पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
इतिहास का बोझ

 

क्या है अनिश्चित, रहस्यमय वज़न? 
जिसमें है अब भी आकर्षण
दूसरे दिन से मेरे अभिशप्त दुश्मन
सहस्र वर्षों के तुल्य वह दिन
जब तुमने किया सीमाओं का अतिक्रमण
और साज़िशकर्ताओं को दिया प्रलोभन
एक संभावित राजा के विनाश का आमंत्रण
अँधेरी अफ़वाहों में पैतृक नैतिकता के अवगुण
चिंतित नैतिक पागलपन
निर्दयी असभ्य आचरण
मुझे करता सदा परेशान, 
मानो मेरा हो गया हो मरण, 
दमित भाग्य की उलझन
मेरे लिए अक्षम्य, अविस्मरण
कोई पतित पुरस्कार या उत्थान
भले देर से सही, मगर नहीं खोखलापन
पाँच अंगुल भूमि जैसे पाँच सिंहासन
निम्न लोगों के लिए सिर्फ़ मूर्खपन
उनके राजद्रोह का प्रसारण
और तुम्हारा पक्षपाती अवलोकन
मानव-महिमा का खंडन
पूर्वजों का गरिमा भंजन
उभारते तुम्हारे पूर्वाग्रहों के निशान। 
योद्धाओं का दुर्ग होता है क्रोध-प्रदर्शन
प्रसन्न चेहरे पर उत्कीर्ण
भाव-भंगिमा के एकमात्र वसन
अश्रुल मोतियों का काव्य-हार
महाकाव्यिक आत्मविश्वास की महालहर
सांकेतिक समर, 
फिर भी मृत्यु का नहीं कोई ठोर
ब्रह्मास्त्र के अंतिम तीर
चलना सिखाया था तुम्हें, हे वीर! 
स्मृति-भ्रंश का संशोधन
क्षमा करना नहीं होता अविस्मरण
जब तक न हो तीर-भेदन, 
तभी तक सुरक्षित जीवन
या शरारती अंगों का जादुई संरक्षण
मैं जीवित हूँ, जब तक हैं उनका जीवन
और शांतिपूर्ण पालन-पोषण
जब अधिकार होते हैं सत्य-कथन
तब क्यों प्रताड़न, क्यों शक्ति-दमन? 
उठो और उठो, 
जो कुछ भी तुमने बनाए श्मशान, 
अब वे हैं सब ध्वनिहीन
और तुम्हारा अभिमान, 
नहीं हो पाया कहीं स्थापन
और अभी भी अशालीन अपूर्ण। 

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