वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’ 

15-06-2023

वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’ 

दिनेश कुमार माली (अंक: 231, जून द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

समीक्षित पुस्तक: लेबनान की वह रात व अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह-प्रवासी कथाकार शृंखला)
लेखक: डॉ. शैलजा सक्सेना
प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन प्रा. लि., ठाणे (महाराष्ट्र)
पृष्ठ संख्या: 176
मूल्य: ₹273.00 (हार्ड कवर), ₹164.00 (सॉफ़्ट कवर)
ISBN-10‏: ‎ 9390500125
ISBN-13: ‎ 978-9390500123
अमेज़ॉन.इन से प्राप्त करने के लिए क्लिक करें
 

शैलजा सक्सेना हिंदी साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं, वह प्रवासी ज़रूर हैं; मगर उनका साहित्य मुख्यधारा से जुड़े हुए हिंदी के वैश्विक साहित्य की श्रेणी के अंतर्गत आता है। जहाँ उनकी कहानियों में भारत की मिट्टी की सौंधी सुगंध मिलती है, वहाँ उनमें कैनेडा, अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्राँस, लेबनान, अफ़्रीका, संयुक्त अरब अमीरात जैसे अनेक देशों के कई पात्र अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा की कहानियों की तरह शैलेजा जी की कहानियों की ख़ासियत है—वैश्विक साहित्य में मानवीय मूल्यों की सार्वभौमिकता। उनकी कहानियों में देश-विदेश के अलग-अलग धर्म, जाति, संप्रदाय और भाषा से ऊपर उठकर केवल बची रह जाती है मनुष्यता और संवेदनाओं का औदात्य। उनकी कहानियों के अधिकांश पात्र अस्तित्ववादी हैं, यही वजह है कि वह स्वयं भी काम्यू और सार्त्र की तरह अस्तित्ववाद में पूर्ण विश्वास रखती है। 

उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है, जो मुझे अत्यधिक प्रभावित करती है, वह है उनकी विशिष्ट भाषा-शैली और कथानकों की विविधता, जिसके द्वारा वह मानव-मन की भीतरी दुनिया का जीवंत वर्णन करने में सफल और सिद्धहस्त साबित होती हैं। प्रसिद्ध वेब-पत्रिका साहित्य-कुंज के प्रधान संपादक श्री सुमन के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ पढ़ने के उपरांत प्रलेक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित साहित्य-कुंज की विशेषांक संपादिका शैलजा सक्सेना के कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियां’ पढ़ने का सौभाग्य मिला। और ऐसे भी देखा जाए तो मेरी कैनेडा के हिंदी साहित्य के अध्ययन में विशेष दिलचस्पी है, उसके पीछे मेरे अपने व्यक्तिगत कारण भी हैं, वहाँ रह रहे भारतीयों की जीवन-शैली में अपने परिजनों की आपाधापी का सूक्ष्म-अन्वेषण करना। अपनी कहानियों की पृष्ठभूमि के बारे में लेखिका स्वयं बताती है:

“पिछले 27 सालों में मुझे भारत के साथ-साथ कैनेडा, अमेरिका और इंग्लैंड में भी रहने का अवसर मिला, दुनिया के विभिन्न देशों से आए लोगों के जीवन संघर्ष भी पास से देखे। स्थान भेद की भिन्नता होने पर भी कभी जीवन की मूल चिन्ताएँ समान दिखाई दीं तो कभी संस्कृति भेद होने से कुछ नया भी देखने, समझने को मिला और इस तरह इन कहानियों ने जन्म लिया।” 

‘लेबनान की वो रात’ इस कहानी-संग्रह के शीर्षक कहानी है, 1945 के दूसरे विश्व युद्ध के समय की। उसमें कहानीकार का जन्म भी नहीं हुआ होगा, फिर ‘रेत-समाधि’ के उपन्यासकार गीतांजलि श्री की तरह अपने जन्म से पूर्वकालीन घटना को अपनी कहानी का आधार बनाया। ‘लेबनान की वो रात’ कहानी के पीछे शैलजा सक्सेना जी का क्या उद्देश्य रहा होगा, वह स्वयं ही जानती हैं। निस्संदेह यह कहानी लेखिका के अर्जित अनुभवों पर आधारित है, न कि स्वयं के द्वारा भोगे हुए। मगर यह सत्य है कि धर्म के नाम पर हो रहे युद्धों को रोकने के लिए मनुष्यता को जीवित करना ही इस कहानी का उद्देश्य प्रतीत होता है। यहूदी घर में मुस्लिम लड़की यास्मीन (अलुश्का) की शरण देना, उनके बेटे सिमहा के पत्र के आधार पर और फिर यास्मीन द्वारा उस घर को नहीं छोड़ने का संकल्प लेना, जब तक कि सिमहा युद्ध समाप्त कर घर लौट न आए, जबकि मुसलमानों द्वारा यहूदियों को लेबनान से जीवित खदेड़ने या मौत के घाट उतारने का फ़रमान जारी किया जा चुका है। ऐसी अवस्था में यह मानवीय प्रेम नहीं तो और क्या है! जब यहूदी सिमहा की माँ जूली और पिता बेन-अब्राहिम अलुश्का को अपने बेटे की मंगेतर समझकर उसे अपने घर में पनाह देते हैं और उसकी सुरक्षा के लिए अपनी जान-जोखिम में डालकर उस घर को छोड़कर बाहर जाने के इरादे को भी बदल देते हैं। कहानी के कुछ अंश प्रस्तुत हैं:

“कहती है कि बेरूत से आई है, पर वो तो बहुत दूर है तो यह आई कैसे यहाँ? कब की चली हुई होगी? कहाँ रही होगी बीच के दिनों में? और यहीं क्यों आई? यह तो जानती है कि सिमहा यहाँ नहीं है। किस परिवार से है? अरब है कि यहूदी? नाम तो यहूदी है पर कोई माथे पर तो लिखा नहीं है कि कौन अरब है और कौन यहूदी? आदमी तो फिर दाढ़ी से पहचाने जाते हैं पर औरतों के पास तो ऐसा कोई निशान होता नहीं है। वैसे भी औरतों की एक ही जात होती है औरत! आदमी का जाति, काम और धर्म होते हैं औरत का एक ही धर्म है औरत होना और सारी संस्कृतिक अपेक्षाओं को पूरी करना! आदमी लड़ता है और जीती जाती है औरत! आदमी योजनायें बनाता है और उन योजनाओं के पहियों का तेल बनती है औरत, आदमी मरता है और उजड़ती है औरत! औरत जब प्रश्न करती है तो झिड़कियाँ खाती, सलाह देती है तो बेवकूफ़ कहलाती है!” 

यह वैसा ही दृश्य पैदा करती है, “रेत समाधि’ की तरह। ‘रेत समाधि’ उपन्यास भारत-पाकिस्तान विभाजन पर आधारित है। यह विभाजन 1947 में हुआ था तो यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या उपन्यासकार ने भारत-पाकिस्तान विभाजन के वे दृश्य अपनी आँखों से देखे हैं या ख़ुद भोगे हैं? उत्तर मिलेगा, नहीं। जैसे कृष्ण सोबती की कहानी ‘सिक्का बदल गया’ में कभी अपना शुभचिंतक रहा व्यक्ति ही कहानी के पात्र का जानलेवा दुश्मन बन जाता है, वैसे ही इस उपन्यास में भी माँ को गोली मारने वाला और कोई नहीं, बल्कि अपने पहले प्रेमी अनवर का पुत्र अली अनवर ही होता है। अली अनवर माँ के पुत्र के तुल्य है, वह बदल जाता है। ऐसा क्यों? क्या विवशता है? धर्म की, मान-मर्यादा की, राजनीति की, देश भक्ति की? यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ में असद अपनी प्रेमिका तारा से शादी नहीं कर पाता है, मगर उसे सरहद तक पहुँचाने में मदद अवश्य करता है, वैसे ही ‘रेत समाधि’ में अनवर अपनी प्रेमिका चंदा यानी चंद्र प्रभा, उपन्यास की प्रमुख पात्र माँ से स्पेशल मैरिज एक्ट 1870 के तहत शादी तो कर लेता है, मगर धर्म के आधार पर बँटे देश पाकिस्तान से अनवर उसे छोड़ देता है। यह कैसा समय रहा होगा? क्या बीती होगी उन बिछड़े हुए युगलों पर? धर्म के नाम पर देश विभाजन पर आधारित साहित्य की रचना करने वाले भीष्म साहनी, बलवंत सिंह जोगिंदर पाल, मंटो,  राही मासूम रजा, कृष्णा सोबती, इंतज़ार हुसैन, खुशवंत सिंह, रामानंद सागर, मंजूर एहेतशाम, राजेंद्र सिंह बेदी, कृष्ण बलदेव वेद, गीतांजलि श्री आदि प्रमुख है और उनकी प्रमुख रचनाओं में जैसे ‘झूठा सच’, ”तमस’, ‘सूखा बरगद’, ‘ए ट्रेन टू पाकिस्तान’, ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’, ‘जिंदगीनामा’ आदि कृतियाँ प्रमुख हैं। इस तरह मानवीय संवेदना को झकझोरने वाली ‘लेबनान की वो रात’ कहानी की नई आभा को नमन करते हुए, सांस्कृतिक पार्थक्य और भाषागत सीमाओं के बावजूद लेखिका ने अपने अद्भुत श्रम से हिंदी जगत को यह कहानी प्रदान कर अलग पहचान बनाई है। 

