कि तुम कोई ऐसा कार्य नहीं करोगे, जिससे तुम्हारे पिता की छवि और स्वाभिमान पर ज़रा-सी भी आँच आए। मेरी बात याद रखना, स्वर्ग में सेवा करने की तुलना में नरक में शासन करना ज़्यादा बेहतर है। आख़िरकार पागलपन और तर्क-वितर्क के बीच एक महीन-सा अंतर होता है। मैं तुम्हें लिखता रहूँगा, इन अमूल्यवर्षों के दौरान मुझे कहना कुछ ज़्यादा अच्छा लगता है। मगर प्रकृति की भी अपनी सीमा है। 

तुम्हारा पिता” 

आज भी गीता, महाभारत, रामायण न केवल भारतीय वरन्‌ विश्व के सभी विद्वानों की प्रेरणा का स्रोत है और हर बार अलग-अलग दृष्टिकोण से उनका ध्यान आकर्षित करती हैं। इन ग्रंथों के गूढ़ार्थों की व्याख्या भी अलग-अलग ढंग से विद्वानों द्वारा की जाती है। ‘ज्यों केले के पात में पात-पात में पात, त्यों संतन की बात में बात-बात में बात’ वाली उक्ति चरितार्थ होती हुई नज़र आती है। हर युग में लोगों की चेतना का स्तर अलग होता है। इसे प्रभावित करने वाले कई घटक हैं, इसलिए उनके सोचने, समझने, अनुभव करने और अनुभूतियों में समय के साथ काफ़ी बदलाव आ जाता है। सही कहूँ तो स्वर्ग-नरक की अभिधारणा मुझे भी कभी-कभी अवैज्ञानिक प्रतीत होती है, शायद मूल्यबोधों के साथ जीवन जीने के लिए इनकी कल्पना की गई हो। इस सदी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग (8.1.1942–14.3.2018) का निम्न कथन मेरे ज़ेहन में ख़ून बनकर दौड़ता है:

“I believe the simplest explanation is, there is no God. No one created the universe and no one directs our fate. This leads me to a profound realization that there probably is no heaven and no afterlife either. We have this one life to appreciate the grand design of the universe and for that, I am extremely grateful.” 

विदेशों के विद्वान ही नहीं, बल्कि हमारे देश की महान हस्तियाँ जैसे श्री श्री परमहंस योगानंद महाराज अपनी पुस्तक ‘गॉड टाक्स विद अर्जुन’, प्रजापिता ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय वाले अपने ग्रंथ ‘महाभारत और गीता का सच्चा स्वरूप और सार’ तथा आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती अपनी युगांतरकारी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में महाभारत युद्ध के संदर्भ में कई सवालिया निशान उठाते हैं। उनके अनुसार महाभारत का युद्ध पृथ्वी के किसी भूभाग पर नहीं होकर प्राणी के भीतर सत-असत का अनवरत युद्ध है। रचनाकरों ने अमूर्त भावनाओं की समष्टि अभिव्यक्ति के लिए बाहरी उपमानों की सहायता ली है और प्रभावशाली ढंग से सामूहिक स्मृति पर गहरी अमिट छाप छोड़ने के लिए उन्होंने मिथकीय पात्रों को चुना है। श्री श्री परमहंस योगानंद महाराज ने महाभारत के पात्रों का मनोवैज्ञानिक अर्थ लिया है। जैसे पांडु का अर्थ बुद्धि, पाँचों पांडव युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव को क्रमशः सृष्टि के पाँचों महाभूतों अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि जल और पृथ्वी तत्त्व का प्रतीक माना है। हठ योग उन्हें चक्रों का स्थान देता है। नीचे के दो चक्र स्वाधिष्ठान, मूलाधार नकुल और सहदेव; ऊपरी तीन चक्र विशुद्धि, अनाहत, मणिपुर क्रमशः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन के द्योतक हैं और कुंडलिनी है द्रौपदी। अगर इन प्रतीकात्मक अर्थों को सही मान लिया जाए तो महाभारत वास्तव में हर प्राणी की अंतर्यात्रा है। इसी तरह दूसरे विद्वान देवदत्त पटनायक अपनी पुस्तक ‘ए वेरी इंडियन एप्रोच टू मैनेजमेंट: बिज़नेस सूत्र’ में पाँचोंं पांडवों की तुलना पाँच प्रकार के विद्यार्थियों से की है। राजा की तरह दूसरों से उत्तर सुनने की इच्छा रखने वाला विद्यार्थी युधिष्ठिर, सोचने में असमर्थ मगर ताक़त से काम करने वाला विद्यार्थी भीम, किसी के प्रश्न के उत्तर में धनुष के तीरों की तरह प्रतिप्रश्न दागने में सक्षम धनुर्धारी अर्जुन, दिखने में सुंदर मगर सोचने-समझने में कमज़ोर विद्यार्थी नकुल एवं कम बोलने वाला, ज़्यादा विश्लेषण करने वाला हमेशा चिंतनशील मुद्रा में रहने वाला विद्यार्थी सहदेव है। आज भी दक्षिण भारत में ज्योतिष शास्त्र, चेहरा देखकर भाषा पढ़ने तथा भविष्यवाणी करने वालों को बातचीत की भाषा में सहदेव कहा जाता है। विद्यार्थियों के इन लक्षणों को ध्यान में रखते हुए देवदत्त पटनायक अपने पुस्तक बिज़नेस सूत्र की रचना करते हैं। 

