भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’

01-07-2023

भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’

दिनेश कुमार माली (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

पुस्तक: सप्तरथी का प्रवास (यात्रा वृत्तांत)
लेखक: डॉ. नीता चौबीसा
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर
ISBN: 978-93-5536-257-5
संस्करण: 2022
मूल्य: ₹250/-
पृष्ठ संख्या: 267

आज भी हमारे देश में महिला यायावरों के यात्रा-संस्मरण देखना और पढ़ना तो दूर, उनके बारे में महज़ कल्पना करना भी नामुमकिन है। वे सदियों से दासता की बेड़ियों में जकड़ी गई हैं। खोजने पर भी उनकी साहसिक यात्राओं के नामो-निशान कहीं नहीं मिलते हैं। हमारे देश की भयानक विडंबना है! कहते हैं, “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, तत्र रमंते देवता,” जबकि यह सत्य है—हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और। कहने में नारियों की पूजा, असलियत में प्रताड़ना ही प्रताड़ना। वह नारी जिसका बचपन पिता की निगरानी में गुज़रता है, यौवन पति और बुढ़ापा पुत्र के अधीन तो क्या वह घुमक्कड़ी कर पाएगी? 

ऐसी परिस्थिति में डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-संस्मरण ‘सप्तरथी का प्रवास’ पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होना अपने आप में हिंदी जगत के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। यह बोधि प्रकाशन, जयपुर से सन्‌ 2022 में प्रकाशित हुआ है, जो उनके पंजाब और तमिलनाडु के दर्शनीय एवं पर्यटन स्थलों की यात्रा-संस्मरण का संग्रह है। पंजाब के नूरमहल क़स्बे से कुछ दूर किसी सुरम्य स्थल पर उनके आध्यात्मिक गुरु आशुतोष महाराज विराजते हैं, जिन्हें उन्होंने यह पुस्तक समर्पित की है। पंद्रह सालों से अनवरत प्रतिवर्ष गुरु-पूर्णिमा पर उनके दर्शन के लिए लेखिका बांसवाड़ा, राजस्थान से वहाँ जाती है। 

यद्यपि हिंदी में कुछ उच्च कोटि का भ्रमण-साहित्य अवश्य लिखा गया है, मगर परिमाण और विविधता की दृष्टि से उसमें और भी गुंजाइश बाक़ी है। डॉ. नीता चौबीसा का यह यात्रा-वृतांत उस कमी को पूर्ण करता हुआ नज़र आता है क्योंकि इस यात्रा में मेरे हिसाब से एक साथ चार यात्राएँ अनवरत चलती है। पहली यात्रा, जिसमें विख्यात ऐतिहासिक पर्यटन जगहों का भ्रमण होता है; दूसरी मानसिक यात्रा, जिसमें लेखिका पाठकों को अपने मन की बात कहते हुए आगे बढ़ती जाती है और तीसरी सांस्कृतिक यात्रा, इंडोलॉजिस्ट होने के कारण लेखिका उस जगह की लोक-संस्कृति की पृष्ठभूमि में गहराई से उतर कर अद्भुत अक्षय ताज़गी और मानवीय संवेदना से परिपूर्ण अपने हृदयोद्गार व्यक्त करती है और चौथी, आध्यात्मिक यात्रा, जिसमें वह मंदिरों के दर्शन और मिथकीय पौराणिक दृष्टांतों से मानवीय चेतना के ऊर्ध्वमुखी होने का संदेश देती है। लेखिका स्वयं मानती है:

“देह तो पंजाब की यात्रा पर थी पर मेरे मन की अपनी एक अलग ही अंतर्यात्रा थी जो लावण्यमयी अबोध किशोरी सी किसी अज्ञात लोक में जा उतरी थी, जहाँ कभी चित्त काव्य की सुगबुगाहट को परिमल की तरह चतुर्दिक बहा जा रहा था तो कभी अतीत की स्मृतियों का आसमान अंतर्मुखी हो रहा था। मैं प्रतिपल अनुभव कर रही थी कि दिगन्त की टहनी पर अज्ञात का थका हारा मेरा मन-पाँखी बैठा हुआ है और सघन और फैलते हुए तमस को पूर्ण जिज्ञासा से टटोल कर ऋजु और मृदुल उजास को खोज रहा है जो भीतरी रिक्तता को भर सके। बाहरी यायावरी रेल से मेरी देह कर रही थी और भीतरी यायावरी मन जो अश्व पर सवार हो अतीत के गलियारों से गुज़रती वैदिक आर्ष ऋषियों की सरस्वती नदी के तीर से सप्त सैन्धव भूमि अर्थात् पंजाब तक की भूमिका तलाशने लगी। (सप्तरथी का प्रवास, पृष्ठ-15 और 16)” 

