पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
जियो मानव, जियो! 

जियो अपना पूर्ण ‘स्व’, 
हे व्याधि मानव! 
हे पीड़ित-पुरुष! 
किसी ने आज तक नहीं गाई गाथा
तुम्हारे ऐतिहासिक विरासत की, 
तुम्हारे नारकीय जीवन की, 
मध्याह्न जीवन के अंतहीन ज़ंजीरों, 
मरणासन्न चुड़ैलों और उनके सत्य की, 
क्लांत-पुत्रों और विश्रांत-जनता
पर कटार चलाने वाले जल्लादों की। 
माताएँ होती हैं, 
सनातन हत्यारिनें
भले ही, आँकी नहीं गई हो, 
महाकाव्य, मिथक, या आधुनिक मानस में? 
क्या याद हैं द्रौपदी, कुंती जैसी नारियाँ? 
सशक्त स्त्री, असहाय पुत्र! 
मासूमों पर क़हर ढाती क्रूरता? 
 
कर्ण! तुम क्यों खोते हो अपना ‘स्व’
मुँहफट महिलाओं, 
ग़ुलाम भाइयों और
अहंकारी अगुआओं के लिए? 
जो पीछे छोड़ते हैं
नितांत अकेले पुरुष, 
दुर्योधन की शृंखला
और करते हैं अध्यारोपित
नवागत पीढ़ी पर
कलंकित महिमा
त्रासदीपूर्ण। 
क्यों उज्ज्वल
क्यों द्युतिमान
क्यों तेजस्वियों के
भाग्य में लिखा है
कष्ट-ही-कष्ट
स्त्रियों या गुर्राते शिकारियों की वजह से? 
जागो, पुरुष भाइयों! 
महाकाव्यों में करें सुधार
पुरुष-पुनरुत्थान फिर से एक बार। 

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