गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा

15-10-2023

गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा

दिनेश कुमार माली (अंक: 239, अक्टूबर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

‘एक गाय की आत्मकथा’ ही क्यों? 

‘एक गाय की आत्मकथा’ गिरीश पंकज जी का आधुनिकता के प्रभाव से विकृत होती मानवीय चेतना को झकझोरने वाला शिक्षाप्रद उपन्यास है, जो न केवल वर्तमान समय वरन्‌ मानव सभ्यता के उद्भव से लगाकर वेद-पुराण सारे धार्मिक ग्रन्थों के रचयिताओं, धर्मगुरुओं, राज-नेताओं, गाँधी, विनोबा भावे, शंकराचार्य जैसे महान विद्वानों द्वारा गो-वध पर रोक लगाने के आवाहन को चरितार्थ करने के पीछे छुपे उद्देश्यों के प्रासंगिकता पर पूरी तरह से खरा उतरता है। 

गिरीश पंकज जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय लगभग एक दशक पुराना है, इसलिए मैं यह कह सकता हूँ कि वे जितने मितभाषी है, उतने ही ज़्यादा मृदुभाषी भी है। यह ही नहीं, वे बहुत ही कम शब्दों में अधिक से अधिक सारगर्भित बातों को रखने में सिद्धहस्त हैं। व्यंग्य की दुनिया में तो उनका कहना ही क्या! गैलेक्सियों में चमकते हुए एक सितारे की तरह वह देदीप्यमान है। सृजन गाथा में लगातार कई वर्षों से प्रकाशित हो रहे उनके स्थायी स्तंभ ‘विक्रम वेताल’ का मैं नियमित पाठक व प्रशंसक रहा हूँ, उनकी व्यंग्य-रचनाएँ समाज के यथार्थ को उजागर करने के साथ-साथ एक नव संदेश भी देती है, अपने सामाजिक मूल्यों, चारित्रिक गुणों, मान-मर्यादा तथा विरासत में प्राप्त संस्कृति की रक्षा के लिए। 

इस किताब पर कुछ लिखने से पूर्व बार-बार मेरे मन में एक ही सवाल आ रहा था कि आख़िरकार गिरीश पंकज जी जैसे बड़े रचनाकार को ‘एक गाय की आत्मकथा’ जैसे छोटे विषय पर इतना बड़ा उपन्यास लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या वह हाईफ़ाई व हाइटेक आधुनिक संवेदनहीन समाज को कुछ सिखाना चाहते हैं? उन्हें विकास के नाम पर प्रकृति व संस्कृति के दोहन को रोकने की शिक्षा देना चाहते हैं? आज भी वह बात अच्छी तरह याद है, बचपन में जब छोटी क्लास में हम पढ़ते थे, तब होमवर्क में गाय की आत्मकथा जैसे निबंध लिखने के लिए शिक्षक देते थे। आज भी स्मृति-पटल पर एक छात्र द्वारा परीक्षा के पेपर में लिखा गया वाक्य ‘गाय हमारी माता है, “हमको कुछ नहीं आता है” की जाँच की दौरान शिक्षक के द्वारा लिखा गया कमेंट “बछिया के तुम ताऊ जी, ज़ीरो नंबर पाओ जी” का व्यंग्य तरोताज़ा हो कर उभरकर सामने आता है और अतीत की उन यादों में खोकर मंद-मंद मुस्कराने के लिए बाध्य कर देता है। मेरे कहने का अर्थ यह था कि हमारी शिक्षा की प्रारम्भिक नींव की शुरूआत भी गाय से होती है, बचपन से ही हमारे भीतर अपने देश की सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुसार गाय को ‘गौ-माता’, गंगा नदी को ‘गंगा माँ’,  हमारे देश को ‘भारत माता’ तथा सरस्वती प्रतिमा को ‘सरस्वती-माँ’ के नाम से पुकारकर एक रागात्मक रिश्ता दर्शाते हुए भारतीय दर्शन के पावन परिवेश को उजागर करने का प्रचलन रहा है। इस उपन्यास में गिरीश पंकज जी ने 17 अध्यायों की रचना की है, जिसमें उन्होंने देशभर की अनेक पत्र-पत्रिकाओं पुस्तकों तथा शोध-ग्रंथों का संदर्भ लिया है, जिसमें ‘कल्याण’ मासिक पत्रिका गौ अंक’, गीताप्रेस गोरखपुर, राम चरित मानस, युग निर्माण योजना डॉ. नेमीचन्द की पुस्तक ‘कत्लखाने:सौ तथ्य’, किसान और गाय स्वामी मंसूक दास ‘पेटा’ की वेब साइट विकास दावे की पौराणिक एवं आधुनिक गौ भक्ति कथाएँ आदि प्रमुख हैं। यही नहीं, उपन्यास के अंदर सभी धर्मों जैसे मुस्लिम, जैन, सिख, बौद्ध, ईसाई सभी धर्मों के ग्रंथों का सटीक सहारा लेते हुए यह सिद्ध किया है कि किसी भी धर्म में गो-वध का उल्लेख नहीं है, वरन्‌ सारे धर्म गो रक्षा के पक्षधर हैं। 

राजस्थान के एक किसान परिवार में पैदा होने के कारण मुझे गिरीश पंकज जी के उपन्यास ‘गाय की आत्मकथा’ को आत्मसात करने में बिलकुल भी समय नहीं लगा, क्योंकि मैंने अपने घर के मुख्य व्यवसाय पशु-पालन व खेतीबाड़ी के कार्यों को अत्यंत ही नज़दीक से देखा। यह उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लग रहा था मानो कोई अदृश्य शक्ति मुझे अपने अतीत में ले जा रही हो और उस बाल्य व किशोर जीवन के स्मृति-पटल पर अंकित दृश्य एक-एककर पुनर्जीवित हो रहे हो। अरावली पर्वत के तलहटी में बसी मेरी जन्म-स्थली सिरोही नगरी के कालकाजी तालाब के पीछे वाला हमारा हरा-भरा खेत, गेहूँ और ‘रजगे’ की क्यारियों में हाथ में फावड़ा लिए सिंचाई करती माँ, ‘ओडू’ के पास खूँटें से बँधी चारे के लिए रँभाती गाय और नहर के उस पार से गुलाबी साफ़ा पहने अपने कार्यालय ज़िला कोषालय से घर लौटते पिताजी। सब-कुछ एक-एककर याद आने लगा था। साइकिल के पीछे कैरियर पर चारे व सूखी लकड़ी की गठरी बाँधें खेत से घर की ओर जाता बड़ा भाई। बीच रास्ते में हिन्दू श्मशान घाट। इस उपन्यास की एक-एक पंक्ति मेरे अवचेतन मन के किसी सुषुप्त कोने को जगा रही थी। ऐसा लग रहा था, जैसे हो-न-हो, मैं भी इस उपन्यास के किसी पात्र की भूमिका अदा कर रहा हूँ और सशक्त भाषा-शैली इतना ज़्यादा प्रभावित कर रही थी कि मुझ जैसे एक अकर्मण्य पाठक के भीतर एक कर्मयोगी पात्र सजीव हो उठा हो। धन्य हो उस लेखनी को जो मुझे याद दिला रही थी, घर के अलंदू भरे गुवाल में आठ-दस गायों का झुंड तथा उनकी सेवा-सुश्रूषा करती, चारा डालती, पानी पिलाती, गोबर उठाती व छत पर कंडे बनाती माँ की स्मृतियाँ। गायों के बीमार होने की अवस्था में बाँस की वेजनुमा खोखल से दवाई पिलाना, प्रसूता गाय द्वारा बछड़ों को जन्म देने जैसे सजीव दृश्य क्या भूले जा सकते हैं! एक वृत्तचित्र की तरह मेरी आँखों के सामने उपन्यास पढ़ते समय सब-कुछ गुज़र रहा था मानो मैं सिनेमाघर में बैठकर कोई मर्मस्पर्शी फ़िल्म देख रहा हूँ। मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत कई भावुक दृश्यों की तरह शाम को घर आती गायों का अपने बछड़ों के लिए रँभाना, अपने निश्चित खूँटे पर जाकर चुपचाप खड़ी होकर अपने बाँधने का इंतज़ार करना तथा अपने चारा डालते मालिकों के प्रति गल-कंबल हिला कर आभार व्यक्त करना देख मैं अचंभित होता जा रहा है। क्या पाशविक संवेदनाओं में मानवीय संवेदनाएँ अध्यारोपित हो सकती है? पशु मनुष्य की संवेदनाओं को ग्रहण कर सकता है, मगर मनुष्य पशु के हृदय की बात को समझ सकता है? यह कैसा साहचर्य व कैसी जैव-मित्रता है? वह दृश्य आज भी मेरे लिए अविस्मरणीय है जब हमारी गाय का बछड़ा किसी साँप के काटने अथवा बीमारी की वजह से मर गया था और गाय की आँखों से उसका मृत-देह देखकर लगातार आँसू गिर रहे थे, फिर भी खेत में काम कर रहे उस ग्वाले की लालच के बारे में क्या टिप्पणी करूँगा जिसने उसकी पिछली दोनों टाँगों को रस्सी के टुकड़े से बाँधकर दूध दोहना शुरू किया। इस पर जब गाय ने सींग हिलाकर, पूँछ फेंककर तथा आगे के पाँव पटककर अपनी असहमति और आपत्ति का प्रदर्शन किया तो उस छद्मवेशी गोपाल ने मरे हुए बछड़े को किसी चमार को देकर उसका चमड़ा उधेड़ कर उसमें घास-फूस भरकर उसका पुतला बनाकर गाय के सामने लाकर रख दिया ताकि गाय उसे असली समझकर दूध देने के लिए तत्पर हो जाए। मगर यह किसी पशु के साथ ‘इमोशनल ब्लैकमेल’ नहीं तो और क्या है? क्या गाय संवेदनशील प्राणी नहीं है? क्या उसे ज़िन्दा या मुर्दा बछड़े के भीतर अंतर महसूस नहीं हो सकता है? क्या वह अपनी आँखों के सामने अपने मरे हुए बछड़े का पुतला देखकर असलियत नहीं समझ पाएगी? मगर लालची मनुष्य को गाय की संवेदना से क्या लेना-देना, उसे तो पैसे कमाने से मतलब होता है। क्या पाप क्या, पुण्य! सारा भारतीय दर्शन ‘जियो और जीने दो’, ‘जैव-मैत्री’ के सारे सिद्धान्त, सारी विचार-धारा पल भर के लिए उनकी लोलुपता के आगे समाप्त हो जाती है। अगर मनुष्य पुनर्जन्म में विश्वास करता है और चौरासी लाख योनियों के आवागमन के चक्कर में पड़ने से बचने के लिए सोचता तो इस तरह के घातक कार्य कभी नहीं करता। अगर आत्मा का पुनर्जन्म होता है तो आज जो मनुष्य गाय को खा रहा है तो कल उसी गाय की आत्मा एक कसाई का रूप धारण कर अगले जन्म में गाय का शरीर धारण किए हुए उसी मनुष्य का भक्षण कर सकती है। अगर यह सृष्टि का नियम है तब तो मनुष्य को किसी भी मूक प्राणी का वध करना नहीं चाहिए। एक दृश्य मुझे आज भी विचलित करता है कि जब हमारी गाय, जिसे माँ गोमती कहकर पुकारती थी, अचानक एक ऐसी बीमारी की चपेट में आई कि वह अपने खूँटे से उठ नहीं पा रही थी और बैठी-बैठी वह अपनी मृत्यु का इंतज़ार कर रही थी। माँ उस गाय को नहलाती, धुलाती गरम पानी में कपड़ा भिगो कर उसके गल-कंबल का सेंक करती, मगर गोमती की आँखों से झर-झर टपकते आँसू माँ के हृदय को विचलित कर देते थे। वह अन्यमनस्क हो जाती थी और एक विचित्र-सी परेशानी दुख या यंत्रणा के भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देने लगते थे। मेरे लिए वह घटना कितनी हृदय-विदारक थी, जब गाय ने अपना शरीर त्याग दिया तो माँ फूट-फूटकर रोई थी और तीन-चार दिन तक उसने खाना भी नहीं खाया था। वह तो इतनी शोक-विह्वल हो चुकी थी मानो घर के किसी आत्मीय सदस्य की मृत्यु हो गई हो। माँ, भले ही, अनपढ़ थी, मगर उसकी संवेदनाएँ, भावनाएँ और जानवरों के प्रति भी प्रेम हमारे लिए अनुकरणीय था। 