गीता के अठारह अध्यायों की तरह इन चारों यात्राओं से लबरेज़ इस यात्रा-वृत्तान्त के अठारह अध्यायों में एक तरफ़ औपन्यासिकता झलकती है तो दूसरी तरफ़ काव्य जैसा माधुर्य। उनकी कवित्त भाषा-शैली उतनी सशक्त, सुपाठ्य और त्वरित है कि पाठक पढ़ते-पढ़ते मंत्र-मुग्ध होकर लेखिका के साथ-साथ मानो ख़ुद यात्रा करने लगते हैं और वे सारे स्थल हमेशा के लिए उनके स्मृति-पटल पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ज़रा सोचिए, ऐसी लेखनी जिसमें भाषा निश्छल, सहज और सरल हो, जो जन-जीवन से जुड़ी हो, जो मार्मिक संवेदनाओं को प्रस्तुत करती हो और जिसमें आस्था और श्रद्धा के साथ-साथ तटस्थ बौद्धिक विश्लेषण वृत्ति हो, ऐसा मणि-कांचन का संयोग हिन्दी में बहुत कम देखने को मिलता है, जिसमें आध्यात्मिकता और प्राकृतिक सौंदर्य को बारीक़ी से स्पर्श किया गया हो। इस यात्रा में सहयात्री है उनके पति विक्की चौबीसा और बीच-बीच में गाइड, ड्राइवर और कभी इधर-उधर के जन-मानुष इस यात्रा-वृतांत के कालजयी पात्र बनते जाते हैं। सहयात्रियों के बातचीत करने के दौरान लेखिका कहीं-कहीं अपने इतिहास, ज्योतिष और भाषा विज्ञान से उद्धरण देती तो कहीं पर अपने ड्राइवरों सुंदर, हुसैन और दानिश से वहाँ की संस्कृति के बारे में तथ्य संग्रह करती हैं। साथ ही साथ, पौराणिक और आधुनिक जीवन की आपाधापी की अनेकानेक कहानियाँ, किंवदंतियाँ, लोकोक्तियाँ और मुहावरे इधर-उधर गूँथकर उनकी भाषा-वल्लरी को सरस, स्वतःस्फूर्त और सशक्त बनती जाती हैं। इस यात्रा-वृतांत में कुछ पात्र तो ऐसे भी हैं, जो चाहकर भी पाठकों की आँखों से ओझल नहीं हो पाएँगे। इस यात्रा-वृतांत के अधिकांश स्थानों की यात्रा मैंने पूर्व में की है, इस वजह से उन स्थानों के सारे दृश्य मेरी आँखों के सामने उभरकर तरो-ताज़ा हो जाते हैं और सांस्कृतिक और भाषायी पार्थक्य होने के बावजूद समय-काल-पात्र की रसवंती जीवन-लीलाओं की याद दिलाती है। 

जिसे लेखिका ने भूमिका में स्वीकार किया है:

“कुछ दूरी बाहर की नापती, प्रकृति से बतियाती, अपने नन्हे क़दमों से तमाम बाधाओं को लाँघती, विद्रूपताओं से लड़ती, सतत आगे बढ़ती जाती है . . .! अब यात्रा उसकी आदत और स्वानुभव से सीखना उसका स्वभाव बन चुका है . . . नई नई संस्कृतियों से परिचित होना, नई जगहों पर नये लोगों से मिलना, नवीन स्थलों पर नव उदित रश्मिरथी से बतियाना, सप्तरंगी सवेरों के सप्त स्वरों संग मुस्कुराना और नवसांध्य के सानिध्य अर्चन में जीवन बिताना मुझे रास आ गया है . . .! अज्ञात में झाँकने की मेरी इस प्रवृत्ति ने ही मुझे यात्री बना दिया है और जोगिया रंग में रँगा मन कुछ बासंती गा रहा है। मेरी प्रत्येक यात्रा में मेरे अंग-संग प्रवासी हुआ सप्तरथी, मुझे साक्षी भाव से चलना सिखाते हुए, मेरा प्रेरणापुंज हुआ सदा मेरा साथ निभाता आया है। मैं भी सप्तरथी के प्रवास में बहती निरन्तर यात्रा करती उसकी रससिक्त-प्रज्ञा से अपनी चेतना के हर आयाम को नव अनुभवों की प्रखरता में ढालती ताम्रवर्णी करती जा रही हूँ। (सप्तरथी का प्रवास, पृष्ठ-10)” 

निस्संदेह यायावरी एक नैसर्गिक प्रवृत्ति है अपनी अनसुलझी जिज्ञासाओं के समाधान हेतु। इसी खोज में लेखिका को बचपन से ही खेत-खलिहान, मुँडेर, आकाश में उड़ते पक्षी और रश्मिरथी, जिसे वह सप्तरथी कहना ज़्यादा पसंद करती है, आदि बहुत लुभाते हैं। उन्हें जहाँ प्रकृति के रहस्यों का अन्वेषण करना अच्छा लगता है, वही अपने भीतर की यात्रा के महासागर में गोते लगाना भी। इसलिए शायद कहा जाता है—यथा ब्रह्मांडे, तथा पिंडे। वह ब्रह्मांड के वलय में जो कुछ खोजती है, उसकी तलाश उसे अपने भीतर भी रहती है, तभी तो गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर पंजाब स्थित नूरमहल दिव्यधाम की यात्रा करना वह कभी नहीं भूलती है! 