‘आग’ एक ऐसे भारतीय परिवार की कहानी है, जो आजकल हर घर में देखी जा सकती है। छोटे-छोटे अहम के तुष्ट नहीं होने के कारण शादीशुदा घर-परिवार आज बिखराव और टूटन के कगार पर है। इस कहानी में एक अग्रवाल परिवार के दोनों लड़के अपनी पत्नियों से एक साथ अलग होना चाहते हैं, जबकि उन दोनों के छोटे-छोटे बाल-बच्चे भी हैं, इसके बावजूद भी उनके अलग होने के कारण हैं उनके भीतर छोटे-मोटे अहम-वहम की लड़ाई। ऐसी अवस्था में परिवार के मुखिया पर क्या गुज़रती होगी? यह सहज कल्पना की जा सकती है। आधुनिक परिस्थितियों में यह न केवल सोचने का विषय है, बल्कि ऐसी समस्याओं से नजात पाने की नितांत आवश्यकता हैं और साथ-ही-साथ, ऐसे परिवारों को बिखराव से बचाने के लिए धैर्य और साहस की ज़रूरत है। अपनी धाराप्रवाह भाषा-शैली में कहानी के बदलते परिदृश्यों के बीच में लेखिका नारीवादिता के कुछ बीज फेंकती हुई कहानी को आगे की ओर बढ़ाती है: 

“आपने भी सुना होगा, ‘औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है’, मैं यह बात आपसे दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह सिद्धान्त किसी औरत का बनाया तो हो ही नहीं सकता! हाँ औरतों को भिड़ाने वाले, उसके अहं को हवा देकर उसको चंडी बनने को उकसाने वालों का ही यह सिद्धान्त होगा। ये आदमी घर के बाहर भी हर डालते हैं और . . . घर में सास और बहू, देवरानी और जिठानी पदों के तरह की फूट बीच फूट डालते हैं . . . और औरतों में पैदा करते हैं असुरक्षा की भावना! बस! फिर देखो! आग लगाने की देर है, फैलने में क्या समय लगता है? तब उस आग पर अपने स्वामित्व को पकाओ! औरतें एक हो जाएँ तो आदमी की सुनेगा कौन सो बस, फूट डालो . . . कंधा किसी और का, बंदूक अपनी! यही तो खेल है! ख़ुद अच्छे बने रहो और . . . पर यहाँ तो आग कुछ अलग ही चल रही थी।” 

इसके अतिरिक्त, उनके इस कहानी-संग्रह की प्रत्येक कहानी का अंत अपने आप में पारंपरिक कहानियों से पूरी तरह हटकर, साधारण पाठकों की कल्पना से परे एक ख़ास नूतनता लिए हुए है, और साथ ही साथ मनोवैज्ञानिक ढंग से वह अपने सशक्त तर्क भी प्रस्तुत करती हैं, इस वजह से आप उन्हें मानवीय रिश्तों की समन्वयक और मनोवैज्ञानिक लेखिका भी मान सकते हैं। 

“मैंने अग्रवाल दंपती की ओर से कोर्ट में एक अपील लिखवाई कि “मैं दिनेश कुमार अग्रवाल, उम्र 61 और दयावती अग्रवाल, उम्र 58 यह घोषित करते हैं कि हम शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से समर्थ हैं और अपने तीनों पोते-पोतियों जिया (उम्र 6), मयूर (उम्र 8), स्वप्न (उम्र 4) की ‘सोल कस्टडी’ या ‘गोद लेना’ चाहते हैं। हम सब सोच-समझ कर, पूरे होशो-हवास में यह घोषित करते हैं कि यदि हमारे बेटे और बहुएँ अलग होते हैं तो हम अपने बेटों प्रशांत और निशांत, बहुओं रूमा और नीमा से हर प्रकार के सम्बन्ध तोड़ना चाहते हैं जो इन बच्चों के माता-पिता भी हैं। ये चारों अपनी निजी ज़िद और असंतुलित विचारों के चलते अपने बच्चों को ऐसा परिवेश देने में असमर्थ हैं जो बच्चों के लिए आवश्यक है। ये बच्चे जन्म से ही हमारे साथ संयुक्त रूप से रहते आए हैं अतः हम बच्चों की ज़रूरतों को अच्छी तरह समझते हैं। बच्चों को एक अच्छा इंसान बनाने के लिए हमें, यानी उनके बाबा-दादी को उन्हें पालने-पोसने और बड़ा करने के अधिकार दिये जाएँ।”

इस कहानी-संग्रह की दूसरी कहानी ‘उसका जाना’ अत्यंत ही त्रासद भरी कहानी है। साधारणतया भारत में रहने वाले लोग प्रवासी भारतीयों के सुखी और समृद्ध संसार की परिकल्पना करते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि वे लोग विदेशों में शानदार जीवन जीते हैं, बहुत पैसा कमाते हैं, जबकि यथार्थ में ऐसा होता नहीं है। वहाँ भी बेरोज़गारी है, जिस वजह से घरेलू-हिंसा में वृद्धि होती है। सच में, कहानीकार की यह कहानी पाठकों को विचलित कर देती हैं। एक सामान्य पढ़ा-लिखा भारतीय परिवार जब कैनेडा या किसी अन्य देश में प्रवास करता है तो उसके सामने सुरसा की तरह मुँह फाड़ कर कई विकराल समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। सबसे पहले समस्या आती है संवादहीनता की अर्थात् भाषा की समस्या, फिर दूसरी समस्या होती है, न घर न घाट के होने की यानी झेलनी पड़ती है निस्संगता, घर से दूर, सगे-सम्बन्धियों से दूर और ऊपर से कभी भी नौकरी खोने का डर तो कभी आर्थिक मंदी के कारण ग़रीबी की मार। इन संघर्षों से जूझते हुए आप सोच सकते हैं कि ऐसी अवस्था में उन परिवार के बाल-बच्चों पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा? यह चिंतनीय विषय है। नारी की अस्मिता की रक्षा, उसके त्याग और संघर्ष को बख़ूबी अपने शब्दों में पिरोकर मर्मस्पर्शी वर्णन किया है, मानवीय मूल्यों के क्षय और रिश्तों में पड़ रही दरारों पर, कहानीकार शैलजा सक्सेना ने अपने शब्दों में: 