बचपन की मधुर स्मृतियों में एक और दृश्य साकार होने लगता है, जब मैं भूरे-सफ़ेद रंगों से चित्रित ललाट वाले नवजात बछड़े को दोनों हाथों से आलिंगन करते हुए सीढ़ियों से चलकर छत पर ले जाकर सर्दी की गुलाबी धूप में उसके साथ खेलता था। माँ चिल्लाती रहती थी, उसे डर लगा रहता था कि कहीं वह बछड़ा गिर न जाएँ, मगर हम सभी बच्चे उस बछड़े के ललाट पर हाथ फेर कर अपने प्यार का इज़हार करते हुए पुचकारते थे। सही अर्थों में, गिरीश पंकज जी के इस उपन्यास में मैं अपनी आत्म-कथा खोजने लगा था। सिरोही के राम झरोखा मंदिर में सायंकालीन की जाने वाली ईश्वर-स्तुति में तुलसीदास जी का दोहा “गो धन, गजधन, बाज़ी धन, और रत्न धन खान/जब आवे संतोष धन, सब धन धूल समान” आज भी स्तुत्य है, जिसमें उन्होंने तत्कालीन समाज के आभिजात्य वर्ग की संपन्नता को दर्शाने में ‘गो-धन’ की मुख्य भूमिका बताई है। मगर समय के परिवर्तन के कारण आजकल गायों को धन की श्रेणी में न गिनकर केवल इसे मांसाहार की एक सामग्री के रूप में विकसित समाज देखने लगा है। भारतीय, सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं में गाय की जितना महत्त्व दर्शाया गया है, आधुनिक मनुष्य उन सारी बातों को भूलकर धन लोलुपता का शिकार होता जा रहा है। परकाया प्रवेश करने वाले वैदेही आदिगुरु शंकराचार्य की तरह गिरीश पंकज जी ने गाय के शरीर में अपनी आत्मा को प्रवेश कराकर उसके सुख-दुख, वेदना, व्यथा सभी का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उसकी आत्मकथा को इस उपन्यास के स्वरूप में लिखने के लिए कितनी मेहनत की होगी, इसका अनुमान लगाना भी मेरे लिए नामुमकिन है। 

कसाईखानों में सर्वदेवमयी गाय की आर्त्तनाद देवतागण क्यों नहीं सुनते? 

गिरीश पंकज जी के इस उपन्यास का कलेवर बहुत ही ज़्यादा विस्तृत है। अगर इसके सत्रह अध्यायों के साथ इसमें पुरोवाक्‌ भी जोड़ा जाए तो इस उपन्यास में श्रीमद्‌ भागवत गीता की तरह अठारह अध्याय हो जाते हैं। यह ग्रंथ केवल गाय तक ही सीमित नहीं है, वरन्‌ सृष्टि के समस्त जन्तु-जगत् के हितार्थ जैव-मैत्री का संदेश देता है। इस उपन्यास के प्रथम अध्याय की शुरूआत अथर्ववेद के निम्न श्लोक से होती है: 

“माता रुद्राणाम दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि:। 
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिम वघिष्ट॥” 