‘धर्म-क्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे’ वाले इस युद्ध को कैसे धर्मयुद्ध कहा जा सकता है, जिसमें युद्ध के नियमों की खुलेआम दोनों पक्षों द्वारा धज्जियाँ उड़ा दी गई हों! युद्ध भूमि में कोई भी स्त्री नहीं लड़नी चाहिए थी, सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं लड़ा जाना था, द्वंद्व में किसी का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं था, पशु-वध की इजाज़त नहीं थी, असत्य के प्रचार पर भी रोक थी, हथियार डालने वालों की हत्या नहीं की जानी थी, धनुष रखने से युद्ध नहीं लड़ना था, कमर के नीचे वार नहीं करना था; मगर पांडवों में अर्जुन, सात्यकी, भीम, युधिष्ठिर, धृष्टद्युम्न आदि ने इनका पालन नहीं किया। नतीजन भीष्म, जयद्रथ, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा (हाथी), द्रोण, कर्ण और दुर्योधन का वध हुआ। केवल पांडवों ने ही युद्ध के नियमों का पालन नहीं किया, ऐसी बात नहीं थी। कौरवों ने भी कुछ ऐसा ही किया। कौरवों की तरफ़ से द्रोण ने युद्ध के नियमों को भंग करते हुए अभिमन्यु जैसे अकेले योद्धा पर सामूहिक आक्रमण किया और उसे मौत के घाट उतारा। अश्वत्थामा ने नींद में सोए हुए पांडवों के पुत्रों पर हथियार चलाकर उनका वध किया। तब कहाँ रह गया धर्म और अधर्म? क्या यह युद्ध वास्तव में धर्म युद्ध था? या ‘एवरीथिंग इज़ फ़ेयर इन लव एंड वार’ वाली उक्ति यहाँ चरितार्थ होती है? 