विद्यार्थी जीवन में मैंने कभी महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन द्वारा रचित ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ पढ़ा था और उस समय महसूस भी हुआ था कि घुमक्कड़ी सबसे बड़ा धर्म है, न कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या अन्य कोई संप्रदाय—ये सब तो जीवन के सही मूल्यों को ठगने की विद्या है। इन पारंपरिक धर्मों के माध्यम से मनुष्य जीवन पाशबद्ध हो जाता है, जबकि घुमक्कड़ धर्म मानव के पाशमुक्त करते हुए विश्व नियंता के आशीर्वाद को प्रतिपल अनुभव करता है। राहुल जी सही कहते हैं, जो कहीं नहीं घूमा अपने घर-द्वार को छोड़कर, वह जीवन रूपी पुस्तक के एक अध्याय का एक पन्ना ही पढ़ता है, जबकि यत्र-तत्र-सर्वत्र परिभ्रमण करने वाला उस पुस्तक के अनेक पृष्ठों का गहन अध्ययन करता है। उसका जीवन सार्थक है। वह जीवन और जिजीविषा के उद्देश्य को अच्छी तरह जानता है। घुमक्कड़ों के भी कई प्रकार होते हैं, श्रेष्ठ, मध्यम और निम्न। श्रेष्ठ घुमक्कड़ वह होता है जो पृथ्वी के सातों महाद्वीपों को अपनी जागीर समझता है। कभी यूरोप, ऑस्ट्रेलिया तो कभी अमेरिका अफ़्रीका में, तो कभी एशिया या अंटार्कटिका में निडर होकर चक्कर काटते हुए नज़र आता है। ऐसे घुमक्कड़ 15-16 साल की उम्र में इस धर्म की दीक्षा लेकर विश्व-पर्यटन के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार हो जाते हैं। मध्यम घुमक्कड़ वे होते हैं जो अपने बिज़नेस या कार्यालय के किसी कार्य हेतु देश-देशांतरों का भ्रमण करते हैं। भ्रमण करना ही उनका पेशा होता है। निम्न श्रेणी घुमक्कड़ घर-द्वार सब सँभालते हुए, आगे-पीछे की सोचते हुए, अपने उत्तर-दायित्वों का निर्वहन सम्पन्न करने के बाद विश्राम की अवस्था में सुनियोजित ढंग से देश-विदेशियों की यात्रा का संकल्प लेते हैं। जो भी हो, हर व्यक्ति की अपनी-अपनी परिस्थितियाँ होती है और अपनी-अपनी सीमा भी। मगर यह सार्वभौमिक शाश्वत सत्य है कि मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता। चौरासी लाख योनियों से गुज़रते हुए कभी-कभार मनुष्य जन्म मिलता है। वह भी सीमित अवधि के लिए, ज़्यादा से ज़्यादा सत्तर से अस्सी या अस्सी से नब्बे वर्षों तक। इस अवधि में अगर हमने दुनिया नहीं देखी तो फिर कब देखेंगे? और अगर हमने दुनिया नहीं देखे तो क्या लेखन करेंगे? क्या यथार्थ, क्या काल्पनिक? जब भी कोई घुमक्कड़ या यायावर लेखक के रूप में अपने अनुभवों को समाज के समक्ष साझा करता है तो उससे बड़ी क्या सेवा हो सकती है! विश्व का कोई भी बड़े से बड़ा लेखक, किसी भी भाषा का क्यों न हो, अपनी कहानी, कविताओं की क्लिष्ट काल्पनिक दुनिया से ऊपर उठकर इस सृष्टि के यथार्थ धरातल को स्पष्ट करते हुए यात्रा-संस्मरण अवश्य लिखता है। हमारे पूर्वजों के इतिहास, भौगोलिक विरासत उनके योगदान का स्मरण करते हुए समकालीन मानव जाति, प्रकृति, चराचर, स्थावर-जंगल सभी को साक्षी मानते हुए जीवन चतुष्ट्य (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की पूर्ति करता है। 

यद्यपि ‘सप्तरथी के प्रवास’ में शुरू-शुरू में लेखिका की यात्रा मंथर गति से चलती है मानो कोई रेल सीटी बजाते हुए प्लैटफ़ॉर्म छोड़ने जा रही हो, फिर देखते-देखते वह गति तेज़ हो जाती है और गंतव्य भौगोलिक प्रदेशों की पृष्ठभूमि पर लेखिका अपनी ऐतिहासिक विहंगम दृष्टि डालने लगती है और उसके बाद बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से वह अचानक अंतर्मुखी होकर अपने भीतर झाँकने लगती है और झाँकते-झाँकते अंतर्द्वंद्व में फँस जाती है और सोचने लगती है क्या ऐसा हो भी सकता है? अगर ऐसा नहीं तो शायद कैसे हुआ होगा? फिर बिना किसी का इंतज़ार किए वह अपने प्रश्न का उत्तर भी ख़ुद देती है कि आस्था और विश्वास की दुनिया में कुछ भी सम्भव है, इसलिए यहाँ तर्क करना ठीक नहीं रहेगा–कहकर वह अपने आपको समझाती है और पाठकों को उनकी श्रद्धा और सबूरी पर छोड़ देती है। यह अंतर्द्वंद्व उन्हीं के शब्दों में: 

“यहाँ जब भगवान शिव का दूध से अभिषेक किया जाता है तो दूध नीले रंग में बदल जाता है जो स्पष्ट दिखाई पड़ा हालाँकि इसका वास्तविक या वैज्ञानिक कारण मेरी समझ में नहीं आया। हमने भी अभिषेक व पूजन अर्चन किया। श्रद्धा और आस्था में तर्क, कुतर्कों का घालमेल किये बिना भारत में नाग दूध पीते है, भैरव मदिरापान करते है और राहु का अभिषेक से झरता दूध नीला हो जाता है। गीता पर कृष्ण के हस्ताक्षर कहीं नहीं और वेद श्रुति परम्परा का हिस्सा भारत में सदियों से रहे है, इन पर प्रश्न लगाने का कोई कारण नहीं। (सप्तरथी का प्रवास, पृष्ठ-153) ” 

‘मेरी यायावरी: वाह पंजाब (भाग-1, 2 एवं 3)’ में लेखिका की पंजाब-यात्रा के संस्मरण हैं, जब वह पंजाब में अपने गुरु स्थल की ओर जाती हैं, दिल्ली से होते हुए, तब रेल यात्रा के दौरान रास्ते में आने वाले ऐतिहासिक स्थलों जैसे अंबाला, पानीपत, सोनीपत, फगवाड़ा, लुधियाना, सरहिन्द, जालंधर, नूरमहल आदि की दृष्यगत जानकारी देते हुए जाती है। उदाहरण के तौर पर: 

“महाभारतकाल के हस्तिनापुर से जन्म लिया, इंद्रप्रस्थ में शैशव बिताती हुई वह सल्तनतकाल के फिरोज तुगलक के फिरोजशाह कोटला, ऐबक की महरौली, अलाउद्दीन के सिरी, गयासुद्दीन के तुगलकाबाद, मोहम्मद तुगलक के जहाँपनाह, मुबारक शाह के मुबारकाबाद तक खेलती-कूदती जवान हुई और शाहजहाँ का शाहजहानाबाद अनंगपाल तोमर को दिल्ली का से जेम्स बेकर और एडवेल्यूटीन्स को नई दिल्ली तक का सफ़र तय करती दिल्ली सदा सकल आपका राजनैतिक केंद्र बिंदु उसी प्रकार बनी रहो जैसे युवान हुई राजपुत्री पर सब नरेशों की निगाहें टिकी होती है। (सप्तरथी का प्रवास, पृष्ठ-18और19) ” 