इस श्लोक में गाय को रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, अदिति पुत्रों की बहन और घृतरूप अमृत के ख़जाने की उपमा से सुशोभित करते हुए स्तुति की गई है। यहीं नहीं, समुद्र मंथन से उत्पन्न कामधेनु गाय में सभी देवताओं के प्रवेश कर जाने वाले मिथक द्वारा गाय को सर्वदेवमयी होने का घटना का जहाँ उल्लेख किया है, वहीं वर्तमान समय में गाय की काया में समस्त देवताओं का निवास होने के बावजूद प्रतिदिन लाखों गायों के कसाईखानों में कटते समय उनकी आर्त्तनाद को किसी भी देवता द्वारा न सुने जाने के कारण लेखक ने उनकी उपस्थिति पर प्रश्नवाचक खड़ा किया है। कहने का अर्थ यह है कि वेदों, पुरानों तथा अन्य ग्रन्थों में गाय की महत्ता को लेकर जितने मिथक गढ़े गए हैं, क्या प्रकृत में वे सब क्या मिथ्या है? उपन्यासकार ने यहाँ अपनी सुपरिचित व्यंग्य शैली में आधुनिक समाज अपने वृद्ध माँ-बाप को वृद्धाश्रम में भेजकर जिस तरह अपनी कुटिल मानसिकता का परिचय देता है तो उन्हें गायों को निर्ममतापूर्वक काटे जाने के लिए कसाईबाड़ा, कसाईखाना, कसाईघर, वधशाला या स्लोटर हाउस में भेजे जाने पर तो क्यों दुख होगा? जब मैंने गूगल पर किसी विदेशी स्लोटर हाउस अल-कबीर का वीडियो पहली बार देखा तो देखकर रोंगटे खड़े हो गए। किस तरह तीन-चार दिन से भूखी प्यासी गायों को रेलिंग से बँधे हुए खाँचे में भेजी जाता है, जिसमें उसकी गर्दन फँस जाती है और तुरंत ऊपर आरा मशीन का तेज़ धार वाला ब्लेड एक ही क्षण में सिर धड़ से अलग कर देता है। एक तरफ़ कटा हुआ गाय का मुंड, दूसरी तरफ़ ख़ून से लथपथ धड़, जिसे क्रेन की तरह एक मशीन अपने शिकंजे में पकड़ लेती है और दूसरे कटर मशीन द्वारा उसकी चमड़ी उधेड़ ली जाती है। शेष में बचा रह जाता है लटकता हुआ मांस का लोथड़ा, जिसे तीव्र गति से चलने वाली आरा मशीन उस लोथड़े का दो-भागों में विभक्त कर देती है। इन लोथड़ों को पानी के तेज़ फव्वारों से धोया जाता है और फिर उनका रसायनिक परीक्षण किया जाता है। इतना करने के बाद अलग-अलग माप के टुकड़ों में काटकर पॉलीथीन में भरा जाता है और वज़न करने के बाद ‘ओके’ का पोस्टर छिपकाया जाता है। बस, पोलिथीन में पैक गाय के मांस का उत्पाद विश्व-बाजार की निर्यात वस्तु का रूप ले लेती है। जिसे आत्मकेंद्रित, स्वादकेन्द्रित, अर्थकेंद्रित और पाखंडजीवी समाज चटकारे ले लेकर खाता है। उपन्यासकार गिरीश पंकज ने स्पष्ट किया है कि भूमाफ़िया, कोलमाफ़िया की तरह हमारे देश में बड़ी तेज़ी से गोमाफ़िया भी पनपने लगा है। गिरीश पंकज जी ने अत्यंत ही प्रभावशाली भाषा शैली में लोकधेनु अर्थात्‌ सामान्य गायों पर किए जाने वाले अत्याचारों का ख़ुलासा किया है कि ब्रह्माजी द्वारा देवताओं की विशाल सेना भेजकर ‘देवासुर संग्राम’ की कहानी वाले दृष्टांत के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि वशिष्ठ मुनि की कामधेनु को देवनार जंगल से चुराने के प्रयासों में असुरों के विफल हो जाने के कारण वे सामान्य गायों पर अपना बदला निकाल रहे हैं, तभी तो उस संग्राम में मरे हुए असुरों के रक्तबीजों से उत्पन्न दानवी संस्कारों से युक्त मानव अभी भी पुरातन गो मांस के स्वाद को नहीं भूल पाया है और गायों को देखकर उनके दबे हुए संस्कार पुनः जागृत हो जाते हैं। यही देवपुर धीरे-धीरे औपनिवेशिक परिवर्तन का शिकार होने लगा। जंगल कटने लगे और उसकी जगह पर विशाल अट्टालिकाओं वाली गगनचुंबी इमारतें ‘देवनार विहार’, ‘टाइगर पार्क’, ‘डीयर इंकलेव’, ‘करुणा एवेन्यू’, ‘महावीर सिटी’ जैसी हाइटेक कॉलोनियाँ बनने लगी। उपन्यासकार ने यहाँ भी अपनी प्रखर व्यंग्य-बाण में गायों के इस संहार के कारण उन्हें विलुप्त होने वाली प्रजाति के साथ जोड़कर देखा कि वह समय भी दूर नहीं है जब धरती पर जीवित गाय कभी देखने को मिलेगी। आने वाली पीढ़ी को गायों के चित्र, प्रतिमा अथवा इन्टरनेट में दिखाकर संतुष्ट होना पड़ेगा कि गाय इस तरह का एक घरेलू चौपाया पशु हुआ करता था, जिसके दुग्ध से सारी सृष्टि का पालन होता था, मगर मांसाहारी लोगों की लपलपाती जीभ ने उन सारे जंतुओं को हमेशा-हमेशा के लिए ग्रास कर लिया। कितना पैथेटिक समय होगा वह हमारी पीढ़ी के लिए! 

गिरीश पंकज जी ने उपन्यास को सजीव भाषा शैली प्रदान करने के साथ-साथ उसमें मर्मांतक आरोपण करने के लिए सरायपुर के कसाइयों के चंगुल से छूटी दो गायों श्वेता और श्यामा के आपसी आलाप-प्रलाप के माध्यम से बदलते सामाजिक परिवेश में गायों की स्थिति के यथार्थ तत्त्वों को बख़ूबी उजागर किया है। सारा उपन्यास पाठकों के समस्त इस तरह दृश्य प्रस्तुत करता है मानो कोई चित्रपट पर अलग-अलग मनोभावों का प्रकट करती हुई कोई मार्मिक फ़िल्म देखी जा रही हो, जिसमें कहीं वैदिक जमाने की नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य के दृश्य तो कहीं त्रेता युगीन गायों की स्तुति-आराधना तो कहीं द्वापर में गाय चराते श्री कृष्ण और तो कलियुग में कल-कारखानों में कटती गायों के दृश्य एक-एक कर गुज़र रहे हो। 

एक सवाल यहाँ अवश्य उठता है कि आधुनिक युग की संस्कृति है या विकृति? लोग मॉडर्न कहलाना पसंद करता है। अपने आपको सभ्य घोषित करता है, मगर गाय तो क्या जो भी जानवर सामने दिखाई दे, चाहे वह हिरण, बकरी, सूअर, कुत्ता, तितर, बटेर, तोता, मैना, कबूतर, मुर्गा-मुर्गी, मछली से लेकर चूहा, छछूंदर, छिपकली और चींटी तक क्यों न हो, वह उसे चटकर जाता है मानो सूट-बूट, टाई पहने आधुनिक मानव पाषाणयुग की कन्दराओं में रहने वाला प्रागैतिहासिक इंसान की तरह जंगली जीवन जी रहा हो। क्या उसे खाने को और कुछ नहीं मिल रहा है? क्या खेती, बाग़-बग़ीचों के फल और अन्य वानस्पतिक सामग्री उसकी आवश्यकता पूरी नहीं कर पा रही है आहार के रूप में? तो फिर क्यों वह अपने हाथ में पत्थर के हथियार लिए घूमता है? मानव विकास की चरमोत्कर्ष की गाथा गाने वाले ग्रंथ वृहत्पाराशर स्मृति और अथर्ववेद धरे के धरे रहे जाते है। राम और कृष्ण-कन्हैया की धरती पर आज तीस हज़ार कसाईखाने हैं। कभी देश की आज़ादी के समय सौ करोड़ गौ वंश था और आज आज़ादी के साथ अड़सठ साल बाद घटकर मात्र आठ करोड़ है। मनुष्य को केवल पैसा चाहिए, उसके कानों में गायों की चीखें जूँ तक बनकर नहीं रेंगती है। कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता उनकी अंतरात्मा पर। यही ही नहीं गौशालाओं के घटने तथा मधुशालाओं के बढ़ने के चिंता व्यक्त करते हुए पुरानी कहावत ‘गली-गली गो रस बिके मदिरा बैठ बिकाय’ की तर्ज़ पर अपनी स्वरचित कहावत ‘जगह-जगह मदिरा बिके, दूध नज़र न आए’ द्वारा उपन्यासकार ने वर्तमान स्थिति पर परिहास करने के साथ-साथ ‘जिसे चाहिए दूध, वह सिंथेटिक ही पाए’ द्वारा आधुनिक समाज की यथार्थता पर करारा व्यंग्य किया है। क्या यही सोच आधुनिक सभ्यता की पराकाष्ठा है? क्या समाज वह बात भूल गया जब मंगल पांडे ने बारूद में गोमांस की भनक मिलने पर 1857 में अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत की थी और ‘गदर’ की पहली पृष्ठभूमि का निर्माण हुआ था? क्या हम भूल गए, महान स्वतन्त्रता नेताजी लोकमान्य तिलक का वह आवाहन “जब भी देश आज़ाद होगा, गोवध पर सर्वप्रथम रोक लगेगी”। क्या याद नहीं गाँधीजी का वह दो टूक वक्तव्य, “ऐसे स्वराज से मेरा क्या लेना-देना, जहाँ गो वध किया जाता हो, गाय का सवाल मेरे लिए स्वराज से बढ़कर है।” क्या हमने संत विनोबा भावे की उस बात को भी नहीं भुला दिया, जिसमें उन्होंने कहा था “पवित्र क़ुरान और बाइबिल के अनुसार भी अप्रत्यक्ष रूप से गो हत्या करना जघन्य पाप है”। ये ज्वलंत सवाल ही नहीं, वरन्‌ उपन्यासकार ने लाल बहादुर शास्त्री, लोक नायक जय प्रकाश नारायण, देवराहा बाबा, जवाहर लाल नेहरु आदि के गोवध निषेध के बारे में विचारों का उल्लेख करते हुए उपन्यास को अत्यंत ही प्रेरणादायी व शिक्षाप्रद बनाया है। रही गो-वध पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने वाले क़ानून की बात, जिसमें 19 नवंबर 1947 को दातार सिंह की अध्यक्षता वाली सरकारी समिति की अनुशंसाओं को एक तरफ़ रखकर 23 अप्रेल 1958 को पशुवध को व्यक्ति का मौलिक अधिकार घोषित किया है और भगवान महावीर, बुद्ध, ईसा मसीह, पैगंबर मोहम्मद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती गाँधी और विनोबा भावे जैसे महापुरुषों की सोच पर तुषारापात कर दिया। 
कहाँ चला गया वह उन लोगों का महान कथन “यतो गावस्ततो वयं” अर्थात्‌ जहाँ गाय हैं, वहाँ हम हैं। काश! गाएँ बोल पाती। काश! वे वोट दे पाती। चार्ल्स डिकन्स के ‘एनिमल फ़ार्म’ की तरह गायें भी अपने संगठन का प्रतिनिधित्व करती हुई लोकतन्त्र के ढाँचे में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती। पूजा-पाठ के पाखंडी लोगों पर गिरीश जी की कविता ‘चाहे लाख करो तुम पूजा/ तीरथ करो हज़ार/ अगर किया पशुओं का वध तो/ सबकुछ है बेकार’ ने लालच में फँसे गुमराह समाज को सचेत किया है। यही ही नहीं, श्वेता और श्यामा के बीच चल वही प्रासंगिक बातों के मध्य ‘संडे हो या मंडे रोज़ खाओ अंडे’ जैसे सरकारी विज्ञापनों को भी उपन्यासकार आड़े हाथों लेने से नहीं चुके हैं कि किस अंडे से चूजा निकलेगा या नहीं, इसका निर्णय सरकार लेगी? 