“देखा, माँ मेज़ के पास नीचे ज़मीन पर पड़ी है, बापू पास खड़े लाल आँखें किये उसे पैर से मार रहे हैं। “माँ ” चिल्ला कर वो माँ के ऊपर झुक जाना चाहती थी कि बापू ने उसे बालों से पकड़ कर सीधा खड़ा सा कर दिया और चिल्ला कर बोले, “सीधे अपने कमरे में चली जा वरना तेरा भी वही हाल करूँगा।” माँ झपटती सी उठ खड़ी हुई और उसके बालों को बापू के हाथों से छुड़ाती हुई बोली, “जा बेटी, तुरंत चली जा,” वह माँ की हालत देख कर सकते में आ गयी थी। माँ ब्लाउज़ पेटीकोट में आधी उघड़ी सी खड़ी थी। उसने आहत नज़रों से माँ को देखा, “और माँ, तुम?” माँ जैसे कुछ सुनने, समझने को तैयार नहीं थीं, तेज आवाज़ में बोली, “तू जा, कहा न!” वह माँ को देखती हुई कमरे से बाहर भाग आई थी। पीछे बापू की आवाज़ आई थी, “और किसी को बुला ले अपनी पैरवी करने को, कहाँ छुपा बैठा है तेरा यार, उसे भी बुला ले, साली, हरामज़ादी मुझे मना करती है” और फिर एक धाड़ की आवाज।” 

इसी शृंखला की अगली कड़ी में ‘वह तैयार है’ एक अलग प्रकार की कहानी आती है, जिसमें कहानीकार ने ईवान के माध्यम से वर्णन किया है कि कैनेडा में कभी भी किसी की भी नौकरी छूट जाती है, उसे अच्छा काम करने के बाद निकाल दिया जाता है, तो उसकी मनो-स्थिति पर किस तरह अवसादग्रस्त हो जाती है और मन ही मन वे किस तरह अपने आपको भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करते हैं। लेखिका ने इस कहानी में अत्यंत ही मार्मिक मनोविश्लेषण प्रस्तुत किया है। 

अब मैं आपको अपने मन की बात बताता हूँ कि अगर कोई मुझे यह प्रश्न पूछे कि आपकी नज़रों में इस कहानी-संग्रह की सबसे पसंदीदा कहानी कौन-सी है तो किसी भी पल का बिना इंतज़ार किए मेरा उत्तर होगा, “एक था जॉन स्मिथ।” इसके पीछे मेरी अपनी अवधारणाएँ है और इस कहानी के पात्र जॉन स्मिथ को अपने भीतर समाया हुआ पाता हूँ। मानव जीवन को लेकर कहानी कई प्रश्न उठाती है। ऐसे क्या कारण थे कि जॉन स्मिथ शादी नहीं करना चाहता था? और न ही वह दुनियादारी के संबंधों को निभाना चाहता था? न तो वह नौकरी करना चाहता था, यूनिवर्सिटी में प्रथम आने के बाद भी? एक अच्छा दार्शनिक लेखक होने के बावजूद भी वह अपनी पुस्तक प्रकाशित करना नहीं चाहता था? न उसे अपने परिवार की चिंता थी, न ही उसे यश-कीर्ति-सम्मान पाने या धन कमाने की कोई लिप्सा। ऐसे चरित्र पर गहन शोधकर अत्यंत ही मार्मिक और सार्थक रूप दिया है कहानीकार ने, जो दुनिया की अंधी भागदौड़ में धन, नाम, पद और प्रतिष्ठा कमाने वालों पर करारा प्रहार करती है और ‘मैटाफिजिक्स’ के प्रश्न हमारे सम्मुख रखती है कि आख़िरकार मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या जन्म लेना, नौकरी पाना, बच्चे पैदा करना, उन्हें पढ़ाना, उनकी शादी करना और अंत में शवदाह गृह में अपने आप को राख में तब्दील कर देना ही मनुष्य जीवन की पूर्ण यात्रा है अथवा अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनकर आत्म-अन्वेषण करते हुए मानव सभ्यता को कुछ सार्थक योगदान करना। इस तरह उनकी यह कहानी काम्यू के ‘मेटामोरफोसिस’ से कुछ हद तक समानता रखती है। इस कहानी के माध्यम से कहानीकार यह संदेश देना चाहती है कि हमें हर पल को भरपूर तरीक़े से जीना चाहिए, रुदन-क्रंदन करते हुए नहीं, जगत-जंजाल में फँसते हुए नहीं, बल्कि हँसते हुए आत्म-अन्वेषण की राह पर निर्मोही और निरासक्त भाव से आगे बढ़ते हुए। शैलजा सक्सेना के शब्दों में: 