यही नहीं, सामने आने वाले हर दृश्य का वह मन ही मन विश्लेषण भी करती है जैसे ट्रेन में मिलने वाले किन्नर, फेरीवाले हाकर, माफ़ियागिरी में फँसे नन्हे बच्चों द्वारा ट्रेन में रिंग के भीतर गुज़रते हुए कसरत करना, अंधों द्वारा इकतारा पर गीत गाना, मंदिरों की चौखट पर चप्पल खो जाने से मन विक्षुब्ध होना, दक्षिण में किसी मनचले द्वारा उनकी गाल पर चिकोटी काटना आदि आडंबरहीन यथार्थ भाव से प्रस्तुत करती है, लेकिन दीन-दुखियों के प्रति उनके मन में दया भाव हमेशा बना रहता है चाहे वे सिल्क साड़ी बेचने वाले बुनकर हो या ट्रेन में दुआएँ देते किन्नरों की बात क्यों न हो। 

“अनेक प्रश्न मेरे दिमाग़ में छोड़ गए किन्नर! जाने क्यों मुझे लगने लगा कि इनका अधूरापन समस्या की जड़ नहीं वरन्‌ आधुनिक प्रगतिशील कहे जाने वाले भारतीय समाज की जड़ता और मानसिक नपुंसकता ही इस सामाजिक विभेद की मूल है। शारीरिक पूर्णता पाकर भी जहाँ स्त्री पुरुष छोटी-छोटी समस्याओं में तनाव ले कर आत्मघात कर लेते हैं, वहीं ये किन्नर अपनी अपूर्णता से हिम्मत नहीं हारते। अपने मन और समाज, दोनों स्तरों पर ताउम्र दोहरी लड़ाई लड़ते हैं। ये उपहास तिरस्कार और अनदेखी के बावजूद न केवल संघर्ष करते हैं अपितु समाज को हास्य, दुआएँ और ख़ुशियाँ बाँटते ही देखे जाते हैं। (सप्तरथी का प्रवास, पृष्ठ-21)” 

इसी तरह वह उनके गाल को छूने वाले दक्षिण के किसी मनचले की हरकत का भी उन्मुक्तता से वर्णन करती है:

“मैंने रुक कर कड़क कर पूछा, “क्या है, क्या चाहिए, शर्म नहीं आती?” वह रुक गया। मैं आगे बढ़ गई पर अचानक वह कट मार कर जाने कैसे मेरे बाएँ हाथ तक पहुँचा और अनायास उसका हाथ मेरे गाल तक पहुँच गया, मैं कुछ समझ नहीं पाई पर क्रोध से थरथरा उठी। इतनी हिम्मत तो इतने वर्षों में किसी छेड़ने वाले कि नहीं हुई, मैंने आव देखा न ताव खींच कर एक तमाचा उसे जड़ दिया और लगभग चीखते हुए बोली, “शर्म नहीं आती, क्या तुम्हारे घर में माँ बहिन नहीं है?” मेरा मन ही नहीं देह भी कोष से थरथरा उठी . . . पैरों में चप्पल जूते होते तो मैं उसकी जम कर धुनाई करती . . . साथ ही चौबीसा जी पर भी बहुत क्रोध आया जो इस तरह मुझे सुनसान, अनजान जगह पर छोड़कर बचकाना व्यवहार कर आगे बढ़ गए और अब कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। मेरा दिमाग़ ग़ुस्से से लगभग अनियंत्रित हो चुका था और मन पूरी तरह ख़राब, आगे क्या घटित हो जाएगा अतः मैं आगे बढ़ी, तभी देव स्वरूप वहाँ पर सुंदरम प्रकट हुआ। (सप्तरथी का प्रवास, पृष्ठ-139)” 

अपने यात्रा-वृतांत को बहुत ज़्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए लेखिका ऐतिहासिक स्थलों के अतीत को कुरेदती हुई वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में उनकी सार्थकता से अवश्य अवगत कराती है, जैसे कि पानीपत के युद्धों के पीछे वहाँ के चौड़े समतली मैदानों, जल की प्रचुरता और उर्वर फ़सलों का होना ही विदेशी आक्रान्ताओं को आकर्षित करते रहे होंगे; तभी तो पानीपत में तीन युद्ध हुए, पहला बाबर और इब्राहीम लोदी के बीच, दूसरा, हेमू और अकबर के बीच और तीसरा, सरदार शिवराम भाऊ और अहमदशाह अब्दाली के बीच। कहीं-कहीं जगहों के वर्तमान नामकरण के बारे में भी स्पष्टीकरण देती है जैसे ‘अहीराणा’ (अहीरों की भूमि) आगे चलकर ‘हरियाणा’ बन गया, कुंती-पुत्र कर्ण से ‘करनाल’, “तमिलकम्’ (तिरूपति पर्वत अर्थात्‌ वेंगाडम और प्रायद्वीप के सबसे दक्षिणी भाग के बीच की भूमि) से तमिल और सीखने यानी शिष्य बनने से ‘सिक्ख’। आगे कहती है कि जब हम शिष्य नहीं बनेंगे तो गुरु की कृपा कैसे हो सकती है? हक़ीक़त यह है कि आज की दुनिया तो केवल गुरु बनना चाहती है, न कि शिष्य। आर्यों के सप्त-सैन्धव वाली यह धरती हमें सच्चे शिष्य बनने का संदेश देती है। जहाँ सरहिंद की धरती गुरु गोविंद सिंह के दूधमुँहे बच्चों को दीवारों में चुने जाने पर आज भी रुदन करती है, वहीं जहाँगीर नूरजहाँ के बचपन की स्मृतियों को आबाद रखने के लिए नूरमहल सराय किल्लोल से गूँज उठता है। 

भारत के पौराणिक भूगोल को तलाशने के लिए वह एक-दो जगह ऋग्वेद का भी सहारा लेती है:

“ऋग्वेद के (मन्त्र 10:75:5 एवं 3:23:4) में वर्णित पंच नद शतुद्री (सतलज), परुशणी (रावी), असिक्नी (चेनाब), वितस्ता, आर्जीकीया, विपाशा (व्यास) एवं सिन्धु के किनारों पर आर्यों के सप्त सैन्धव के निर्माण की कहानी कहते हैं। (सप्तरथी का प्रवास : पृष्ठ-28)” 

वास्को-डी-गामा या कोलंबस की भाँति वह अपने नए-नए प्रांतों की खोज में लगी रहती है, जो कभी स्कूल या कॉलेज में पढ़ा था, उसे देखने की ललक उसके मन में हमेशा बनी रहती है। अगर वास्को-डी-गामा और कोलंबस जैसे जुझारू घुमक्कड़ नहीं होते तो क्या पश्चिमी देशों के आगे बढ़ने का रास्ता खुल पाता? क्या अलग-अलग संस्कृतियों का समन्वय हो पाता? दुनिया में जितने भी बड़े-बड़े धर्मनायक हुए हैं सभी तो घुमक्कड़ थे अर्थात्‌ घूमने से ही तो धर्म की उत्पत्ति होती है। बुद्ध ने तो यहाँ तक कहा था—‘चरण भिक्खावै’ अर्थात्‌ भिक्षुओ घुमक्कड़ी करो। वही यही वजह थी देखते-देखते बुद्ध धर्म पश्चिम में मकदूनिया तथा मिस्र से पूरब में जापान तक, उत्तर में मंगोलिया से लेकर दक्षिण में बाली, जावा और सुमात्रा के देशों तक फैल गया। क्या महावीर जैन घुमक्कड़ राजकुमार नहीं थे? उन्होंने तो घुमक्कड़ी के लिए सर्वोच्च त्याग दिया था। ‘करतल भिक्षा तरुतल वास’—सिद्धांत को अपना लिया था। यहाँ तक कि दिगंबर बन गए, ताकि निर्द्वन्द्व विचरण करने में कोई बाधा न पड़े। शंकराचार्य ने भगवान भरोसे किसी गुफा या कोठरी में बैठकर सिद्धि पाने की लिप्सा का अतिक्रमण कर भारत के चारों कोनों की ख़ाक छान मारी। रामानुज, माधवाचार्य और दूसरे वैष्णवाचार्य भारत में धर्म के नाम पर कूपमंडूकता फैला रहे थे तो उस समय रामानंद और चैतन्य महाप्रभु ने घुमक्कड़ी धर्म का प्रचार किया। ईरान, ईराक़, अफ़ग़ानिस्तान, पता नहीं, कहाँ से कहाँ तक—गुरु नानक भी भटकते रहे। स्वामी दयानंद अपनी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के कारण ही ऋषि दयानंद बने। जगह-जगह शास्त्रों में भाग लेते हुए और अपने अनुभवों को ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखते हुए भारत के अधिकांश भागों का भ्रमण किया। कुमारजीव, गुणावर्मा, दिवाकर, शान्ति रक्षित, दीपंकर श्रीज्ञान शाक्य श्रीभद्र आदि सच में, ये सब प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ थे। अतः मेरा यह मानना है कि घुमक्कड़ी सनातन धर्म है। यही सबसे बड़ा योग है और उन पर संस्मरण लिखना तो उससे भी ज़्यादा संयोग और सौभाग्य की बात है। ये तो थी हिंदू धर्म की बात, अब ईसाई धर्म की चर्चा कर लेते हैं। जैसे ईसा घुमक्कड़ थे, वैसे ही उनके अनुयायी भी। इसी घुमक्कड़ी के कारण ही पूरे विश्व में ईसाई धर्म फैला हुआ है। हमें समझना चाहिए कि हम काल्पनिक स्वर्ग के प्रलोभन में नहीं फँसे, बल्कि चिंता रहित भाव से यथासंभव घूमें। किसी कवि की दो पंक्तियाँ:

“सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल, ज़िंदगानी फिर कहाँ? 
ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ?” 

घुमक्कड़ एक प्रकार का साधु-सन्यासी होता है। वह भी उनकी तरह ‘गृह कारज नाना जंजाला’ के कारण गृहस्थी में फँसना नहीं चाहता है। उसके लिए तो ना तो केवल अपनी जन्मभूमि, वरन् समस्त वसुधा पूज्य होती है। तभी उसकी आत्मा कह उठती है, ‘जन्मभूमि ममपुरी सुहावनि’। 

सवाल उठता है घूमने वाला अपनी आजीविका कैसे कमाएगा? अपना भरण-पोषण कैसे करेगा? क्या उसे अपने घर-परिवार वालों की चिंता नहीं होगी? उत्तर इतना ही होगा जब विश्व का भरण-पोषण करने वाला मौजूद है तो उसे जीवन की क्या चिंता? अर्थात्‌ “का चिंता मम जीवने यदि हरिर्विश्व।”

घुमक्कड़ी से न केवल भूगोल और इतिहास की शिक्षा मिलती है, बल्कि साहित्य, संस्कृति, ज्योतिष, गणित, जादूगरी, अध्यात्म, धर्म आदि सभी विषयों का ज्ञान होने लगता है। दूसरे शब्दों में, घुमक्कड़ी में जो रस हैं वह किसी काव्य-रस से कम नहीं है, असली ब्रह्मरस तो वही है। फाह्यान, स्वोचांग, ईचिंग, मार्कोपोलो आदि ने उस रस का भरपूर आनंद उठाया है। सधुक्कड़ी-फक्कड़ी से वे लोग जीये। मानो कोई कह रहा हो, “ले जा हो शंकर, गाँजा है न कंकर“!