‘मॉडर्न इंडिया’ में ‘बीफ़’ का बढ़ता प्रचलन 

द्वितीय अध्याय में उपन्यासकार श्यामा गाय के मुख से गोवर्धन पूजा के दिन यादव समाज द्वारा कृष्ण भगवान का यशगान तथा राऊत समाज द्वारा नाचते दोहों को पढ़ते हुए गायों की पूजा का परंपरा को आधुनिक शहरी संस्कृति में इसे पिछड़े वर्ग की दक़ियानूसी सोच का परिणाम बताया है! आधुनिक युग में जहाँ बच्चों को पिज़्ज़ा, बर्गर, हॉट-डॉग या बीफ़ के प्रति ज़्यादा अभिरुचि है वहाँ उन्हें दूध, घी और मक्खन से क्या लेना-देना! आज के लोगों में जहाँ कुत्तों के प्रति ज़्यादा रुझान है, वहाँ उन्हें गो-शावकों से क्या मतलब? वरन्‌ उन्हें गाँव के कसाईखाने में भेजने में भी बिलकुल तकलीफ़ नहीं होती है। मुझे फ़ेसबुक पर भारत के कसाईखानों के कुछ दृश्य देखने को मिले थे, जिन्हें देखते ही दिल दहल जाता है। कसाई लोग किस तरह सींगों से पकड़ कर भूख-प्यास से बिलखती गाय को नीचे ज़मीन पर गिरा देते हैं, और फिर तेज़ धार वाली कटार से मरोड़ी हुई गर्दन से झूल रहे गल-कंबल को काटने लगते हैं। किसी तरह निरीह आँखों से वह गाय इन जल्लाद यमदूतों की आँखों में अपनी मृत्यु देखने लगती है। देखते-देखते चारों तरफ़ ख़ून ही ख़ून बहने लगता है। फिर कटे सिर को दूर फेंककर उसके धड़ की चमड़ी उधेड़ने लगते हैं और कितनी बेदर्दी से उसकी मांस के लोथड़ों को निर्दयतापूर्वक काटा जाता है। इस दृश्य को लिखने में जब मेरी क़लम रुक-रुककर रोने लगती हैं तो पता नहीं, किस तरह अपने सीने पर एक विशाल पत्थर रख कर गिरीश पंकज जी ने उन दृश्यों को सजीवता पूर्वक लिखने का साहस किया होगा, वह भी एक बड़े उपन्यास के रूप में। शायद जो वेदना कभी पन्ना धाय ने अपनी आँखों के सामने अपने बेटे की गर्दन कटते देख सही होगी, वैसे ही गाय के गर्दन कटने की सोचकर उनकी आत्मा लिखते-लिखते कितनी बार रोई होगी! क्योंकि ये दृश्य तभी लिखे जा सकते हैं, जब गायों की हत्या के दर्द को उपन्यासकार ने बुरी तरह से अपने भीतर समेटा होगा। ‘आर्यावर्त’ कहलाने वाला विश्व-गुरु भारत का यह भी एक भयावह चेहरा है ‘मार्डन इंडिया’ का, जहाँ संवेदना, नैतिकता, उपदेश सब कुछ बेमानी हो चुके हैं और बचा रह गया है केवल भ्रष्टाचार, पाखंड, धन-लोलुपता का भोथरापन। उपन्यासकार ने श्वेता और श्यामा के संवादों के मध्य प. बिहारीलाल जी के परिवार का भी क़िस्सा दिया है जिसने आज़ादी के दौरान हो रहे धार्मिक उन्मादों के मध्य आततायी मुसलमानों के भय से गोमांस न खाकर अपने परिवार को धर्म-भ्रष्ट होने से बचाने के लिए सपरिवार आत्महत्या करना मंज़ूर कर लिया था। ऐसे ही आज भी कुछ संवेदनशील हिन्दू परिवार विद्यमान हैं। ज़्यादा पुरानी बात नहीं होगी, ओड़िशा के कटक शहर में एक बस ड्राइवर बारात लेकर महानदी का पुल पार कर रहा था कि कुछ बारातियों ने जबर्दस्ती उसके मुँह में गोमांस डाल दिया। विक्षुब्ध मन से उसने अपना जीवन निरर्थक समझा और कंडक्टर को बस से नीचे उतारकर कहा कि वह उसकी माँ को जाकर कह दे कि उसने उसका धर्म भ्रष्ट करने वालों से प्रतिशोध ले लिया है, यह कहकर उसने पुल के रेलिंग से इतनी ज़ोर से अपनी बस को टक्कर दी कि कुछ ही पल में वह बस महानदी में हमेशा-हमेशा के लिए जल समाधि में लीन हो गयी। कितनी घोर विरोधी आस्था है अभी भी कुछ लोगों में गोमांस भक्षण के ख़िलाफ़! और ऐसे कई क़िस्से सुनाई पड़ते हैं कि बेटा पढ़ने के लिए विदेश चला जाता है और वहाँ की विदेशी संस्कृति में। रच-बस जाता है, यहाँ तक कि गो-मांस का सेवन करना भी सीख जाता है और जब वह इंडिया अपने घर लौटता है तो अपने पिताजी को ‘बीफ़’ का डब्बा उपहार स्वरूप प्रदान करता है। डिब्बा में ‘बीफ़’ देखते ही पिताजी को गहरा सदमा लग जाता है और हृदयघात से तत्काल मृत्यु हो जाती है। हमारे देश में एक ऐसा वर्ग है, जो न केवल गोमांस वरन्‌ किसी भी प्रकार के मांस से परहेज़ करता है, जबकि दुनिया में एक दूसरा वर्ग ऐसा भी है जो शाकाहारी गायों को भी हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए मांस खिलाता है ताकि वे ज़्यादा से ज़्यादा दूध दे सके। नतीजा क्या है? ‘मैडकाऊ’ जैसी ख़तरनाक बीमारियाँ पैदा होने लगती हैं। इस उपन्यास की सबसे बड़ी ख़ासियत है सभी धर्मों के पाखंडियों को इसमें लताड़ा गया है, जो गायों के नाम पर अर्थ-अर्जन करना चाहते हैं। क्या हिंदू, क्या मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन सभी धर्म। इन धर्मों के संस्थापकों तथा पवित्र ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए उपन्यासकार गोवध निषेध की महता को स्थापित करने को पूरी तरह सफल हुए हैं। बीच-बीच में, सरकार द्वारा कत्लखानों की स्थापना से अर्थ-व्यवस्था में सुधार जैसे विषय पर करारा व्यंग्य करते हुए गिरीश जी निठारी कांड जैसे अमानुषिक कुकर्मों को भी समाज के सामने प्रस्तुत करने से नहीं चुके हैं। कुछ लोग गायों की जगह बैलों की हत्या करते हैं, इस पर प्रहार करने से गिरीश जी पीछे नहीं रहे। जैन मुनि तरुण सागर जी महाराज का कथन कि कसाई खाने ले जाई जा रही एक गाय की जान बचाना एक मंदिर बनाने के बराबर पुण्य का कार्य है, इस पर मैं यह कहना चाहूँगा कि इस उपन्यास के रचनाकार गिरीश जी ने सहस्र मंदिरों को बनाने के बराबर पुण्यकार्य किया है, जिसे पढ़ कर सहस्र पाठकों के दिल में परिवर्तन आएगा और वे मांसाहार से उपराम लेकर शाकाहार की ओर प्रवृत्त हो जाएँगे, जिससे सैकड़ों जीव जंतुओं की प्राणों की रक्षा हो सके। 

गायों का देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव 

अध्याय तीन में सरायपुर की ‘कपिला गोशाला’ का वर्णन किया गया है। यही ही नहीं, गायों की रक्षा करने के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगाने वाले महंत रामपुरी, हेडगेवार, विनोबा-भावे, महावीर बुद्ध, गाँधी जैसे उदात्त चरित्रों का उल्लेख कर अत्यंत ही पुनीत कार्य किया है। जहाँ द्वापर युग में गायों की देख-भाल की जाती थी, वहीं आधुनिक युग में गायों के नाम पर ‘गौ सेवा आयोग’ तथा ‘गौशाला’ खोलकर लाखों रुपए हथियाए जाते हैं और जनता को इमोशनल ब्लैकमेल भी किया जाता है। गौ प्रेमी विद्वान सर विलियम बोर्न के अनुसार किसी गाय के बिना राष्ट्र की कल्पना करना असंभव है। दूसरे विद्वान के अनुसार, गाय राष्ट्र के दुग्ध भवन की देवी है, जो भूखों को खिलाती है, नंगों को पहनाती है और रोगी को निरोगी करती है। उपन्यासकार ने गायों से हमारी देश की अर्थ व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव को जिस तरह से दर्शाया है, वैसा कभी सन्‌ 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के दशमसमुल्लास: में दर्शाया था, पाठकों के लिए जिसका अधोलिखित उद्धरण करना उचित रहेगा। 

