प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . . 

15-10-2022

प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . . 

दिनेश कुमार माली (अंक: 215, अक्टूबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

किसी भी बाल साहित्य पर आलोचना-कर्म करना अत्यंत ही कठिन कार्य है, क्योंकि आलोचना-कर्म करते-करते मन-मस्तिष्क बाल-सुलभ कोमल भावों से परे जा चुका होता है। यही वजह है कि हमारे देश में बाल-साहित्य पर काम करने से आलोचक वर्ग कतराता है, परिणामस्वरूप अच्छे-अच्छे बाल साहित्यकार भी नज़र अंदाज़ हो जाते हैं। एक दशक पूर्व मैंने डॉ. विमला भंडारी के समग्र बाल-साहित्य पर आधारित अपनी पहली आलोचना पुस्तक ‘डॉ. विमला भंडारी की रचना धर्मिता’ लिखी थी, उस समय मैंने अपने भीतर इस दुविधा को गहराई से अनुभव किया था और धीरे-धीरे यह दुविधा और गहराने लगी। 

प्रसिद्ध हिन्दी बाल साहित्यकार प्रोफ़ेसर प्रभा पंत की किताबों का मंथन कर उन पर लिखने से पहले कई सवाल मेरी अंतरात्मा उठ खड़े हुए। उदाहरण के तौर पर, ‘बाल-साहित्य’  क्या होता है? क्या साहित्य भी उसी उम्र के अनुसार बाल, किशोर, प्रौढ़ या वृद्ध होता है? साहित्य तो साहित्य होता है, उसका उम्र से क्या लेना-देना? जो सत्य के मार्ग पर ले जाए, वही तो साहित्य है। मगर समाज-शास्त्रियों और साहित्यकारों ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार जाति, धर्म, वर्ण, वर्ग आदि के साहित्य का भी वर्गीकरण कर लिया है। कहीं दलित साहित्य, तो कहीं सवर्ण साहित्य। कोई धार्मिक, तांत्रिक साहित्य तो कोई सामाजिक साहित्य। कहीं नारी-विमर्श तो कहीं कुछ और? ऐसा क्यों हुआ? उहापोह की यह स्थिति हमारे सामने क्यों आई? उदाहरण के तौर पर कोई दो घटक देखते हैं पहला, दलित साहित्य। सवर्णों द्वारा दलितों के बारे में लिखा गया साहित्य इस श्रेणी में आता है? क्या सवर्ण लेखकों का अनुभूति स्तर दलित लेखकों के अनुभूति के स्तर के तुल्य होता है? दूसरा उदाहरण, नारी-विमर्श। क्या नारियों के बारे में लिखा गया साहित्य, ‘नारी विमर्श’  वाले साहित्य को जन्म देते हैं? क्या नारी और पुरुष का संवेदनात्मक ज्ञान, ज्ञानात्मक संवेदना या अनुभूतियाँ समान होती है? क्या बड़े बच्चों द्वारा छोटे बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य या किशोर, व्यस्क एवं प्रौढ़ लेखकों द्वारा छोटे-बच्चों को लक्ष्य बनाकर लिखा गया साहित्य ‘बाल साहित्य’ के अंतर्गत आता है? यहाँ विवाद और विवेचना के बहुत सारे स्तर है। क्या बड़ा व्यक्ति छोटे बच्चे की भाषा को लक्ष्य बनाकर उसके मन-मस्तिष्क में चलने वाली विचार तरंगों का अध्ययन कर सकता है? छोटे बच्चे का मन-मस्तिष्क तो पूरी तरह निर्मल और ख़ाली होता है, उसमें देश-विदेश की किसी भी कठिन से कठिनतम भाषा के शब्दों को भरा जा सकता है। उनके दिमाग़ की संरचना ऐसी होती है कि वे सब-कुछ सहज तरीक़े से सीख जाते हैं। ये सवाल मैं बाल-साहित्यकारों के लिए छोड़कर आगे बढ़ता हूँ। 