कहते हैं, शेर समूह में नहीं चलते है, वैसे ही घुमक्कड़ भी अपनी जमात बाँधकर नहीं चलते हैं क्योंकि उन्हें अज्ञात परिवेश में प्रवेश कर उनकी भाषा, संस्कृति, संवेदना, भाव-भंगिमा, रीति-रिवाज़, धर्म-कर्म बहुत कुछ सीखना होता है। अपनी जमात में इन सारी उपलब्धियों को पाने के लिए ख़तरों से खेलना ही नहीं पड़ता है, बल्कि कभी-कभी तो जान जोखिम में भी डालनी पड़ती है। बिना संघर्ष के कोई भी लेखन में उस अज्ञात प्रदेश की यथार्थ झलकियाँ उभर कर सामने आ पाएँगी? महात्मा गाँधी कहा करते थे, भारत गाँवों में बसता है। अगर कोई भारत के बारे में जानना चाहते हैं, तो उन्हें महानगरों की नहीं, बल्कि गाँवों का दौरा करना चाहिए। आधुनिक टूर पैकेज के प्रोग्रामों में ऐसा नहीं होता है, आपको वे लोग बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ, नदी, सरोवर, नगरों और महानगरों का दर्शन अवश्य करवा देते हैं, मगर क्या उनकी पिछड़ी जातियों के लोगों का दुख-दर्द अनुभव करने के लिए आपको अपने ग़रीब प्रांतों का परिदर्शन करवाते हैं? अपनी कल्पना से सोच-विचार कर या दूसरे के अनुभवों को सुनकर या किसी यात्रा-संस्मरण को पढ़कर सही चित्रण किया जा सकता है? नहीं, कदापि नहीं। 

चेन्नई को कौन नहीं जानता है? आजकल न केवल देश के प्रमुख व्यापारिक केंद्रों में से एक है, बल्कि बच्चों की शिक्षा की प्रमुख नगरी भी है। यहाँ पर भी सप्तरथी की पुजारिन का प्रवास होता है। जहाँ वह क्रोकोडाइल ब्रीडिंग सेंटर, एग्मोर रेलवे स्टेशन और विशाल समुद्र-तट को निहारती है, मगर उनका इतिहास-बोध उन्हें बार-बार खींच ले जाता है महाबलीपुरम की ओर, जिसे वह माल्लपुरम कहकर अपने अतीत के गौरव को ताज़ा करती है, ताकि पल्लवों की कला का सुंदर पक्ष पाठकों की आँखों के समक्ष उजागर हो सके, जो कभी बाणपुर कहलाता था, जहाँ कभी वामन भगवान ने राजा बलि से पृथ्वी का दान माँगा था और कालांतर में जहाँ महाबली नरसिंह वर्मन ने अपनी उपाधि ‘मोम्मल’ के आधार पर वास्तुकला की द्रविड़-शैली को नया रूप दिया था। 

राम मनोहर लोहिया सही कहते हैं कि राम और कृष्ण ने भारत को एकता के सूत्र में बाँधकर रखा है, युगों-युगों से। अचरज की बात है, पांडवों ने महाबलीपुरम की धरती पर कभी पाँव नहीं रखे, मगर वहाँ का सप्त-पैगोडा उन्हें समर्पित है। नकुल, सहदेव, अर्जुन और द्रौपदी के नाम के रथ बने हुए है। वहाँ कृष्ण का माखनिया लड्डू है, वहाँ भीम का चूल्हा है, वहाँ अर्जुन की तपोमूर्ति है, वहाँ वराह-मंडप है और वहाँ नृसिंह की शौर्यगाथा है। 

महाबलीपुरम के बाद लेखिका का प्रवास होता है रामेश्वर में, जहाँ कभी राम ने श्री लंका युद्ध में जाने से पहले शिवलिंग की स्थापना की थी। जिसे देखकर आपको सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ अवश्य याद आएगी। सुंदर हरित टापू, हिलोरे खाते हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी की उर्मियाँ। वहाँ गंधमादन पर्वत भी है, वह हमारे दिवंगत राष्ट्रपति माननीय एपीजे अब्दुल कलाम की जन्मभूमि भी है, द्वादश ज्योतिर्लिंग भी है, शबरी का क्षेत्र भी है तो सीता की अग्नि-परीक्षा की भूमि भी। यहाँ हनुमान जी की पंचमुखी मंदिर है तो विभीषण-मंदिर भी। यहाँ झाँवा पत्थरों से बनाया गया था रामसेतु (आदिसेतु) भी है, नल और नील द्वारा। आगे आता है धनुष्कोटि, श्रीलंका से 30 किलोमीटर की दूर, जहाँ भगवान राम ने युद्ध के बाद धनुष से बाण छोड़कर से रामसेतु को कोटि-कोटि टुकड़ों में खंडित कर दिया था। वहाँ ‘अग्नितीर्थ’ भी है, जहाँ राम ने समुद्र को अग्निबाण से सुखा दिया था। यही नहीं, भारत के हृदय की धड़कन रहे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम साहब का स्मारक भी है, डीआरडीओ द्वारा निर्मित, जहाँ उनके जीवन की उपलब्धियों को चित्रित किया हुआ है कि किस तरह एक सामान्य बालक ‘अग्नि की उड़ान’ भरते हुए मिसाइलमैन बन जाता है। 