“महेश को जॉन के निर्लिप्त जीवन से कुछ ईर्ष्या हुई। जॉन मुक्त था, वह इतनी गहरी मुक्ति के साथ जिया और मरा था कि उसे मुक्ति के लिये किसी गंगा या झील की ज़रूरत नहीं महेश उसे फक्कड़ कहता और उसे ‘नॉन टैक्सपेयर’ (टैक्स न देने वाला), कंट्रीब्यूटर’ (योगदान न देने वाला) कह कर खिजाता भी था कि वह समाज को क्या दे रहा है? समाज को उसके पैदा होने का क्या लाभ मिला? शुरू में अक़्सर वह यह सब जॉन की माँ के कहने पर और बाद में यूँ ही उसे चिढ़ाने को कहता कि जॉन भड़क कर नौकरी करने लग जाये, जीवन की सामान्य कही जाने वाले शैली अपना ले पर जॉन केवल हँस देता, भड़कता नहीं। कभी-कभी कहता, “टाइम विल टैल” (समय बतायेगा)! 

आज समय बता रहा था कि जॉन जैसा जीवन बिताने पर ही नई खोज और नए विचार सामने आते हैं, कुछ असामान्य घटता है। मनुष्य नष्ट हो जाता है पर उसका अर्जित ज्ञान समाज के अथाह सागर में मोती की तरह शेष रह जाता है। पानी के बुलबुले भले ही नष्ट हो जाते हैं पर उनके सिरों पर चमकती आभा कह किसी आकाश, किसी ‘स्पेस’ में, किसी के मन के ‘स्पेस’ में देर तक रह जाती है, ठहर जाती है।” 

इस संग्रह की ‘पहचान:एक शाम की’ और ‘शार्त्र’ दोनों कहानियाँ अस्तित्ववादी हैं, जिसमें न केवल कहानी के मुख्य पात्र अपने अस्तित्व की तलाश करते हैं, बल्कि वर्तमान के हर पल-हर क्षण को भरपूर तरीक़े से जीना चाहते हैं। ‘पहचान’ कहानी की पृष्ठभूमि में लंदन है तो ‘शार्त्र’ में दक्षिण अफ़्रीका। दोनों कहानियों में नारी की वेदना को प्रमुखता से उभारा गया है। ‘शार्त्र’ कहानी में शार्त्र प्रशिक्षित नर्स है, मगर वह अपने अस्तित्व के लिए हेल्थ केयर सपोर्ट का काम करने के लिए तैयार हो जाती है, जबकि ‘पहचान’ कहानी की विनीता साधारण गृहणी है, राकेश की पत्नी, घर के काम-काजों में हमेशा डूबी हुई। वह अपने लिए बिल्कुल भी समय नहीं खोज पाती है। अपने लिए फ़ुर्सत के क्षणों की तलाश में उसे भयंकर मानसिक तनाव से गुज़रना पड़ता है। इसी विचारधारा की अगली कहानी ‘चाह’ में जब मनुष्य अपने अधूरेपन या निस्संगता से जूझता है तो उसके मन में क्या-क्या चाह पैदा होती है, उसके मन में किस तरह अजीब-ओ-ग़रीब ख़्याल आते हैं, जिसे वह उन्हें अपनों के सामने रखना चाहता है, भले ही, लोग उसे पागल या मूर्ख ही क्यों न समझ ले? ऐसी ही मुझे एक ओड़िया कहानीकार सुरेन्द्र मोहंती की कहानी ‘गुलमोहर’ पढ़ने को मिली, जिसमें अख़बार का एक संपादक अपने एकाकीपन से नजात पाने के लिए रात के समय गुलमोहर पेड़ पर चढ़ने लगता है, ताकि उसे अपने जीवन में कुछ सुकून के पल नसीब हो सके। 