“जिसमें उपकारक प्राणियों की हिंसा अर्थात्‌ जैसे एक गाय के शरीर से दूध, घी, बैल, गाय उत्पन्न होने से एक पीढ़ी में चार लाख पचहत्तर सहस्र छह सौ मनुष्य को सुख पहुँचता है वैसे पशुओं को न मारें, न मारने दें। जैसे किसी गाय से बीस सेर और किसी से दो सेर दूध प्रति दिन होवे उसका मध्य भाग। ग्यारह सेर प्रत्येक गाय से दूध होता है, कोई गाय अठरह और कोई छह महीने तक दूध देती है। उसका मध्य भाग बारह महीने हुए, अब प्रत्येक गाय की जन्म भर के दूध से 24960 मनुष्य एक बार में तृप्त हो सकते हैं, उसके छह बाछियाँ छह बछड़े होते हैं उनमें से दो मर जाएँ तो भी दस रहे, उनमें से पाँच बछड़ियों के जन्म भर के दूध को मिलाकर 124600 मनुष्य तृप्त हो सकते हैं अब रहे पाँच बैल वे जन्म भर में 5000 मन अन्न न्यून से न्यून उत्पन्न कर सकते हैं, उस अन्न में से प्रत्येक मनुष्य तीन पाव खावे तो अढ़ाई लाख मनुष्यों की तृप्ति होती है, दूध और अन्न मिला 374600 मनुष्य तृप्त होते हैं, दोनों संख्या मिला के एक गाय की एक पीढ़ी में 475600 मनुष्य एक बार पालित होते हैं और पीढ़ी पर पीढ़ी बढ़ाकर लेखा करें तो असंख्य मनुष्यों का पालन होता है। इससे भिन्न बैलगाड़ी सवारी, भार उठाने आदि कामों से मनुष्यों के बड़े उपकार होते है तथा गाय दूध में अधिक उपकारक होती है और जैसे बैल उपकारक होते हैं भैंसें भी हैं परन्तु गाय के दूध घी से जितने बुद्धिवृद्धि से लाभ होते हैं उतने भैंस के दूध से नहीं, इससे मुख्योपकारक आर्यों ने गाय को गिना है और जो कोई अन्य विद्वान होगा वह भी इसी प्रकार समझेगा। बकरी के दूध से 24920 आदमियों का पालन होता है, भैंस, हाथी, घोड़े, ऊँट, भेड़, गधे आदि से बड़े उपकार होते हैं। इन पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानिएगा। 

देखो! जब आर्यों का राज्य था तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे तभी आर्यवर्त्त वा अन्य भूगोल के देशों में बड़े आनंद में मनुष्य प्राणी वर्त्तते थे, क्योंकि दूध, घी, बैल आदि पशुओं की बहुतायत होने से अन्न रस पुष्कल प्राप्त होते थे, जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आकर गौ आदि पशुओं के मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुए हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुख की बढ़ती होती जाती है, क्योंकि–“नष्टे मूले नैवे फ़लाँ न पुष्पम” (जब वृक्ष का मूल काट दिया जाय तो फल फूल कहाँ से हों?)

गो-शालाओं में ‘मिठलबरें’: 

अध्याय 4 में उपन्यासकार गिरीश पंकज जी ने कपिला गोशाला में गायों की देख भाल कर रहे सेठों की वास्तविकता को उजागर करते हुए गो मित्रों और गो सेवक बन रहे इन चेहरों के पीछे छुपी हुई असली सूरत को सामने लाया है। आडंबर की आड़ में गाय केवल पैसा कमाने की मशीन बन जाती है और गौ-सेवा या समाज-सेवा महज़ एक दिखावा। ऐसे लोगों के लिए उपन्यासकार ने छत्तीसगढ़ की भाषा का शब्द ‘मिठलबरा’ प्रयुक्त किया है। उसका अर्थ होता है एक ऐसा आदमी जो झूठा व्यवहार करे मगर बातचीत में बड़ा मीठा हो। ऐसे दमड़ीमल सेठों का गायों के दुख दर्द और संवेदनाओं से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है। यहाँ तक कि मरे हुए बछड़े को गाय के सामने रखकर उनका दूध निकालना अपना असली धर्म समझते हैं, जैसा कि प्रारम्भ में मैंने अपने संस्मरण में लिखा है। उनके लिए न तो करुणा, न दया जैसे शब्द लागू होते हैं। इस अध्याय की एक ख़ास और विशेषता है जिसमें गायों के अत्यंत ही सुंदर-सुंदर नामों का उल्लेख है जैसे शुभ्रा, सुवर्ण कपिला, गोल पिंगला, रक्त पिंगाक्षी, खुर पिंगला, पूछ पिंगला, श्वेत पिंगला, स्वर्णआभा, गल पिंगला, पाटला आदि। अथर्ववेद में गायों की महिमा का बखान करने वाले अनेक श्लोक दिए है उसमें से एक श्लोक यह है:

“प्रजावती: सूयवसे रुशंती: शुदधा अप: सुप्रषाणे पिवन्ती: 
मा व स्तेन ईशत माघशंस: परि वो रुद्रस्य हेतिर्वूनक्तु” 

अर्थात्‌ “हे गायो तुम अधिक से अधिक बच्चों को जन्म दो, चरने के लिए तुम्हें हरा-भरा चारा मिले, तुम सुंदर तालाब में शुद्ध पानी पियो। तुम चोरों से बचो। हिंसक जानवरों से भी बचो। रुद्र का शस्त्र तुम्हारी रक्षा करे।” मगर आज के ज़माने में इन श्लोकों का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। उपन्यासकार ने गौतम ऋषि और सत्यकाम का संदर्भ देते हुए ब्रह्मज्ञान के समस्त सूत्रों में गो सेवा को प्रमुख बताया है। मगर धूर्त सेठ लोग ‘गो अनंत गो कथा अनंत’ कहकर इसका अनुकरण नहीं करते। इस अध्याय में गो चारण बंधुओं के कुछ गानों का भी समावेश किया गया है। गो सेवा आयोग से गायों की देखभाल के लिए अनुदान झटकने वाली गौ शाला द्वारा कमज़ोर और बाँझ गायों को कसाईखाने भेजने की साज़िश का पर्दाफ़ाश उपन्यासकार द्वारा करने पर मंत्रालय द्वारा की गई सिफ़ारिशों का ज़िक्र कर गिरीश पंकज जी ‘चारा घोटाला’ की तरह ‘गौशाला घोटाला’ को सामने लाए। श्वेता और श्यामा गायों की वार्तालाप के मध्य उपन्यास के इस अध्याय के अंत में राजस्थान के पथमेड़ा नामक जगह पर बनी गोशाला आनंदवन राजस्थान की ओर ले जाते हैं। जहाँ भगवान कृष्ण अपने गायों को चराने के लिए रुक गए थे और पथमेड़ा में पर्याप्त चारागह देखकर कृष्ण भगवान ने यहीं विश्राम करने का मन बनाया था। आज यह दुनिया की सबसे बड़ी गोशाला है, जहाँ 2 लाख गाय रहती हैं। इस गोशाला का निर्माण दत्तशरणनन्द महाराज ने सन्‌1993 में कुछ गो भक्तों द्वारा पाकिस्तान ले जाए जा रही आठ गायों को कसाइयों के ख़ूनी पंजों से मुक्त करवाकर शुरू किया था और आज इस कलयुग में आनंदवन मानो द्वापर की याद दिला रहा हो। यहाँ सारी गाय मुक्त हो कर विहार करती हैं। खाने-पीने की कोई कमी नहीं। नियमित रूप से बीमार गायों की देखभाल होती है। पंचगण्य (गोबर, गो मूत्र, दूध, दही और घी) से तरह-तरह की दवाइयाँ बन रही है। सत-साहित्य का प्रकाशन हो रहा है। बच्चों को भारतीय संस्कारों की शिक्षा-दीक्षा मिल रही है। 

मनुष्यों में बढ़ती मांसाहार प्रवृति 

अध्याय पाँच में उपन्यासकार ने बकरा, कुत्ता, तीतर, बटेर, गौरैया, तोता, बिल्ली नए-नए पात्रों को जोड़ कर उनकी समस्याओं के बारे में ध्यान आकृष्ट करते हुए समस्त मानव समाज के समग्र जीव-दया की अपील की है, क्योंकि मनुष्य इन सभी जानवरों को भी खाने से नहीं छोड़ा है। किसी शायर ने कहा है:

“हम निर्बल हैं मूक जीव बस ऐसे ही रह जाते हैं 
सुबह सलामत देखते हैं पर शाम हुई कट जाते हैं 
कितने हैं इंसान लालची, गिरे हुए यह मत पूछो 
मांस मिले गर खाने को तो मज़हब से हट जाते हैं।”