बच्चों के कोमल अहसास, अनगिनत अठखेलियाँ, शरारतें, उनकी तुतलाहट, झट से रूठ जाना और तुरंत ही राज़ी हो जाना, हँसने-खेलने-दौड़ने-भागने-नाचने-गाने, आश्चर्यचकित कर देने वाले प्रश्नों की झड़ी लगाने, तरह-तरह के क्रिया-कलापों और क़िस्से-कहानियों से भरी संवदेनाओं के संसार में ले जाने वाला साहित्य बाल-साहित्य है। उसे कोई बच्चा लिखे या बुज़ुर्ग, कहलाता ‘बाल साहित्य’ ही है, क्योंकि इस साहित्य के पाठक, श्रोता, दर्शक-सभी बालक होते हैं। यह दूसरी बात है, कभी-कभी बड़े भी अपने बचपन को याद करने या समय बिताने के लिए बाल-साहित्य का आनंद उठाते हैं, मगर बाल-साहित्य का उद्देश्य यहाँ पर पूर्ण नहीं होता है। बाल-साहित्य बाल-मनोविज्ञान की कई परतों को खोलता है, और बाल-साहित्यकार अपने बचपन के अहसासों को अत्यंत गइराई तक ले जाते हैं। इन्हीं अहसासों के आधार पर बाल-साहित्यकार अपने देश-काल-पात्र के अनुसार बाल मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं को उकेरते हुए अपनी रचनाओं में स्थान देते हैं। यह सृजन पहले भी हो रहा था और आज भी अनवरत जारी है। 

प्रभा पंत जी के बाल-साहित्य के बहाने इस विषय की पूरी परिक्रमा करने का मुझे स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ है। किसी भी बाल-साहित्य पर आलोचनात्मक निबंध लिखना अत्यंत ही जटिल कार्य है, जिसमें बाल-पाठकों के मनोविज्ञान के अध्ययन के साथ-साथ साहित्यिक आलोचना के सिद्धान्तों के अनुरूप उनका विश्लेषण करना ज़्यादा ज़रूरी है। आधुनिक युग में बच्चों की अभिरुचियाँ पूरी तरह से बदल चुकी है, अतः पारंपरिक बाल-साहित्य को भी अपना कलेवर बदलना आवश्यक है। नए-नए विषयों से कथानकों और अंतर्वस्तुओं का चयन कर नई भाषा-शैली में प्रस्तुतीकरण करना ही बाल-साहित्य को अक्षुण्णता की प्रमुख शर्त है। अब हम प्रभा पन्त के बाल साहित्य पर विहंगम दृष्टि डालेंगे। 

 प्रभा पंत की बाल-कविताएँ

प्रभा पन्त प्रसिद्ध बाल साहित्यकार हैं। एम.बी. राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत डॉ. प्रभा पंत विगत तीन दशकों अध्यापनरत हैं तथा अपने निर्देशन में अनेक विद्यार्थियों को पीएच.डी. करवा चुकी हैं। बाल-मनोविज्ञान, बाल-विमर्श, नारी-विमर्श, सामाजिक-विमर्श, लोक-जीवनपरक शोधपत्रों के प्रकाशन के साथ-साथ अनेक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में आपके शोध-पत्र, संस्मरण, जीवनी, आलेख, पुस्तक-समीक्षाएँ, कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित होती रहती हैं। इसके अतिरिक्त, अनेकानेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से आपको नवाजा जा चुका है। आकाशवाणी रामपुर तथा अल्मोड़ा से आपकी फ़िल्म-समीक्षाएँ, पत्रोत्तर, वार्ताएँ, नाटक, कविता-पाठ व कहानियाँ प्रसारित होती रही हैं; आप रंगमंच तथा दूरदर्शन से भी जुड़ी रही हैं। दूरदर्शन लखनऊ से प्रौढ़ शिक्षा पर आधारित फ़िल्म ‘सबक’ में शिक्षिका के रूप में मुख्य भूमिका भी आपने अदा की है। आपकी रचनाओं में कुमाउँनी लोककथाएँ उत्तराखंड की लोककथाएँ, पूर्वजों से सुनी कहानियाँ, उत्तराखण्डी लोककथाएँ, परी हंसवाली (लोक कथा संग्रह); तेरा तुमको अर्पण, मैं (कविता-संग्रह); फाँस, मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ (कहानी संग्रह); हम और हमारा कुमाऊँ; कुमाउँनी लोककथाएँ एवं लोकगाथाएँ वैज्ञानिक अध्ययन; बच्चे मन के सच्चे, तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी, बचपन जीने दो (बाल-कविता संग्रह); माँ सुनाओ कहानी (बाल-कहानी संग्रह) तथा कुमाउँनी साहित्य सुगंधिका उल्लेखनीय हैं। आप लगातार हिंदी एवं कुमाउँनी भाषा में लिख रही हैं। कुमाऊँ की पवित्र भूमि की संवेदनाओं को ग्रहण कर बाल साहित्यकारों की अग्रणी पंक्ति में भी आपने अपना स्थान बनाया। 