‘दाल और पास्ता’ कहानी में शैलजा सक्सेना ने भारतीय और कनेडियन संस्कृति की तुलनात्मक प्रस्तुति की कि भारतीय लोग किस तरह अपने बच्चों के लिए, जब तक उनकी शादी न हो, तब तक उनकी शिक्षा-दीक्षा, भरण-पोषण और शादी-ब्याह सभी का ख़र्चा उठाते हैं, जबकि कनेडियन अपने बच्चों को क़र्ज़ा लेकर इंडिपेंडेंट बनने की सलाह देते हैं। यही नहीं, इस कहानी में यह भी दिखाया गया है कि कैनेडा में रह रहे भारतीयों को भी कई बार रंगभेद का शिकार होना पड़ता है, उन्हें हमेशा सेकंड क्लास सिटीजन ही समझा जाता है, क्योंकि कहानीकार के ये अपने अर्जित अनुभव हैं। भारत और कैनेडा की संस्कृति, कार्य-पद्धति और रहन-सहन को अच्छी तरह आत्मसात करने के उपरांत उन्होंने इन दोनों संस्कृतियों के गुण-अवगुण पर उन्मुक्तता से अपने विचार रखे हैं। उनकी कंपनियाँ विदेशों की प्रति आकृष्ट हो रही भारतीय पीढ़ी को पहले से ही आगाह कर देती है कि जो चमकता है, कोई ज़रूरी नहीं है कि वह सोना ही होगा। ओड़िया भाषा के वरेण्य कवि डॉ. सीताकांत महापात्र के अनुसार उनकी भी धारणा यह ही है:

“। am here, not to solve a problem
। am here to sing a song।” 

हर वर्तमान पल को वह बख़ूबी से हँसते-मुस्कराते जीना चाहती है। उन्हें इस बात की गहरी अनुभूति है कि मनुष्य जीवन केवल जीने के लिए मिला है किसी ख़ास उद्देश्य के साथ। फिर जीवन मिलेगा या नहीं, इस बात की कोई गारंटी नहीं। हमारा जीवन दुनिया की आपाधापी मैं खपा देने के लिए नहीं बना है, और न ही इधर-उधर की समस्याओं के समाधान में अपना समय गँवाने के लिए। दूसरे शब्दों में, हमारी नई पीढ़ी को लेखिका यह संदेश देना चाहती है कि वे जहाँ भी हैं, ख़ुशी से रहें, अच्छे तरीक़े से रहें, न कि ज़्यादा पैसों के लोभ-लालच में आकर विदेशों की तरफ़ रुख़ करें और ‘ब्रेन ड्रेन’ का शिकार बन जाएँ। कोई ज़रूरी नहीं है कि आपको विदेशों में अच्छी बड़ी नौकरी नसीब हो। आपको वहाँ पर हर कार्य नीचे स्तर से शुरू करना पड़ता है और अनेक संघर्षों के बाद फिर धीरे-धीरे आप ऊपर उठते जाते हैं, लेकिन यह क्रूर सत्य है कि हर किसी के लिए गुलमर्ग के उपवनों की तरह गुलाब की पंखुड़ियों से बिछा हुआ कोई राजशाही मार्ग उपलब्ध नहीं है, बल्कि काँटों से भरे हुए दर्दनाक रास्ते ही अक्सरतया मिलते हैं। 

‘दो बिस्तर अस्पताल में’ कहानी की पृष्ठभूमि संयुक्त अरब अमीरात की मुस्लिम महिला सफ़ीना के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अस्पताल में अपने पास वाले बिस्तर पर सोई हुई एक मरणासन्न बुढ़िया की आह-कराह सुनकर तीस साल बाद आने वाले अपने भविष्य की कल्पना करती है। उसके साथ भी शायद ऐसा ही होगा, उसे कोई देखने वाला होगा, न पति और न ही बच्चे। उसका पति सलीम उसे काग़ज़ों में तलाक़ देकर दूसरे देश चला जाता है, पैसे कमाने के लिए और पीछे छोड़ जाता है सफ़ीना और उसके बेटे को, निर्वासन भरी ज़िन्दगी जीने के लिए। वहाँ ऐसा जीवन न केवल सफ़ीना गुज़ार रही है, बल्कि उसके जैसी कई मुस्लिम महिलाएँ काट रही हैं, जिनके पति तलाक़ के काग़ज़ बनाकर उन्हें यूँ ही छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। ऐसी अवस्था में उनके बच्चों को सही परवरिश कैसे होगी? कैसे वे अच्छे नागरिक बन पाएँगे? ज़्यादा सम्भावना तो उनके पथभ्रष्ट या आतंकवादी बनने की ही रहेगी। इस और उन्होंने संकेत भी किया है अपने शब्दों में: 

“स्ट्रैस मत दो, इन लोगों का क्या? मुँह उठाया, कह दिया। इनको तो कोई स्ट्रैस है नहीं लाइफ़ में, बच्चे निकल जाते हैं घर से अट्ठारह की उम्र में, . . . करते रहें कुछ भी, इन्हें क्या! इनकी पार्टियाँ, रंग रेलियाँ चलती रहेंगी। यहाँ तो सब को सीने से लगा के चलने के बाद भी लड़का बैठा है जेल में और बेटी का कुछ पता नहीं . . . बताओ, स्ट्रैस कैसे नहीं होगा . . .। अरे, क्या नहीं किया तुमने बच्चों के लिए . . .” 