इस कविता-संग्रह में कवि असीम पारही ने कर्ण के चरित्र को अत्यंत ही कारुणिक और हृदयस्पर्शी बनाया है, जो अकारण बिना किसी ग़लती के सदैव अंतर्द्वंद्व से न केवल जूझता है, वरन्‌ जब-तब प्रताड़ित होता रहता है। चाहे मित्रता या परिवार की बात हो, चाहे व्यक्तिगत महत्वकांक्षा या सार्वभौमिक हितों की अथवा वफ़ादारी या अवसरवाद की, हर समय उसे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर अंतर द्वंद्व से उबरने का प्रयास करना पड़ता है। द्रौपदी ने उसे स्वयंवर में इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वह किसी सारथी का बेटा था, न कि किसी आभिजात्य कुल का। यथार्थ में, पांडवों में सबसे बड़े होने के बाद भी जीवन भर तत्कालीन सामाजिक विद्रूपताओं और समस्याओं से संघर्ष करता रहा, अपमानित होता रहा। कर्ण की यह अवस्था देखकर पाठक स्वयं द्रवीभूत हो जाते हैं। इस संवेदना को कवि ने अपनी कविता ‘माता’ की निम्न पंक्तियों में बाँधा है:

“क्यों फेंका तुमने मुझे
घुप्प अँधेरे में, 
बहती नदी की
गरजती लहरों की
तीव्र धाराओं के मध्य
जीवन के निस्संग पथ पर? 
क्या तुमने कभी सोचा
डूब सकता हूँ मैं
जन्मजात नायक होकर भी? 
मेरी जादुई ढाल में
बसते हैं मेरे पिता
मेरे कानों में बजता उनका संगीत
मेरे आहत हृदय पर मरहम लगाने वाले पिता
उनकी अनुभूति
मेरे रक्षक, मेरे शिक्षक
और तुम मेरी माँ, मेरी क़ातिल
परशुराम, मेरे प्रशिक्षक
दुर्योधन, मेरे उद्धारक
और तुम! स्वार्थी माँ! 
क्यों किया तुमने पक्षपात? 
इसलिए, नहीं दूँगा उपहार
तुम्हें मेरे हथियार
तुम मेरी निर्दयी माँ।” 

महाभारत का तत्कालीन समाज यौन-आगमन, यौन-शोषण, यौन-मेज़बानी जैसी अनेक प्रथाओं से प्रभावित था। पराशर मुनि—मत्स्यगंधा सत्यवती, कुंती—सूर्य आदि के अवैध सम्बन्ध इस प्रथा की पुष्टि करते हैं। उस समय वैदिक काल के प्रारंभिक देवताओं में यम, इंद्र, वायु, अश्विनी आदि को आमंत्रित किया जाता था, न कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश को। मगर कालांतर में अधिकांश जगहों पर यह प्रथा समाप्त हो गई, फिर आज भी कुछ पहाड़ी इलाक़ों में देखने को मिलती है। सत्ता की भूख किसे नहीं सताती? क्या पुरुष, क्या महिला? समूचे महाभारत में माद्री की संतानें कुंती की संतानों की छत्रछाया में पलते हुए नज़र आती हैं। वर्ण-धर्म की विसंगति को सहजता से देखी जा सकती है? उदाहरण के तौर पर, द्रोण ब्राह्मण होकर क्षत्रिय बन सकता है मगर एकलव्य शूद्र होकर क्षत्रिय नहीं बन सकता है? अश्वत्थामा ब्राह्मण होकर भी क्षत्रिय बना रह सकता है? इस तरह समाज में जाति का आधार जन्म था या कर्म, इस विषय पर सही ढंग से संकेत नहीं मिल पा रहे हैं। कर्ण अपने ऊपर समाज की थोपी हुई परंपराओं के आगे झुकने को तैयार नहीं था, वह भले ही सारथी का बेटा था, सारथी बनकर रहना नहीं चाहता था, क्षत्रिय बनकर उसने उस परंपरा को तोड़ा। कृष्ण क्षत्रिय थे, मगर जीवन भर ग्वालागिरी करते रहे। ऐसी परिस्थितियों में कर्ण भी भ्रमित थे, उन्हें भी सही राह नहीं दिख रही थी। उनके एक और दर्द को कवि ने ‘मृत्युंजय’ में उभारा है:

“जब मैं गया कुरुक्षेत्र
मेरे पास था बाँस का धनुष और मेरा करिश्मा
और तुम्हारे पास था तुम्हारा अलौकिक धनुष-बाण
जो दिया था तुम्हें किसी ने दान
मैंने परशुराम से की थी शिक्षा-ग्रहण
और तुमने ऐसे गुरु से, जो नहीं था स्वार्थहीन
मेरे शिक्षक ने दिया मुझे अभिशाप
मगर तुमने तो किया गुरु-हत्या का पाप
और कर दिया सिद्ध
शिष्य हो सकते हैं गुरुहंता
और मैंने गुरु के शाप को माना आशीर्वाद
तुमने तो रक्त-पिपासु वेश्या से किया पाणिग्रहण
और मैंने निभाई शक्तिशाली विशाल हृदय वाले पुरुष से मैत्री
मैंने स्वर्ग में सुना कि तुम्हारा मित्र बनाकर तुम्हें शक्तिहीन
कर तुम्हें नरपुंगव, खुद चला गया वन
जहाँ जारा-शबर ने पैरों के तलवों में मारा तीर, 
सच में वह था जंगल में उस कायर मौत का हक़दार। 
आजीवन तुम बने रहे किसी बाहरी व्यक्ति के दास, 
जिसने वजह से हुई तुम्हारे पुत्र-प्रपोत्रों की निर्मम हत्या, 
फिर भी कहते रहे तुम उसे भगवान
मित्र नहीं होते एक दूसरे के ग़ुलाम
और नहीं होते पत्नियों को अनसुना करने वाले कम बहादुर
मुझे और मेरे गुस्सैल कुरु को नहीं था अपने जीवन से लाड़-प्यार
जो थी तुम्हारी रक्तपिपासु पत्नी की चाह
महाभारत के युद्ध में तुमने सेवा की उसकी, 
जिसने यशोदा, राधा और वृंदावति को दिया धोखा? 
मैं सूर्य से पैदा हुआ हूँ, 
और तुम ऐसे देवता से, 
जो हमेशा संघर्षरत, भटकता इधर-उधर? 
इतिहास में मृत्युंजय की पत्नी नहीं होगी अमर, 
मगर मेरी महिमा और प्रेम का गौरव सदैव यादगार
आने वाली पीढ़ी तुम्हें कोसेगी और तुम्हारे प्रशंसक भी।” 