जहाँ द्रविड़ संस्कृति और इतिहास के प्रति के लेखिका का अनुराग इस यात्रा-वृत्तान्त को हिन्दी-भाषियों के लिए अनुपम धरोहर बनाता है, वहीं उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले पति का कथन—इतिहास गड़े मुर्दे उखाड़ने के सिवाय कुछ भी नहीं है—लेखिका के मनोबल को कुछ पलों के लिए अवश्य धराशायी कर देता है। मगर लेखिका इतिहास को सशक्त प्रभावशाली शब्दों में इस तरह प्रस्तुत करती है मानो ऐतिहासिक पात्र स्वयं जीवित होकर पाठकों की आँखों के सामने अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हो। ऐसा लगता है कि उनके यात्रा-वृत्तान्त अद्भुत तिलस्मी उपन्यास में बदलने लगता है। उस समय की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक परिवेश से भानुमति के पिटारे की तरह तत्कालीन साम्राज्य के शासक-शोषकों की कहानियाँ, किंवदंतियाँ एवं लोक-कथाएँ बाहर निकलने लगती है। इंडोलॉजिस्ट होने के कारण वह भारत के अतीत के महासागर में गहरे गोते लगाती है और एक सधे हुए गोताखोर की तरह खोजकर धरातल पर ले आती है कथाओं की मणिमाला, जिसमें पिरोती है अनेक ऐतिहासिक सबूतों का धागा, ताकि पाठक मन से उन तथ्यों को मानते हुए बह जाए एक दूसरे जगत में। दारासुरम् के एरावतेश्वर का अनुपम सौंदर्य, गंगेकोंडचोलपुरम् के चोल-साम्राज्य की उत्कृष्ट कलाकारी, कुंभकोणम् में ब्रह्माजी द्वारा अमृत कलश रखने की परिकल्पना, केले के पत्तों पर तमिल भोजन सुप्पाडु ग्रहण करना और सांगेपाणी के मंदिर में खजुराहो की तरह भरतमुनि के नाट्यशास्त्र और वात्स्यायन के कामशास्त्र की मूर्तियों का उत्कीर्णन, राहुमंदिर का शान्ति पाठ, तंजौर के सरस्वती महल पुस्तकालय की हस्तलिखित पांडुलिपियों के दर्शन, तंजावुर आर्ट गैलरी में प्राचीन मूर्तियों और सिक्कों का संग्रह, मदुरई के कांजीवर की साड़ियाँ, मीनाक्षी मंदिर की वैज्ञानिकता, थिरुमलाई नायक पेलेस, तिरुप्पकुंदम मुरूगन मंदिर, कोड़कनाल की प्राकृतिक पर्वतीय सुषमा, कन्याकुमारी में विवेकानंद रॉक मेमोरियल, मामथुबाजमलाई की पहाड़ियों की औषधियाँ, कन्याकुमारी-मंदिर, गांधी-मंडपम त्रावणकोर साम्राज्य की स्मृतियों में ऐतिहासिक अन्वेषण के साथ-साथ वहाँ के स्थानीय कवियों जैसे तिरुवल्लुवर द्वारा रचित काव्य-ग्रंथ ‘तिरुवकुलर’ के श्लोकों का शोधपूर्ण अध्ययन करना लेखिका के यात्रा-संस्मरण को न केवल सुसमृद्ध बनाते हैं, बल्कि मुझे हिंदी के प्रख्यात रचनाकार अज्ञेय, निराला और धर्मवीर भारती याद दिलाते हैं। मेरा ऐसा मानना है कि हर बड़ा रचनाकार अपने जीवन में यात्रा-संस्मरण आवश्य लिखता है। जो रचनाकार कविताओं और कहानियों के कल्पना-लोक तक सीमित रहते हैं, वे समाज को यथार्थवाद से परिचित नहीं करवा पाते हैं, जबकि संस्मरणकार अपनी यात्राओं में अपनी नज़रों से मानवीय भावनाओं का यथार्थ चित्रण करते हुए वसुधा के वैभव और अप्रतिम सौंदर्य बोध से परिचय कराते हैं। नीता जी के व्यक्तित्व में इकलौता महिला पात्र जीवित नहीं है, उनमें आध्यात्मिक सोच भी है, समाज-सेवा की उत्कृष्टता भी है, दीन-दुखियों के प्रति प्यार है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है, अतीत के गौरव पर इठलाता इतिहास भी है तो भौगोलिक स्थलों का सूक्ष्म अन्वेषण करने वाली यायावरी दृष्टि भी। इतने सारे गुणों को आत्मसात कर नीता जी जब लिखती हैं तो वह लेखन हृदय स्पर्शी, यादगार और कालजयी स्तर के समस्त कसौटियों पर खरी उतरता है। यह सही है वह नारीवादी विचारधारा वाली लेखिका नहीं हैं, मगर संस्कारवादी हैं, फिर भी कहीं-न-कहीं नारीवादिता की झलक अवश्य दिखलाई देती है। 

“कहा जाता है कि यही वह स्थान है, जहाँ सीताजी ने अपना सतीत्व सिद्ध करने के लिए आग में प्रवेश किया था। सीताजी के ऐसा करते ही आग बुझ गई और अग्नि-कुंड से जल उमड़ आया। वही स्थान अब ‘सीताकुंड’ कहलाता है।” उसकी बताई यह कथा सुनकर मैं गहन सोच में पड़ गई। अबाधित विचारने लगी . . . निर्दोष वैदेही की यह परीक्षा उसके सतीत्व की ही नहीं स्त्रीत्व की भी परीक्षा थी। राघव की बन्दगी में आठों याम लीन जनकदुलारी के सन्तप्त मन को यह दग्ध पीड़ाजनक ज्वाला ही रही होगी जो स्व स्फूर्त अगन बनकर भड़की और बिन बहे आँसुओं के सैलाब में ठंडी होकर खारा सागर बन गई होगी या फिर इस परीक्षा से स्वयं लज्जित होकर अग्निदेव ही पानी पानी हो गए। राघव व सीता की इस कहानी के आध्यात्मिक गहन अर्थ सन्दर्भ कुछ अलग ही कथा कहते हैं जिसके अनुसार अगन देव को सौंपी असल सीता को पाने ‘छाया सीता’ को उन्हें सौंपना ज़रूरी था पर लौकिक अर्थों में इस कथा का मर्म यही कहता है कि स्त्रीत्व व सतीत्व हर युग में भारत में अग्नि स्नान ही करता रहा है और राघव यहाँ चाहे अनचाहे मूक ही बना रहा या रहने को बाध्य हुआ है। (सप्तरथी का प्रवास, पृष्ठ-69) ” 