एक बार आपसे उदयपुर के पास सलूंबर में, विमला भंडारी की सलिला संस्था द्वारा आयोजित राष्ट्रीय बाल साहित्यकार सम्मेलन में, मुलाक़ात हुई थी और साहित्यिक चर्चा भी। प्रभा पंत एक ऐसा व्यक्तित्त्व, जो प्रोफ़ेसर के रूप में बाल-साहित्य पर शोधकार्य करवाकर उसे दिशा प्रदान करने का प्रयास कर रही हैं, और बाल-साहित्य लेखन एवं उसके प्रसार के माध्यम से बच्चों में पुस्तकें पढ़ने की अभिरुचि जाग्रत करके, बालमन में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का बीजारोपण करने का। उत्तराखंड की साहित्यिक उर्वरा धरती ने आपके भीतर विस्तृत सोच और लेखकीय गुणों को विकसित किया है। उनका यह तर्क अथवा यह दर्शन कहें कि बालक किसी भी देश, प्रांत, समाज या केवल परिवार का ही नहीं, अपितु संपूर्ण मानव जाति की पूँजी होता है। यदि देश के बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होंगे तो राष्ट्र का भविष्य स्वतः सुरक्षित और विकसित होगा जैसे, जब जड़ स्वस्थ होगी तो वृक्ष अपने आप ही मज़बूत हो जाएगा। यही वजह है कि उन्होंने अपनी क़लम बाल-साहित्य पर विशेषकर चलाई। गाँधीवादी सरला बहन जी से प्रभावित और प्रेरित होकर ने अपने बाल साहित्य में बालकों के लिए संस्कार, स्वावलंबन, राष्ट्रप्रेम व्यक्तिगत गुणों के विकास संबंधित विषयों को चुना। प्रसिद्ध बाल साहित्यकार वाटसन का कथन प्रभा पन्त पर खरा उतरता है, “तुम मुझे नवजात शिशु दो; मैं उसे डॉक्टर, वकील, इंजीनियर चोर, जो चाहे बना सकता हूँ।”  प्रभा पंत का कथन है, “यदि आप बच्चों को सृष्टि का अमूल्य उपहार मानकर, या देश की धरोहर मानकर उनका पालन-पोषण करें; बालमन को समझने का प्रयास करें तथा उनके साथ रचनात्मक या क्रियात्मक रूप में अपना गुणात्मक समय व्यतीत करें, तो आप अनुभव करेंगे कि अनजाने ही आपने उन्हें वह सब दे दिया जो अब तक महँगे उपहार भी नहीं दे पाए थे। बच्चे उपदेशों से नहीं हमारे व्यवहार एवं क्रियाकलापों से सीखते हैं; क्योंकि अनुकरण करना मानव की मूल प्रवृत्ति है। अधिकांश मनोवैज्ञानिकों ने माना है कि बौद्धिक विकास वंशक्रम की अपेक्षा परिवेश एवं वातावरण पर अधिक निर्भर करता है।”  