कर्ण की अंतरात्मा द्रौपदी की साझेदारी के उपरांत करहाती है। राजा होकर वह समाज के सामने कैसा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता था! शायद तत्कालीन पृष्ठभूमि भी ऐसी हो रही होगी कि अगर द्रौपदी केवल अर्जुन की पत्नी बनी रहेगी तो यौन-ईर्ष्या की वजह से उन भाइयों में फूट पड़ जाएगी और वह अपने लक्ष्य में कामयाब नहीं हो पाएँगे। शायद कुंती की यह सोच रही होगी, तभी उसने द्रौपदी को सभी भाइयों में बराबर-बराबर बाँटने का आदेश दे दिया। आज भी भारत के दक्षिण में डोडा, उत्तराखंड के कुछ पहाड़ी इलाक़ों में ‘एक रसोई-एक पुत्रवधू’ की रस्म जीवित है, ताकि घर की सम्पत्ति का बँटवारा न हो। द्रोपदी ने पाँच पांडवों से पृथक-पृथक संसर्ग कर पाँच पुत्रों का को जन्म दिया। युधिष्ठिर से प्रतिबिंध्य, भीम से शतसोम, अर्जुन से शूर्तकीर्ति, नकुल से शतनीक और सहदेव से श्रुतसेन को जन्म दिया। उस ज़माने में बहुपति प्रथा ही नहीं, बल्कि बहुपत्नी प्रथा भी ज़ोरों पर थी। राजघराने इस मामले में कुछ ज़्यादा ही अय्याश होते थे। युधिष्ठिर की दूसरी पत्नी देविका से भौदेय, भीम की बालंधरा (काशी नरेश की पुत्री) से संवाग, अर्जुन की अन्य पत्नियों में सुभद्रा, उलूपी और चित्रांगदा, नकुल की चेदी की राजकुमारी करेनमूर्ति से नीरमित्र और सहदेव की माद्र नरेश की पुत्री विजया से सुहोत्र आदि पुत्रों के जन्म होने की जानकारी मिलती है। 19वीं सदी में रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘चित्रांगदा’ नामक एक नृत्य नाटिका भी लिखी है, जिसमें उसे मणिपुर की राजकुमारी दिखाया गया है। इस तरह उस समय अवैध सम्बन्ध सामाजिक तौर पर स्वीकार्य थे। समीक्षकों का ध्यान नस्लवाद की ओर भी जाता है। हिडम्बी भीम की पत्नी थी, मगर आदिवासी होने के कारण कुंती ने उसे सामाजिक तौर पर मान्यता नहीं दी। समाज में हठधर्मिता और कट्टरपंथी विचारधारा भी पूरी तरह से व्याप्त थी। युद्ध न हो, कौरवों-पांडवों में शान्ति बनी रहे, यह सोचकर कृष्ण ने दुर्योधन से पाँच पांडवों के लिए पाँच गाँव पानीप्रस्थ (वर्तमान में पानीपत), सोनप्रस्थ (वर्तमान में सोनपत), वृक्षप्रस्थ (वर्तमान में बागपत) और इंद्रप्रस्थ वर्तमान में (पुरानी दिल्ली) माँगे थे। किन्तु दुर्योधन को बिलकुल दया नहीं आई। अपराध-बोध से विदीर्ण कर्ण दुर्योधन द्वारा पाँच गाँवों को न दिए जाने को भी सही मानकर अपने मन के अंदर पश्चाताप करता है, मगर उसके निर्णय को सही ठहराता है। ‘दुर्योधन-पुत्र’ कविता से:

“क्या तुम नहीं हो दुर्योधन-सुत? 
अँधेरे में जन्मे, कल्पना-प्रसूत! 
सदी की आशा, असहनीय अतीत
देखो, स्वप्न-भंग से हो जाए तुम्हारा चेहरा रंग-विहीन
इससे पहले, तट पर आए तुम्हारे अधरों से तूफ़ान
ओह, तुम बन गए कर्ण! धिक्-धिक्कार, मैं भाग्यहीन!! 

आज के नए मनुष्य में—कवि ने कर्ण के अवतरण को देखा है और उसके ज़रिए विश्व इतिहास में उसकी भूमिका पर भी टिप्पणियाँ की है। असीम पारही जी की उद्भावनाएँ कितनी सार्थक और संगत है, कहाँ तक ग्राह्य होंगी, इसका निर्णय भी समय करेगा। अपनी ओर, संप्रति मैं यही कहना चाहूँगा कि यह कृति मौलिक और सर्जनधर्मी तो है, विचारोत्तेजक भी है। कवि की यह महत्वाकांक्षी रचना पाठक-समाज को आंदोलित ज़रूर करेगी, अपने विचारोत्तेजक कथ्य के नाते ही चर्चित होगी और समकालीन काव्य-विमर्श का विषय बनेगी। राजकुमार हेमलेट की पंक्तियाँ उल्लेखनीय है:

“भुगतने होंगे भाग्य के शूल
या उठाने होंगे हथियार
मुसीबतों के महासागर
होना या ना होना
यह है प्रश्न

अतीत के सावन की
धुँधली स्मृतियाँ
अति नज़दीक
अभी तक अंतिम यजमान

तरह-तरह की घटनाओं से भरा यह वर्ष
अरे!  तुम हो अमिट
मेरे अंतस की असीम पृष्ठभूमि
में खिले दो श्वेत धवल पुष्प
धर्म और सत्य
विगत सावन महीने के झूलें
अंतिम चाँद का वलय
देते हैं तुम्हें श्रद्धांजलि
दूर से ही सही
पुण्य से बढ़ता है प्रेम
दृढ़ से दृढ़तर।” 