जितना उनका अध्यात्म में विश्वास है, उतना ही विज्ञान में भी। वह भौतिकीय विकास और आध्यात्मिक चेतना के बीच अच्छा-ख़ासा संतुलन बना कर चलती हैं, अन्यथा उनकी क़लम से भाषा के माधुर्य शहद की मधुरिम-बूंदें नहीं टपकतीं। अपने सूक्ष्म-निरीक्षण को साहित्यिक शैली में आबद्ध करना कोई साधारण कार्य नहीं है। विधाता की विशिष्ट अनुकंपा के बिना अखिल विश्व को अपनी अनुभूतियों में समेटना असंभव है। यह कृति इसका उदाहरण है। रामसेतु के बारे में वह लिखती है:

“भू-विज्ञान की एक किताब ‘पेट्रालॉजी ऑफ़ इग्नीशियस रॉक’ के लेखक एफ़.एच. हैच, ए.के. वेल्स ने अपनी पुस्तक में  ऐसे पत्थरों के सम्बन्ध में जानकारी दी है जो पानी पर तैरते हैं। इनकी आंतरिक संरचना एकदम ठोस न होकर अंदर से स्पंज अथवा डबल रोटी जैसे होती है जिसमें बीच-बीच में वायु कोष बने होते हैं। इन वायु प्रकोष्ठों के कारण ये पत्थर वज़न में भारी होने के बाद भी घनत्व के हिसाब से हल्के होते हैं तथा इस कारण ये पत्थर पानी में तैर सकते हैं। पृथ्वी की भीतरी सतह मैग्मा में तापमान हज़ारों डिग्री सेन्टीग्रेड होता है जिसमें चट्टाने पिघली हुई अवस्था में रहती हैं साथ ही इसमें विभिन्न गैसें रहती हैं जब भी ज्वालामुखी खुलते हैं तब उसके मुख से भारी दबाव के साथ गर्म लावा निकलता है जिसमें गर्म गैसें, पिघली हुई चट्टानें बाहर निकलती हैं जो धीरे-धीरे ठंडी होकर ठोस रूप में परिवर्तित होने लगती हैं, जिसमें गैस के बुलबुले बचे रहते हैं। यह वायु के प्रकोष्ठों के रूप में पत्थर में रह जाती हैं। यह विशिष्ट संरचना स्पंज, डबल रोटी की तरह दिखती है। पानी पर तैरने वाला यह प्यूमाइस पत्थर हमारे लिये अचरज का विषय नहीं था। (सप्तरथी का प्रवास, पृष्ठ-71)” 

व्यक्तिगत घर-परिवार से ऊपर उठकर यह ‘वसुधैव-कुटुंबकम’ की भावना को आत्मसात करने लगती है। वह सोचने लगती है, सारा विश्व एक होकर शान्ति पूर्वक रह सकता है। जब ईश्वर एक है, आकाश एक है, धरती एक है, नदियों में बहने वाला पानी एक है, मनुष्यों की रगों में ख़ून एक है तो भौगोलिक सीमाओं के आधार पर, रंगभेद, नस्लभेद के आधार पर मनुष्यों का वर्गीकरण अनुचित है। तमिल धरती पर राजस्थानी मारवाड़ी भोजनालय देखकर उनका मन आह्लादित हो उठता है। हिंदी भाषा के तमिलवासियों द्वारा बोलचाल में प्रयोग करना उन्हें आत्मीयता से भर देता है। धर्म, भाषा, संस्कृति, साहित्य आदि में पारंगम होकर अपने जीवन की सार्थकता खोजने के लिए हमारे देश की देवभूमि के रमणीय पर्यटक, ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा करना ही श्रेष्ठ माध्यम सिद्ध होती है ताकि हम अपनी तर्कशक्ति का प्रयोग करते हुए पौराणिक तथ्यों की परख कर सकें। 

“मेरे समझ में यह ज़रूर आता है कि पुराने वक़्त में महापुरुष अपनी अंतर्दृष्टि से या मन्त्र शक्ति के प्रयोग से जल की खोज कर भूमि तल में मीठे पानी के जल स्रोत अँगूठे को मार से या फिर धनुष की टंकार से प्रायः कर लिया करते थे। मैंने भारत में ऐसे कई स्थल देखे हैं फिर चाहे वह मेरे अपने वागड़ क्षेत्र का भीमकुण्ड हो या द्वारिका का रुक्मिणी मन्दिर या फिर रामेश्वरम का वेलुन्द तीर्थ। यही कहानी सब जगह प्रचलित है। परन्तु मेरी नज़र में यह मंत्र शक्ति न हो कर साधना की सिद्धि व साधकता की पराकाष्ठा ही हो सकती है। मन्त्रवेत्ता की महानता का ज्ञान करवाते ये स्थल सोचने पर बाध्य करते हैं कि शुष्क रेगिस्तान में ऐसे अन्तरदृष्टा मन्त्रवेत्ता मिल जाए तो क‍इयों की जल समस्याओं का निदान हो जाए। मन्त्र तो आज भी वही है बस वैसे अन्तरदृष्ट मन्त्रवेत्ता अब मिलना दुर्लभ है! (सप्तरथी का प्रवास, पृष्ठ-69)” 

अंत में यह कह सकते हैं कि डॉ. नीता चौबीसा का अद्यतन यात्रा-संस्मरण ‘सप्तरथी का प्रवास’ न केवल यायावर लेखकों या पाठकों के लिए अनमोल धरोहर है बल्कि ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की विचारधारा में विश्वास रखने वाले दार्शनिकों तथा विश्व के विभिन्न जातियों इतिहास, भूगोल, संस्कृतियों के शोधार्थियों के लिए भी किसी वरदान से कम नहीं है। वे इस महासागर में गोते लगाकर अपने काम की अमूल्य मोतियों, सीपियों और वैचारिक निधियों को एकत्रित कर समाज के लिए अवदान कर सकते हैं। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास हैं कि यह कृति हिन्दी जगत में अवश्य रंग लाएगी और देश-विदेश की अन्य भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज कराएगी। 

इन्हीं चंद शब्दों के साथ . . . . . . 

दिनेश कुमार माली, 
तालचेर, ओड़िसा

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