मेरे विचार से ‘निर्णय’ और ‘अदर मदर’ को आधुनिकोत्तर कहानियों में शामिल किया जा सकता है, क्योंकि इन कहानियों के मुख्य पात्र माला अपने मंगेतर सुभाष और ऐना की माँ कैथरीन अपने पति की मजबूरियों को भली-भाँति समझकर उन्हें सहयोग करती है, न कि उनके साथ किसी भी प्रकार की विद्वेष-भावना, मनो-मालिन्य या मन-भेद पैदा कर उनके जीवन को नरक बनाती है, और न ही उनसे दूरियाँ बढ़ाती है। सच में, प्रेम में स्वार्थ नहीं होता है, तभी तो माला अपने पति सुभाष को उनकी प्रेमिका के साथ शादी करने का इजाज़त देकर तलाक़ ले लेती है, मगर बाद में फिर जब सुभाष उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखता है तो उसे सहज मन से स्वीकार कर लेती है। यह जिजीविषा का यथार्थ दृष्टिकोण है। इसी तरह ऐना की माँ कैथरीन अपने पति की पहली पत्नी और उसके बच्चों के प्रति अपने उत्तरदायित्व निभाने के लिए उनसे दूर रहते हुए भी उन बच्चों को उतना ही प्यार करती है, जितना वह ऐना को करती है। ऐसा सकारात्मक दृष्टिकोण शायद ही भारत में कभी देखने को मिलेगा। इस तरह कहानीकार की सोच मानवीय रिश्तों को लेकर काफ़ी व्यापक है, न कि वैवाहिक रिश्तोंं को लेकर संकीर्णतापूर्ण। न वह केवल पुरुषों के चरित्र में कमियाँ खोज कर उन्हें रेखांकित करना चाहती है। यह सत्य है कि दुनिया में कोई किसी को कभी भी पूरी तरह से समझ नहीं सकता है। कई जगहों पर सबकी अपनी-अपनी विवशताएँ होती हैं और उनकी अपनी सीमाएँ भी। उन्हें समझना एक अच्छे और सच्चे मनुष्य का नैतिक दायित्व होता है। यह दर्शाने के लिए कहानी के कुछ अंश उद्धृत किए जा रहे हैं: 

“प्यार से बड़ा शायद साथ का लोभ होता है हमारे मन में और होता है अकेले रह जाने का डर। प्यार या कह लो एक दूसरे की आदत, वो सब तो बाद में ही समझ में आते हैं। मेरे सामने भी दो विकल्प थे, एक कि ‘हाँ’ कह दूँ और घर-परिवार बनाऊँ, दूसरा विकल्प कि जैसे जी रही थी, जीती चलूँ। जीवन में किसी के साथ में ख़ुशियाँ मिलने की जो सम्भावना होती है, हम इसी सम्भावना को शायद प्यार कहते हैं। जैसे ही लगता है कि कोई हमें ख़ुशी नहीं, दुख दे रहा है तो क्या हम उससे प्यार कर सकते हैं? नहीं न? ख़ुशी की सम्भावना चुनना एक विकल्प है और इस विकल्प से ही हम प्यार करते हैं वरना कोई शादी क्यों करे? सभी अकेले-अकेले रहें और अपनी मनमर्ज़ी से जीवन जिएँ। हमें अकेले रहने के विकल्प में उस ख़ुशी का पूरा स्वरूप नहीं दिखता जो पति-बच्चे, गृहस्थी में दिखता है, जिसको अकेले रहने में ख़ुशी का पूरा स्वरूप दिखता है, वह उस विकल्प को चुनता है।” (कहानी ‘निर्णय’ से) 

“तुम्हारे पिता मुझसे बहुत अधिक प्रेम करते थे पर मैं नहीं चाहती थी कि तुम्हारे पिता अपनी ज़िम्मेदारियों से भागें। उनकी पहली पत्नी नौकरी नहीं करती थी पर मैं स्वाबलंबी थी इसीलिए मैंने उन्हें कैनेडा आने से रोका और अपने जवान होते बच्चों के साथ रह कर, उनकी शादी, नौकरी लगवाने आदि की ज़िम्मेदारियों को ख़त्म करने को कहा। उस परिवार का हक़ तुम्हारे पिता पर मुझ से और तुम से पहले था। उन्होंने वे सब कुछ मेरे ही कहने पर किया वरना वे कब के हमारे साथ आकर रहने लग गए होते।” (कहानी ‘अदर मदर’ से) 

