पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
एक और फरवरी

एक और फरवरी
दूसरे सात
तीन साल
ग्रीष्म और वर्ष की तीन ऋतुएँ
दूरी जिससे सीखे तुम भाषा
बालपूर्वक
विश्वासघात में
चुड़ैलों का कोई अभाव नहीं
कवि जानता है
वे भटकती है सारी दुनिया
मानव रूप में
जैसे उन्होंने तुम पर जमाया अपना आधिपत्य
जैसे उन्होंने ढाला मुझे
अपने घूँघट की नुकीली वर्तनी से
सच ऐसे ही होते राक्षस
जो पृथ्वी का करते परिभ्रमण
 
श्वेत मुखौटा ओढ़कर
तुमने तो किया था विरोध
अपनी कोमल हथेलियों से
उनके शीत वयस्क विवेक का
आधे-अधूरा फुसफुसाते हुए, 
तुम जानते थे प्यार, 
हम करेंगे उनके निर्मम हाथों का शृंगार
मिटाए उनसे ईर्ष्यापूर्ण दूरी
अवसाद नहीं होती कोई निराशा
एक कविता, दूसरा अंकगणित
एक, तारों भरे आकाश में एक काला चाँद
दूसरा, चालाक, निंदक मुस्कान
इसलिए तुम युवा सितारा
रोको आँसुओं का प्लावन
तुम्हारे
मेरे
हमारे
महापुरुषों के आँसुओं के मोती
मैं हूँ पापी
लेकिन तुम? 
बुरा मत मानना
हम गाएँगे तुम्हारे दादा के मंत्र
मगर नहीं सुनेंगे उनकी अनुभूति
हम पैदा हुए प्रतिशोध के लिए
आहत कर्ण
गुमनाम दुर्योधन, 
हम बुनेंगे जादू
बीमारों को मारने वाला
नम्रता को ढककर
भाग्य को कोसे बिना
हम करेंगे शासन
छोड़ते, जीते
मिलते, कराहते
हम बनाएँगे, हम बिगाड़ेंगे
अपनी खोज में चमकते
शूरवीरों की सीधी दौड़
युद्ध के अंतिम दिन
भोर-भोर
मत भूलना, मेरे प्रिय! 
हमारी होगी विजय। 

<< पीछे : जियो मानव, जियो!  आगे : गगन-प्रकृति >>

लेखक की कृतियाँ

विडियो
ऑडियो

अनुवादक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज

विशेषांक में