सभी जीव-जंतुओं ने मनुष्यों के मन में विलुप्त हो रही करुणा और पत्थर दिल इन्सानों के भीतर इस भागमभाग और निपट बाज़ारू युग में सबकी विवेकहीनता को परिभाषित करते हुए मनुष्यों के भीतर जीव-दया, करुणा का उपहास उड़ाने वाली मांसाहारी आदमियों की अपराधबोध हीनता पर दुख प्रकट किया है। 

शास्त्रों में गो-रक्षा और गो-दान:

छठे अध्याय में महर्षि वशिष्ठ के इक्ष्वाकु वंश के सौदास राजा से गायों का दान माँगना ‘यतो गावस्ततो वयम’, भगवान राम द्वारा त्रिजट ब्राह्मण सहस्र करोड़ गायों का दान करना, बाल्मीकि रामायण में महाराज दशरथ द्वारा यज्ञ के अवसर पर दस लाख गायों का दान देने (गवां शतसहस्रानि दश तथ्यों ददौ नृप:), तुलसीदासकृत रामचरित मानस में ‘विप्र धेनु, सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार’ या ‘सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई, जौ हरिकृपा हृदय बस आई’ जैसी उक्तियों द्वारा गोभक्ति कि अवधारणा तथा सोने के सींग मढ़ी एक हज़ार गायों को राजा जनक द्वारा याज्ञवल्क्य ऋषि को दान दिए जाने वाले दृष्टांतों का उल्लेख करते हुए गायों की महिमा पर विशेष प्रकाश डाला है। रघुवंश के महाराज दिलीप की गोसेवा का महाकवि कालीदास के महाकाव्य ‘रघुवंश’ में सुंदर वर्णन है। विनोबा भावे द्वारा गोवध को रोकने के आमरण अनशन पर बैठने, गो प्रेमी कृष्ण भगवान की दिनचर्या गाय, गोपियाँ और ग्वाल बालों के साथ, यहाँ तक गाय चराने जाते समय भी यशोदा माया द्वारा गायों को पशु कहने पर रूठ जाना, सूरदास द्वारा पदों की रचना, गायों के झुंड में ‘वत्सासुर’ बनकर कृष्ण को मारने का षड्यंत्र, कृष्ण द्वारा धारोष्ण दुग्धपान करना आदि यथार्थ व मिथकीय ज्ञान से भरा हुआ यह उपन्यास पाठक को त्रेता व द्वापर युग की याद दिलाता है। भगवान शंकर, अश्विनी कुमार, माँ पार्वती आदि के गो रक्षा से संबंधित दृष्टांत दिए गए हैं, जिसमें अत्यंत ही सुंदर नामों वाली उन्नत गायों जैसे मनोरमा, गौरा, नंदा, गोपिका, कृष्णा, नंदिनी, गौरमुखी, नीला-वनिता, सुपुत्रिका, स्वरूपा, शंखिनी, सुदती, सुशालिका, अमिनता, मित्रवर्णा के नामों का उल्लेख है। ये सब दृष्टांत उपन्यासकार की न केवल गायों के प्रति अगाध-आस्था, प्रेम व भक्ति के प्रतीक है, वरन्‌ आधुनिक समाज में गो-वध को लेकर बढ़ती दुष्प्रवृत्तियों से नजात पाने के लिए एक अनुकरणीय ग्रंथ की रचना करना ही उनका विशेष उद्देश्य है। 

इस्लाम धर्म में गो-वध निषेध: 

सातवें अध्याय में ‘इस्लाम’ धर्म में गो-वध निषेध के प्रति क्रांतिकारी विचारों से लेखक ने अवगत कराया है, अगर सही कहूँ तो ऐसे विचार मैंने अपने जीवन में पहली बार पढ़े, कि इस्लाम धर्म भी गायों को सम्मान की दृष्टि से देखता है। ‘इस्लाम’ अरबी के सलाम धातु से निकला है, जिसका अर्थ होता है किसी को भी दुख नहीं देना। मोहम्मद साहब ने जीवन भर दुख देखा, मगर दया का काम करते रहे। क़ुरान-पाक में लिखा है, “दया धर्म का मूल है”। क़ुर्बानी के बारे में उपन्यासकार का कहना है कि क़ुर्बानी ‘सिंबालिक’ दी जा सकती है। अल्लाह के हुक्म के अनुसार, जिस जानवर के पेट में दूध हो, उसकी क़ुर्बानी तो कभी भी नहीं दी जा सकती। ख़ुदा ज़िबह किए जानवरों का मांस नहीं चाहता, वह केवल तुम्हारी श्रद्धा चाहता है। चींटी को भी नहीं सताना चाहिए, उसमें भी जान है। ‘इजहारेहम’ में इन सारी चीज़ों का उल्लेख मिलता है। तभी तो मुगलकाल के अधिकतर बादशाह अद्भुत गो प्रेमी थे। सब के सब गो-मांस के विरोधी थे। उन्होंने गो हत्या पर रोक लगा दी थी। अबुल फजल द्वारा रचित आईने अकबरी में एक जगह लिखा है कि सुंदर धरती भारत में गाय मांगलिक समझी जाती है। उसकी भक्ति-भाव से पूजा होती है। इस जीव से राज्य का बड़ा काम चलता है, इसलिए गो मांस निषिद्ध है और इसे छूना भी पाप है। अकबर के ज़माने में गौ शालाओं के संचालन का क़ानून बना था। अकबर ने गो स्वामी विट्ठलनाथ को कुछ गायें और ज़मीनें दान दी थीं, ताकि गोस्वामी गोपालन कर सकें। 5 जून सान 1593 इस्वी में अकबर ने फ़रमान जारी किया था, जानें कि जहाँ की तामिल करने क़ाबिल हुक्म जारी किया गया कि इसके बाद करोड़ी व जागीरदारान परगने मथुरा, सहरा संगोध व ओढ़े के इर्द-गिर्द मोर ज़िबह न करें और शिकार न करें और आदमियों कि गायों को चरने से न रोकें। फिर भी अकबर के ज़माने में चोरी-छिपे हो रही गोहत्याओं पर दृष्टिपात करने के लिए अकबर के नौ रत्नों के प्रकांड विद्वान कवि नरहरी ने दरबार में अपने साथ एक गाय ले जाते हुए उसके गले में छप्पय बाँधा था। जिसे पढ़कर सुनाने पर अकबर की आँखें खुल गई। यह छप्पय इस प्रकार था:

“अरिहु दंत तृन धरई ताहि भारत न सबल कोई। 
हम संतत तृन चरहि वचन उच्चरही दीन होई। 
हिंदुहि मधुर न देहि कटुक तुरकहीं न पियावहीन। 
पाय विशुद्ध अति श्रवहीन बच्च महि ठमन जवाहीन। 
सुन शाह अकबर! अर्ज़ यह करत गऊ जोरे करन। 
सौ कौन चुके मोहिं मारियतु मुहेयु चाम सेवत चरन॥”

जैसे ही अकबर ने यह छ्प्पय सुना, तो गायों कों अभयदान देने का फ़रमान जारी किया। 

क़ुरान पाक के दूसरे अध्याय का नाम ‘सुर-ए-बकर’ जिसका हिन्दी में अर्थ है गायों का अध्याय अर्थात्‌ क़ुरान में भी प्रकाश डाला गया है। मुक़द्दस क़ुरान में कहा गया है कि बैल कि सींग पर पृथ्वी विराजमान है। जब बैल पृथ्वी को एक सींग से दूसरे सींग पर लेता है तो पृथ्वी हिलती है और भूकंप आता है। गाय के पानी को भी पाक माना गया है, कितनी बड़ी बात है यह। ख़ुदाबन्द कहते है—जो बैल को मारता है वह उस आदमी कि मानिंद है जो मनुष्य को मारता है। मैं तो घर का बैल न लूँगा और न तेरे बाड़े का बकरा, क्योंकि जंगल के सारे जानवर मेरे हैं। क्या मैं बैल का गोश्त खाता हूँ या बकरी का लहू पिता हूँ? अल्लाह के पास गोश्त और ख़ून हरगिज़ नहीं पहुँचते। हाँ, तुम्हारी परहेज़गारी ज़रूर पहुँचती है। फिर भी बकरीद के दीन कलकत्ता और दूसरे शहरों में हज़ारों गायों काट दी जाती हैं। हदीसशरीफ़ में तीन चीज़ों पर सख़्त पाबंदी है। ‘काते-उल-शजर’ यानी हरे पेड़ को काटना, ‘बाय-उल-बशर’ मनुष्य को बेचना, ‘जाबह-उल-बकर’ का अर्थ है गाय की हत्या। इस प्रकार के अनेकानक उदाहरण देकर न केवल उपन्यासकार ने गो-वध के प्रति मन में नफ़रत पैदा करने तथा मुस्लिम धर्म के उन पहलूओं को उजागर करना जो गो-वध पर प्रतिबंध लगाते हैं। साथ ही साथ, हिन्दू और मुस्लिम लोगों के मध्य भाईचारा, प्रेम तथा सौहार्द पैदा करना है। 