‘नीला की डायरी’ कहानी का भाषा-शिल्प यद्यपि डायरी लेखन की तरह है, मगर उसमें कहानीकार भारतीय और अमेरिकी समाज की तुलना कर यह बताने का प्रयास करती है कि सामाजिक जीवन के कुछ संदर्भों में भारतीय समाज श्रेष्ठ है और कुछेक में अमेरिकी समाज। उनकी मंशा यही प्रतीत होती है कि अगर दोनों समाजों की अच्छाइयों को हम ग्रहण कर लें और अच्छे मानव समाज का निर्माण हो सकता है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका में बच्चों के लिए जितनी सुविधाएँ उपलब्ध है, भारत में बिल्कुल नहीं। जबकि भारत में काम करने वाली बाई और प्रेस करने वाले भाई मिल जाते हैं तो अमेरिका में यह सारे काम ख़ुद ही करने पड़ते हैं। इस तरह वहाँ किसी प्रकार का शोषण नहीं होता है। अमेरिकी लोग ऊँच–नीच की बातें नहीं करते हैं, जबकि भारत मनुस्मृति के ज़माने से वर्ण-व्यवस्था में बँटा हुआ है। केवल भारत में ही नहीं, बल्कि अमेरिका में बेरोज़गारी की तलवार लटकती है और नौकरी छूटने पर उन्हें भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जब अमेरिका से बच्चे भारत आते हैं और ख़ुदा-न-खास्ता बीमार पड़ते हैं तो कभी-कभी उन पर व्यंग्यात्मक टीका-टिप्पणी की जाती है कि आख़िरकार फॉरेन रिटर्न बच्चे हैं, इसलिए ज़्यादा नाज़ुक हैं। अमेरिका में बच्चे देर से पढ़ना शुरू करते हैं, जबकि भारत में बहुत जल्दी। तरह-तरह के वाक़यों से वाक़िफ़ कराती है ‘नीला की डायरी’। 

मानवीय रिश्तों और अस्तित्ववाद जैसे सूक्ष्म विषय पर कहानियाँ लिखना आधुनिक काल में दुधारी तलवार पर चलने से कम नहीं है। विकराल अप्रेम की दुनिया में विद्रूपताओं और विसंगतियों के महासागर में गोते लगाकर मानवीय संबंधों में प्रेम की सीपियों और प्रवालों को खोजना अनवरत साहित्य साधना में सधे गोताखोर के सिवाय किसी के बस की बात नहीं है। अब यह प्रश्न उठता है कि क्या उनकी कहानियाँ, वह भी आधुनिकोत्तर काल की, इस वसुंधरा पर अमन, प्रेम और शान्ति के बीज बोकर विश्व के लिए वसुधैव कुटुंबकम का विटप तैयार कर सकती हैं? नहीं, कहानियाँ कोई औज़ार, हथियार या बंदूक तो नहीं है, जो समाज की मरम्मत, रख-रखाव या क्रांति का संदेश दे सकती हैं। उनकी कहानियाँ तो भीतर समाए हुए सुकोमल मधुर भावों की अभिव्यक्ति हैं। यहाँ यह कहना उचित होगा कि कहानीकार के भीतर चाहे मधुर भाव हो या कर्कष, कालजयी कहानी तो तभी जन्म लेगी जब उसके भीतर वेदना हो। हो सकता है यह वेदना सामाजिक अव्यवस्थाओं के विरोध से ताल्लुक़ रखती हो या फिर स्व की खोज में अपने ऊपर गुज़रे निर्मम पलों की बेशुमार स्मृतियों का पुलिंदा हो। इस तरह आप शैलजा की कहानियों में विश्व के अधिकांश हिस्सों का भ्रमण करेंगे, नए-नए नामों से परिचित होंगे, नई-नई संस्कृतियों से आपकी मुलाक़ात होगी और तरह-तरह की परिस्थितियों से आपका आमना-सामना होगा, मगर सभी के भीतर एक ही नैसर्गिक भावना आपको देखने को मिलेगी, वह है मानवीय मूल्यों की रक्षा करना, जिसके बलबूते पर ही हम पृथ्वी जैसे उपग्रह पर ज़िन्दा बचे हुए हैं और सुंदर हैं, सुरक्षित हैं, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का नाद-घोष करते हुए। आशा करता हूँ हिन्दी जगत में इन कहानियों का भरपूर स्वागत होगा। 

इसी कामना के साथ . . .

दिनेश कुमार माली, 
तालचेर (ओड़िशा) 

3 टिप्पणियाँ

  • 25 Jul, 2023 12:48 AM

    माली जी की समीक्षा के आगे कुछ बोलना सूरज को रोशनी दिखाने जैसा है। पर फिर भी मैं यहाँ कहना चाहती हूँ आदरणीया शैलजा जी की कहानियों में लेखिका का नम्र व्यक्तित्व , स्त्रियों प्रति सहानुभूति व युद्ध की विभीषिका में जलते बेक़सूर लोगों के लिए संवेदनशीलता देखते ही बनती है । बहुत बहुत शुभकामनाएँ

  • 21 Jun, 2023 12:08 AM

    कहानियों की विविधता का सम्यक निरूपण करती सुन्दर समीक्षा।

  • 20 Jun, 2023 11:00 AM

    माली जी की समीक्षा के आगे कुछ बोलना सूरज को रोशनी दिखाने जैसा है। पर फिर भी मैं यहाँ कहना चाहती हूँ आदरणीया शैलजा जी की कहानियों में लेखिका का नम्र व्यक्तित्व , स्त्रियों प्रति सहानुभूति व युद्ध की विभीषिका में जलते बेक़सूर लोगों के लिए संवेदनशीलता देखते ही बनती है । बहुत बहुत शुभकामनाएँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
साहित्यिक आलेख
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें
लेखक की अनूदित पुस्तकें