इस तरह प्रोफ़ेसर असीम पारही जी की कविताओं में आप पाएँगें पिता और पुत्र की बदली हुई भूमिका और साथ ही इतिहास की जादूगरी। उनकी कविताओं में मानवीय दर्द मिलेगा और वेदना की अनेक परछाइयाँ भी। कवि असीम पारही ख़ुद कहते हैं उनकी कविताएँ ‘चीयर्स’ और ‘टीयर्स’ से उपजी हैं। उनकी भावनाओं में जहाँ प्यार की नदी बहती है, वहाँ क्रोध का लावा भी साथ-साथ बहता है। उनकी कविताओं में लौरेंशियन प्रतिध्वनि सुनाई देती है। उनकी कविताओं में पारंपरिकता का पुट है तो आधुनिकता की कलगी, जिसमें ख़ून के रिश्तों, ऐहित्य और विरासत से ऊपर उठकर प्रश्न पूछे जाते हैं। कवि स्वयं कर्ण और दुर्योधन बनकर वर्ड्सवर्थ के मुहावरे ‘पुत्र आदमी का पिता होता है।’ को बदलकर अपने दूसरे मुहावरे ‘पिता पुत्र होते हैं, लेकिन तनावग्रस्त’ की रचना करते हैं। इस तरह पिता और पुत्र की भूमिका बदकर इतिहास के यथार्थ लेखन की ओर अपनी क़लम चलाते हैं। ‘जब तुम चले जाओगे’ कविता में कवि कभी नहीं चाहता कि उसके बेटे को इन परिस्थितियों से गुज़रना पड़ें और आधुनिक मनुष्य की तरह अंधभक्ति, चमचागिरी, चापलूसी और बाहरी दिखावे की उसे ज़रूरत पड़े: 

“जब तुम चले जाओगे
रुक जाएगी शीतल पवन
पल भर के लिए
लघु बसंत की शाम होगी अशांत
पल भर के लिए
नीरवता के अंतहीन ग्रीष्म की अनजान चेतावनी
उस मोड़ पर
शाश्वत अतीत
जिसने कभी नहीं किया भविष्य उद्घोषित”

ऐसे ही अंतर्वस्तु ‘आहत विचार’ की इन पंक्तियों में भी देखने को मिलती है कि दिव्य-उन्माद से माताओं की प्रशंसा करना भी उतना ही हानिकारक है, जितना मांसाहारी देवी-देवताओं की पूजा करना: 

“मेरे प्रिय
पुत्र कर्ण! 
क्या कभी कोई देवी ख़ून पी सकती है? 
ओह! उनके ख़ून-सनी कटार से
क्या मिलता है आशीर्वाद
या आती है आँसुओं की बाढ़? 
इसलिए मेरे
प्रिय पुत्र
किसी भी मांसाहारी देवी-देवता
की पूजा मत करना।” 

पिता के मन में पुत्र के विचारों को शब्दों में समेटते समय उनकी कविताओं में भावुकता का दबाव अपने आप झलक आता हैं, ‘हत्या’ कविता की निम्न पंक्तियों में देखें:

प्रति दिन, 
प्रति पल
प्रति निमिष
क्रूर कराल कटार
करती है हत्या
मेरी नीली आत्मा, 
गुलाबी हृदय
लाल विचारों की। 
सुबह की नैसर्गिक पुकार
रात की अशांत उठापटक
शेली के जीवन कंटक! 
या कीट्स के शोक-संगीत? 
टायर्सियन जल्लाद
आगे बढ़ता है क़दम-क़दम
और मारता है रत्ती-रत्ती भर
हर तरफ़ चुभने वाली सूई
और फिर तुर्की खेलकूद।” 