मिथकों में गाय: 

आठवें अध्याय में फिर से उपन्यासकार द्वापर युग की तरफ़ ले जाते हैं और बीच में देशी गाय तथा जर्सी गायों के विभेद को दर्शाते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि जर्सी गायों की तुलना में देशी गाय ज़्यादा श्रेष्ठ हैं। यही नहीं पुराण, महाभारत का अश्वमेध प्रकरण, भविष्य पुराण, स्कन्द पुराण जैसे धार्मिक ग्रन्थों का संदर्भ लेते हुए अनेकानेक रोचक कहानियों के माध्यम से ‘कपिला तीर्थ’ आदि की उत्पत्ति का ज़िक्र किया है। इसी तरह राजा विश्वामित्र, मुनि वशिष्ठ के मध्य कामधेनु को लेकर हुए संघर्ष की कहानी भी अपने आप में गो भक्ति का विशेष संदेश देती है। इस तरह राजा कार्तवीयार्जुन द्वारा ‘सुरभि’ गाय को लेकर जमदग्नि ऋषि (परशुराम के पिता) से जबर्दस्त हुए बहस और अहंकारी राजा द्वारा ज़बरदस्ती गाय को ले जाने के कारण परशुराम द्वारा उस सहस्र बाहु वरदानी राजा के एक-एक हाथ को फरसा से काट काटकर गिराने वाले की कहानी अपने आप में उन जमाने के सामाजिक संस्कारों में गो भक्ति के लक्षण परिलक्षित करती है। इसी तरह च्यवन ऋषि तथा राजा नहुष के मध्य हुए संवादों में गाय का महत्त्व उभरकर सामने आया है। भले ही इन कहानियों में मिथक चरित्र रहे हो, मगर उनका एक मूल-संदेश गायों की सुरक्षा के उपाय तत्कालीन समाज की समृद्धि का परिचय देती हैं। 

गायों की नस्लें, पशु निर्दयता अधिनियम के प्रावधान एवं बीस थ्योरी: 

अध्याय नौ में गो-शाला में रहने वाली गायों की समस्याओं को उपन्यासकार सामने लाया है तथा जर्सी गायों के बारे में गो विशेषज्ञ घावरी के वक्तव्य कि जर्सी नामक द्वीप में सूअर के जींस से जर्सी गायों की नस्ल को विकसित करने का वैज्ञानिक तथ्य सामने आया है तथा जर्सी गायों के प्रति बढ़ते आकर्षण को ख़त्म करने के लिए भारत की उत्तम नस्लों के बारे में भी उल्लेख किया है। जिसमें हरियाणा नस्ल की गाय, काठियावाड़ी की गीर, मैसूर की अमरूमहाल, हल्लीकार, फंगायम, बरगुर, आलमदादी और गुजूरात की कोकरेज, मध्यभारत की ‘मालवी’, ‘निगाड़ी’, ‘नागौरी’, पंजाब की ‘साहिवाल’, ‘हांसी’, महाराष्ट्र की ‘कृष्णावेली’, राजस्थान की ‘राठ’, ‘खिलारी’, ‘देवनी’ ‘डांगी’, ‘मेवाती’ नागौरी आदि की भी व्याख्या की है। दूध दोहने के कई तरीक़ों तथा इंजेक्शन द्वारा ज़्यादा दूध निकालने के दुष्परिणाम के साथ-साथ पशु निर्दयता अधिनियम के प्रावधानों तथा पशुओं की क्रूर हत्याओं से भूकंपीय तरंगों के पैदा होने की ‘बीस थ्योरी’, कचड़ों के ढेरों पर भूखी गायों का लोहे की कीलें, हेयरपिन, तार की टुकड़े, बटन और पॉलीथीन की थैलियों आदि खाने जैसी समस्याओं को भी सामने लाने का उपन्यासकार ने प्रयास किया। 

राष्ट्रवादी गो-भक्त संघ, मुस्लिम गो-रक्षा संघ एवं सर्वधर्म गोरक्षा संघ:

अध्याय दस में राष्ट्रवादी गो-भक्त संघ की स्थापना, गो सेवा आयोग की प्लानिंग तथा उनके फ़र्ज़ी तौर तरीक़ों पर भी प्रकाश डाला गया। अध्याय ग्यारह में ‘सर्व धर्म गो रक्षा संघ’ द्वारा गो-वध को प्रतिबंधित करने के प्रयासों में राष्ट्रीयता व अस्मिता का सवाल बनाते हुए सभी धर्मों में इस पर किया गया समर्थन पर प्रकाश डाला गया है, इस संघ में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्म गाय की सुरक्षा के प्रश्न पर ‘करो या मरो’ अभियान पर सहमत होकर ‘राजधानी चलो’ मुहिम में शामिल होने के सूत्रपात को प्रकाशित किया है। सभी सदस्य गाय के चित्र बने हुए टी-शर्ट पहने हुए थे, जिन पर ‘काऊ इज़ द ग्लोबल मदर’, ‘सेव द काऊ’, ‘काऊ इज़ अवर नेशनल एनिमल’ और ‘आई लव काऊ’ जैसे तरह-तरह के नारे लिखे हुए थे। मीडिया के ओपिनियन मेकर ‘थिंक टैंक’ विज्ञापन बैंक आदि भी सोशल मुद्दों की माध्यम से कसाई खाने में देवनार और अल-कबीर जैसे कसाई खाने में हो रही निर्ममतापूर्वक गो हत्याओं की जानकारी देने के साथ-साथ सरकार पर गो वध क़ानून मीडिया की प्राथमिकता होनी चाहिए मगर वास्तव में ऐसा नहीं हैं। उपन्यासकार के आधुनिक मीडिया पर करारा कटाक्ष करते हुए लिखा है कि मीडिया टीआरपी (टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट) हीरो हीरोइनों के प्रेम-प्रसंग माफ़िया डॉन, नाग-नागिन के पुनर्जन्म की कहानी जैसे अंधविश्वास फैलाने जैसे कामों में लगा रहता है, न कि गो वध रोकने के लिए क़ानून बनाने के लिए दबाव डालने वाले काम। 

अध्याय बारह में सर्वधर्म संघ के साथ-साथ मुस्लिम गो-रक्षा संघ के सदस्यों द्वारा गो रक्षा के लिए उठाए हुए क़दमों का उल्लेख है। मुजफर भाई जैसे प्रमुख सदस्य ने बाबर हुमायूँ के वसीयतनामा, फिरोज साह तुगलक, कश्मीर के बादशाह जेनूल-आबदिल, सुल्तान नसुरुदीन खुसरो, फारुख शेख़, बादशाह आलम, बादशाह आदिल शाह जैसे सैकड़ों नामों पर प्रकाश डाला, जिन्होंने इस बात की पूरी कोशिश की थी कि गो हत्या न हो पाए। उन्होंने अपनी ख़ुद की गो-शालाएँ भी बनवाई थीं। यहाँ तक कि गायों को ध्यान में रखते हुए कुछ क़व्वालियाँ, ग़ज़ल और शेर भी लिखे थे। एक उदाहरण के तौर पर:

“गऊ माता को जो काटेगा, समझो वह इंसान नहीं 
कौन भला यह कहता है कि वो हिंसक शैतान नहीं 
कहता हूँ मैं बड़ी बात यह सुन ले अपना पूरा देश 
बिना गाय के देश हमारा सचमुच हिन्दुस्तानी नहीं 
चलो बताओ गऊ माता को सबको बड़ी ज़रूरत है 
बिन इनके अपने भारत की दुनिया में पहचान नहीं 
गाय बचेगी, देश बचेगा, हम भी सेहतमंद रहे 
बिना गैया के मेरे भैया बिलकुल ही उत्थान नहीं।” 

अध्याय तेरह आधुनिक सूचना क्रान्ति के उपयोग से गो रक्षा के लिए अनेक शहरों में इन्टरनेट और मोबाइल पर ‘एसएमएस’ के ज़रिए सैकड़ों लोगों का जुनून पैदा करने का वैसा ही कार्य हुआ जैसा पहले कभी जेपी ने गाँधी, विनोबा और लोहिया के विचारों को मथकर ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का हुजूम पैदा किया था। मुस्लिम फ़क़ीर गौप्यारा शाह की शिक्षा क़ुरान शरीफ़ ‘हल जनाउल इहसानि इल्लल इहसानु’ मतलब यह कि अहसान का बदला अहसान के सिवाय और क्या हो सकता है? इसलिए सच्चा मुसलमान गाय के अहसान को भूल नहीं सकता। दाऊद अलक के ग्रंथ ‘जुहूर’ में भी अल्लाताला हुक्म देते हैं कि ‘जो इंसान गाय की हत्या करता है, वह आदमी की हत्या करता है’। गाँधीजी के अनुसार जब कहीं कोई गाय काटी जाती है तो मुझे लगता है कि मुझे काटा जा रहा है। 

ईसाई धर्म में गोवध निषेध: 

