पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
पितृहीन

भोजन की कल्पना के बावजूद
पहाड़ी आत्मविश्वास के बावजूद
मैं, सूरज की तरह
मैं, चाँद की तरह
केवल एक मृगतृष्णा हूँ; 
 
एक तरफ़, दूर हमेशा
मैं, अशरीरी, अथाह रसातल
फिर भी वर्तमान
और तुम्हारे विचारों का अतीत
भविष्य के आदर्श, श्मशान
तुम्हारी माँगें, आग्रह, अभिलाषाएँ हो गईं ख़त्म
खो गई मुस्कान
अब और नहीं इंतज़ार
न ही आँसू, 
केवल तैरती उथल-पुथल
मेरे प्रस्थान पर। 
ठीक है, 
तुम गए मुझे भूल
खो दिया मुझे
देकर अभिशाप
शीघ्र वार्धक्य
शीघ्र तेज़ शीत
तुम्हारी अनुपस्थिति और
तुम्हारे दमित भाग्य के साथ
तुम्हारा संघर्ष विराम
खोया घर-संसार, 
मासूमियत रहित
फीकी नज़र, 
व्यतीत सरिता। 
मेरा प्यार, 
मेरा इकलौता प्यार, 
चिरस्थायी परोपकारी का अकेला प्रेम! 
निःस्वार्थ दुर्योधन का अहंकार रहित सिंहासन! 
प्राचीन पिता का क़ीमती क्लोन! 
जब हुआ मेरा मिलन
हो गई बहुत देर
तुम कर दिया था प्रस्थान
बचपन, शौर्य
कर दिए थे परित्याग
 
इच्छा, स्मरण, क्रंदन
तुमने किए हस्ताक्षर
अपनी अस्वीकृति की संधि पर
पितृहीन कर्ण के निष्कासन का आदेश
दिया करने को पितृ-हीन? 
तुम मेरे धनुर्धर, 
हो परम योद्धा! 
आख़िर कैसे नहीं देखा, 
तुम और मैं
काटते, पीटते
कर्तव्यविमुख बच्चों ने
भाइयों को समझा ग़लत
इस रहस्यमय कालातीत प्रभामंडल में
दुनिया के कर्ण कभी बच्चे नहीं होते हैं
वे पहले से ही और हमेशा
रोने के लिए वयोवृद्ध
अवहेलना के लिए युवक
और पृथ्वी के सूर्य
हमेशा के लिए हो गए
पिता विहीन। 

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