पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
यात्रा

1.
हिमालय-पाद से नीले समुद्र की यात्रा, 
पार्थिव
या मेरा आध्यात्मिक आरोहण? 
अकेले धर्मयुद्ध, अकेले तृण पर
मेघों की गड़गड़ाहट, 
भयावह विद्युत
सभी अतिक्रमित, शासित एवं पारित। 
जीवन-धन
या अवरुद्ध उल्लंघन
यात्रा का महाकाव्य
भले ही मधुर, लेकिन
पार्श्व में कँटीले चक्र का
अनवरत अनुगमन। 
अकेले धर्मयोद्धा
तुम हो मेरे सह-लेखक
निर्दोष भ्राता
प्रेरक शिक्षक
तुम हो साक्षी
दुर्योधन के न्याय-सम्मान के
यात्रा-पथ के। 
 
2.
मेरे पुत्र, 
तुम पूछ रहे थे तुम्हारे रक्तिम उपपिता के बारे में
जो याद दिलाता था तुम्हें अपने पिता की, 
तुम्हारे साहसिक बचपन की
सदमाग्रस्त कर्ण की और
शिकारी कसाई की
तुम पूछ रहे थे, 
पुरातन उत्साह के बारे में
जिससे बीता तुम्हारे विगत दिनों का शिशुपन
मैं कैसे अनदेखा कर सकता हूँ, तुम्हारा वह स्वप्न! 
तूफ़ानी मौसम लेकर आया मैं
आख़िरकार एक बार कहा मैंने
जितने तुम अध्ययनशील, उतने स्वच्छ भी, 
जितने सुचालक, उतने घातक भी, 
ताकि मेरे पापी दुश्मन
रहें सावधान
और हो मेरी जीत आजीवन। 
प्रिय पुत्र, 
चढ़ना सँभालकर
अपने रक्तिम रथ
और सोच-समझकर चलाना
अपने अकेले पिता के लंगर, 
क्योंकि अब वह कवचरहित, 
देखना इसे, 
इस बार नहीं होगा गहन दफ़न
और कभी नहीं सोएँगे उसके स्वप्न
मूर्ख कायरों को इसलिए करें विनष्ट। 
 
3.
प्रिय पिता, 
आप नहीं होंगे प्रसन्न
फिर भी गर्व करोगे मेरी इस यात्रा पर
और चमत्कारिक बनाओगे मेरा स्थान, 
लेकिन मेरा ढाल सहित प्रवेश से
रोमांचित होगा मेरी माँ का उत्साह
और मेरे अनंतिम रहस्य की
प्रतीकात्मक जीत
क्योंकि उसने किया था मुझे सशस्त्र, 
सिर से नख तक
कभी भी
नहीं झुकने के लिए
और न ही समर्पण के लिए। 

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