फ़ादर स्टीफन का उद्बोधन कि प्रभु ईसा मसीह का जन्म एक गऊ-शाला में हुआ था, अतः वह गाय-प्रेमी थे ‘ओल्ड टेस्टामेंंट’ में लिखा हुआ है कि ‘तू किसी की जान मत ले। जंगल में किसी भी जीव का वध मत कर। तू मांस का भक्षण मत कर। अमेरिका के मालकम आर बैर स्पेन के अबूसार–गाय तो बिना ताज की महारानी है। पूरी पृथ्वी पर उसका शासन चलता है। वह जितना लेती है उससे कई गुना हमेंं लौटाती है। 

सिख धर्म में गो-वध निषेध: 

सिख धर्म में दसवें गुरु गोविंद सिंघ जी में खालसा पंथ की स्थापना करते हुए कहा था कि यह पंथ आर्य धर्म, गौ-ब्राह्मण, साधु-संत और दीन दुखी जन की रक्षा के लिए बना है। उन्होंने अपने ‘दशम ग्रंथ’ में एक जगह लिखा है: 

“यही देहु आज्ञा तुर्क को सपाऊँ, गो घात का दुख जगत से हटाऊँ। 
 यही आस पूरन करो तौं हमारी मिटे कष्ट गौऊन छुटे खेद भारी।” 

सन्‌ 1871 में पंजाब में मलेर कोटला में नामधारी सिखों ने गो रक्षा के लिए अपनी क़ुर्बानियाँ दी थीं। मुग़लों के समय तो गायें सुरक्षित थीं लेकिन अँग्रेज़ों का शासन आने के साथ ही गायें कटने लगी थी। तब नामधारी सिखों ने कसाईघरों पर हमले किए और जिन लोगों ने गायों की हत्या की, ऊउ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। गुरु तेग बहादुर जी, गुरु अर्जुन देव जी सहित अधिकतर सिख गुरुओं ने गौ रक्षा के लिए बलिदान दिया था। महाराजा रणजीत सिंह ने सत्ता सँभालते ही गो हत्या पर रोक लगाई थी। भगवान कृष्ण की तरह गुरु नानक देव भी बाल्यकाल में गाय चराने जंगल जाते थे। 

गाय का दूध शाकाहार या मांसाहार?: 

सतनाम पंथ के जनक गुरु घासीदास के भक्त महंत जनक राम जी के अनुसार जब 18 दिसंबर 1756 में गुरु घासी दास के जन्म के समय उनकी माता के छाती में दूध नहीं उतर रहा था तो किसी महात्मा ने फ़ौरन एक गाय और बछिया भेंट की थी, जिसके दूध से उनका लालन-पालन हुआ। आगे जाकर उन्होंने समता, समानता और विश्वबंधुत्व का संदेश दिया। उनके अनुसार जिसका गाय का बछड़ा मर गया हो उसका दूध नहीं पीना चाहिए क्योंकि उस समय गाय दुखी है। उस समय गाय का दूध निकालना निरी पशुता है। उन्होंने मांसाहार न करने के लिए भी प्रेरित किया। यहाँ तक कि लाल भाजी खाने से भी मना किया, क्योंकि उसका रंग लाल है खून-सा दिखता है और लाल रंग देखने से उग्रता आती है। सतनाम पंथ की यह विवेचना पढ़ते ही मेरे मन में फिर से एक बार ‘शाकाहार’ और ‘मांसाहार’ की परिभाषाओं की तरफ़ ध्यान जाने लगा। क्या गाय का दूध शाकाहार है? अगर शाकाहारी है तो वनस्पतियों से पैदा होता, मगर यह तो गाय की दुग्ध-ग्रंथियों के रस का उत्सर्जन है जो उसके शरीर के मांस की विभिन्न ग्रंथियों से होते हुए पार होती है। अतः सामान्य परिभाषा के अनुसार गाय का दूध तो मांसाहारी होना चाहिए। इस तथ्य को आधार लेते हुए बिहार स्कूल ऑफ़ योग, मुंगेर वाले दूध से बनी चाय भी नहीं पीते हैं। इसी तरह सतनाम पंथ अथवा जैन धर्म में ‘प्याज’, ‘लहसुन’, ‘गाजर’, तथा ‘लालभाजी’ को मांसाहार की श्रेणी में गिनकर उनके सेवन पर प्रतिबंध है, जबकि ये चारों तो वनस्पति से पैदा होते हैं। कभी ऐसी ही विवादास्पद विवेचना मैं अपने मित्र श्रीकांत प्रधान के साथ कर रहा था तो उन्होंने ‘एजलेस बॉडी टाइमलेस माइंड’ पुस्तक के विश्व प्रसिद्ध लेखक दीपक चौपड़ा का उदाहरण देते हुए कहा था कि जिन चीज़ों में एमीनो एसिड की मात्रा ज़्यादा हो तो वे सारा सामग्रियाँ ‘मांसाहार’ की श्रेणी में आती हैं और जिन सामग्रियों में एमीनो एसिड की मात्रा नहीं हो या न्यून हो तो उन्हें ‘शाकाहार’ की श्रेणी में गिना जाता है। चूँकि एमीनो एसिड की उपस्थिति लाल रंग को दर्शाती है। इस शोध के आधार पर दूध ‘शाकाहार’ की श्रेणी में आता है जबकि ‘प्याज’, ‘लहसुन’, ‘गाजर’, तथा लालभाजी ‘मांसाहार’ के वर्ग में गिने जाते हैं अर्थात्‌ दूध में एमीनो एसिड नहीं होता है, जबकि प्याज’, ‘लहसुन’, ‘गाजर’, तथा लालभाजी आदि में एमीनो एसिड होता है। जैन धर्म तो ‘अहिंसा परमो धर्म:’ की अवधारणा पर भी खड़ा है, मगर कुछ विधर्मी जैन लोग पैसों की चाह में गो हत्या जैसे जघन्य अपराधों में शामिल हो जाते है। इस तरह इस अध्याय में ‘सर्वधर्म गो रक्षा संघ’ के उद्देश्य सार्थक होते नज़र आते हैं। 

गौ-शालाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार: 

अंतिम तीन अध्यायों में फिर से कई कथानकों, अंतर्वस्तुओं और विषयों का विस्तार हुआ है। इंजेक्शन लगाकर गायों से दूध निकालने पर मनुष्य की सेहत पर होने वाले कुप्रभाव गौशालाओं में प्राप्त भ्रष्टाचार को जहाँ उपन्यासकार ने जिस पारदर्शिता से पाठकों के समक्ष रखा है, उसी साफ़गोई से ‘कामधेनु मिष्ठान भंडार’, ‘कामधेनु पंचगव्य चिकित्सा केंद्र’ आदि के माध्यम से दूध से बनने वाली मिठाइयों तथा दवाइयों को भी पाठकों के सामने रखा है। सोलहवें अध्याय में गो सेवकों पर की गई गोलीकांड का वर्णन इतना सजीव है, मानो आँखों के सामने जालियांवाला बाग़ की घटना घटित हो रही हो। सरकार क़त्लखानों पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहती है, मगर गो रक्षा के लिए उत्तेजित जनता राजधानी में व्यापक रूप से रैली का आयोजन करती है। इधर करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र गाय, उधर डगमगाती अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए क़त्लखानों को रियासत देने पर तूली सरकार। अंतिम अध्याय में ‘रहीम गौ शाला’ में आराम से रह रही श्वेता-श्यामा गायें बेहद बूढ़ी हो जाती हैं। तब तक पूरे विश्व में ‘विश्व मंगल गौ ग्राम यात्रा’ का माहौल बन जाता। तभी उपन्यास के क्लाइमैक्स में अचानक परिवर्तन आ जाता है, कि ‘रहीम गौशाला’ की लोकप्रियता को देखकर कोई आदमी श्यामा गाय को ज़हर खिलाकर मार देता है, ताकि गौ-मांस का निर्यात कर सरकार विदेशी मुद्रा कमाती रहे और उसकी यह करतूत न केवल रहीम गौ शाला से दुश्मन बढ़ाने बल्कि खालबाड़ा के कसाइयों को भी चाँदनी ले आती है। श्यामा गाय को मरा देखकर श्वेता भी दम तोड़ देती है कि पशुओं में भी संवेदनाएँ होती है। एक का दुख दूसरा देख नहीं पाता। 

उपन्यास का उपसंहार 

अंत में जनकवि सतीश उपाध्याय की गीत रचना की प्रस्तुति के द्वारा लेखक गाय के असहायपन को सामने लाया है: 

“मैं गाय हूँ मिटता हुआ अध्याय हूँ। 
 लोग कहते हैं माँ मगर, मैं तो बड़ी असहाय हूँ 
चाहिए सबको कमाई, बन गई दुनिया कसाई, 
ख़ून मेरा मत बहाओ, माँ को अपनी मत लजाओ 
 बिन कन्हैया के धरा पर, भोगती अन्याय हूँ, 
 मैं गाय हूँ, मैं गाय हूँ।” 

मगर उन्होंने एक आशा भी जगाई है कि एक न एक दिन लोग हर तरह की जीव-हिंसा के सवाल पर सोचेंगे ज़रूर, सारा पशु-धन बचेगा, अहिंसा जीतेगी और यह ख़ूबसूरत दुनिया अहिंसा के सहारे ही सुखमय और आधुनिक जीवन जी सकेगी। 

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