पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
पिताओं और पुत्रों की

 

मैंने तुम्हें जगाया, मैंने तुम्हें चेताया
तुम नितांत अकेले ख़ाली खड़े थे उस अरण्य
अँधेरे में तुम्हारे जन्म पर हँस रहा था भाग्य
मैं उसकी रणनीतिक सोच पर बहुत मुस्कुराया
 
जब तुमने याद किया अपनी बचपन की रातों में मुझे
जब तुमने चाहा अपनी क्षणिक काल्पनिक उड़ानों में मुझे
मैंने तुम्हें नहीं दिए तुम्हारे निर्दोष अधिकार
मैं रोशन करता हूँ संसार, 
मैं, तुम्हारे आँसुओं की वह धार
प्यारे बेटे, 
अगर मैं लड़खड़ाया एक बार भी, तुम हो जाओगे चूर-चूर
बुरे सपने तुम्हारे भाग्य को कोसेंगे बार-बार
 
लेकिन तब था मैं भगवान
बचा रहा था संसार का संक्रमण
 
आज मेरा उद्देश्य लाना है खोया सम्मान फिर
बिना हुए प्रभावित मेरे पूर्व परोपकार
बेहतर होगा, मैं पकड़ूँ तुम्हें कसकर
पूरा ब्रह्मांड दिखता उज्ज्वल तुम्हारे भीतर
 
मैं नहीं देख सकता तुम्हारे उदास नेत्र
विदीर्ण रथ, शत्रुओं के शोरगुल में यादों की बारात
कम कारगार ब्रह्मास्त्र और पशुपात
ज़िद्दी पिता और उत्साह ज्वलंत
 
मेरे बेटे, मैं तुम्हें डराता हूँ
डाँटता हूँ, शांत करता हूँ, 
फिर भी शायद मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, 
अभी भी कालजयी, मनोद्वेग और तेज़ दक्षिणी पवन
करते हैं मेरे प्यार का प्रस्फुटन, 
रात की अशांत पवन में कर रहा हूँ जागरण, 
फिर भी सर्वोच्च और दुर्लभ, विद्रोह की किरण
 
पिता हैं, मगर बेटे उदास प्यार में निमग्न
सदैव तैयार कार्रवाई हेतु प्रसन्न मन
इतिहास जानता है, महाकाव्यिक समर
क्षति केवल दर्शाती भाग्य क्रूर
ब्रह्मास्त्र ही क्षमा का अकेला ज़ेवर
इसलिए प्रिय, क्यों उठाते ज्वार
या करते हृदय चूर-चूर
जब सौगंध खाते हैं कर्ण को उठाने की भास्कर? 

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