‘पत्नी’ कविता में कवि मिथकीय और साहित्यिक वृत्तांतों से अलग हटकर नारियों के बारे में पुरुषों के पूर्वाग्रहों को बुरी तरह हिला देते हैं: 

“सभी असफल पुरुषों के पीछे होती हमेशा पत्नी
झगड़ालू, लड़ाकू और अपशकुनी
द्रौपदी, लेडी मैकबेथ, कैकेयी
अटूट अडिग आत्मविश्वासी
खड़ी होती साथ अपने
परिवार, परिजन
दोस्तों, छात्रों और कुछ जादूगरनी
दिखाती अपना प्रेम आसमानी
देखभाल और मगरमच्छी सहानुभूति
हमेशा हमारे हाड़मांस पर पनपती, 
दूसरे को धोखा देने में प्रवीण” 

जिस तरह कभी शेक्सपियर ने हेमलेट में कहा था “Frailty, thy name is woman!” आज महाभारत हमारी सामूहिक चेतना में पूरी तरह समाया हुआ है, जिसमें द्रौपदी, कुंती, सती जैसे जटिल चरित्र उभरकर सामने आते हैं, जिन पर राजनीति से सामाजिक गतिशीलता नज़र आने लगती है। डॉ. राम मनोहर लोहिया द्रोपदी को अपने ज़माने की सबसे ज़्यादा ताक़तवर महिला मानते थे और प्रतिभा राय अपने उपन्यास ‘याज्ञसेनी’ में द्रोपदी को विद्रोही नारी का दर्जा देती है, जबकि अगर कर्ण सबसे बड़ी ग़लती करता है अपने जीवन में, तो तो वह है द्रौपदी को वेश्या कहना, क्योंकि कर्ण और द्रौपदी एक दूसरे को प्यार करते थे, मगर कर्ण पर नीची जाति का तमगा लगने के कारण द्रौपदी उन्हें पति के रूप में स्वीकार नहीं कर पाई। कवि ने भी कर्ण की तरह यही ग़लती दोहराई है, कर्ण के पिता सूर्य के मुँह से द्रौपदी को वेश्या कहलवाया है: 

“पर मेरे प्रिय
लक्ष्य मत रखना कभी भी
वेश्या के स्वयंवर पर
तुम, मेरे पुत्र
सूर्य-कलश
तुमसे अलग नहीं होंगे
मेरे कवच कुंडल
तुम नहीं छोड़ेंगे अकेले”

पांचाली कहने से भी तो काम चल सकता था, पाठक सहजता से भावार्थ समझ जाते। निस्संदेह कर्ण सूर्यपुत्र है, देदीप्यमान पिता की देदीप्यमान संतान। मगर सूर्य यहाँ आग का गोला या खगोलीय पिंड नहीं हैं। आगे जाकर दुर्योधन भी कर्ण के पितातुल्य ही सहायक साबित हुआ। 

इस कविता-संग्रह में कर्ण यहाँ अपनी माता और अन्य महिलाओं से प्रताड़ित वर्ग का प्रतिनिधि है। जातिवाद और सामाजिक विसंगतियों से लड़ाई उसका महाभारत है। इस महाभारत में ग़रीबी के लिए लड़ने वाले योद्धाओं के वंश में इस नए मनुष्य को मार्क्स, लेलिन, माओ, हो-ची-मिह्न, चे-ग्वे-वारा, अंबेडकर—उत्प्रेरित करेंगे। इनकी चेतना उसमें प्रवहमान होगी। वस्तुतः प्रोफ़ेसर असीम पारही जी का यह कविता-संग्रह हमारे समय की संभावनाओं की आवाज़ बनेगा। अंत में मुझे आशा ही नहीं वरन् पूर्ण विश्वास है कि हिन्दी जगत में उनकी कविताओं का भरपूर स्वागत होगा और सहर्ष उन्हें आदर से पढ़ा जाएगा। 

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