मैंने अपने इस आलोचकीय आलेख हेतु उनकी कविता-संग्रहों में ‘बचपन जीने दो’, ‘तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी’, ‘बच्चे मन के सच्चे’ एवं कहानी-संग्रह ‘माँ सुनाओ कहानी’ को चुना। प्रभा जी के कविता-संग्रह की प्रारम्भिक कविताएँ मुझे बचपन के दिनों की ओर खींची ले जाती है, जब मैं सोचा करता था, आकाश के ऊपर स्वर्ग है और धरती के नीचे पाताल। उस स्वर्ग में देवी-देवता रहते हैं और पाताल में नाग व राक्षस। भले ही, बचपन के इस दृष्टिकोण में वैज्ञानिक तर्क का अभाव था, मगर कल्पना की तीव्र उड़ान भरते घोड़ों को कोई रोक सकता है? वे दिन अभी भी अच्छी तरह याद हैं, जब मन कहता था सृष्टि के कण-कण में ईश्वर है तभी तो नृसिंह अवतार ने खंभा फाड़ कर प्रह्लाद की रक्षा के लिए उसके पिता हिरण्यकशिपु का वध किया था। कितनी डरावनी व लोमहर्षक लगती थी दूरदर्शन पर आने वाली भक्त प्रह्लाद व राजा हरिश्चंद्र की फ़िल्म उन दिनों! बचपन में देखे हुए ये दोनों चरित्र मेरे स्मृति-पटल पर ऐसे छाए हुए हैं कि आज भी सृष्टि के प्रादुर्भाव से संबन्धित सभी तत्त्वों के गवेषणा तथा उसके नियंता के बारे कल्पना अपने आप अध्यात्म की ओर ले जाती है, जहाँ से किसी भी रहस्यमयी प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। सभी अनुत्तरित। जन्म क्यों होता है? मरने के बाद हम कहाँ जाते हैं? भगवान रहता कहाँ है? अन्तरिक्ष का ओर-छोर है भी या नहीं? नाखून क्यों बढ़ते हैं? फूल क्यों खिलते हैं? मन, अन्तःकरण, आत्मा व परमात्मा में क्या फ़र्क़ है? पता नहीं, ऐसे कितने सवाल होंगे जिनका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। शायद वही वजह रही होगी कि अध्यात्म-दर्शन पर आधारित कवयित्री की कविताएँ वैदिक ऋचाओं, गायत्री-मंत्र, स्वस्ति-वाचन, ईश्वरोपासना स्तुति-मंत्र, महामृत्युंजय-मंत्र की तरह एक मेरे अंतस् में एक अलौकिक प्रभाव पैदा करती है, तभी तो सोते समय इन कविताओं को पढ़ने से मेरे चित पर अनोखी शान्ति छाने लगती है और मैं कविताओं के तत्काल प्रभाव से गहरी नींद के आग़ोश में खोता चला जाता हूँ। आख़िरकार ऐसी इन कविताओं में विशेषता क्या है? मैंने यहाँ उनका विश्लेषण करने की चेष्टा की है, आशा करता हूँ कि पाठकों को पसंद आएगी। 
 
1. बचपन जीने दो—प्रभा जी का यह बाल कविता संग्रह जगदंबा पब्लिशिंग कंपनी, नई दिल्ली से सन् 2022 में प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में आपने लिखा है, “बाल्यकाल में बालक-बालिकाओं को कल्पना के पंख लगाकर उन्मुक्त गगन में उड़ने देना चाहिए, ताकि वे अपनी कल्पना को साकार करने के लिए सतत प्रयत्नशील बने रहें। बच्चों को यथार्थ से परिचित कराने से पूर्व हमें यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये, यदि बच्चे को यथार्थ की कठोरभूमि पर नंगे पैर चलाया जाएगा तो वह आहत होगा और इससे उसका काल्पनिक लोक छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाएगा। बच्चे के लिये सत्य भी उस खिलौने की तरह है जो उसका दिल बहलाता है; उसे आहत नहीं करता। मुझे विश्वास है, प्रस्तुत संग्रह ‘बचपन जीने दो’ की कविताएँ पढ़ते-सुनते हुए। बच्चों का मन उनमें निहित सत्य और यथार्थ को उसी तरह ग्रहण करेगा, जैसे मधुमक्खी, तितली, भँवरे आदि कीट-पतंगे पुष्प को आहत किए बिना मकरन्द ग्रहण करते हैं। बच्चों को यह कविताएँ सुनाते हुए बालमन की जो झाँकी आपको दिखाई देगी, वह आपके लिए भी अपने बच्चों के मनोभावों को समझने में सहायक बनेगी।”

यह संकलन प्रकृति के विभिन्न उपादानों को सुंदर तरीक़े से प्रस्तुत करता हुआ पेड़-पौधों, नदी-नालों, पशु-पक्षियों, पर्व-त्यौहार आदि के माध्यम से आधुनिक परिवेश से उनको जोड़ते हुए, अभिव्यक्त करने में एक मनोरम विकास की सृष्टि करता है। प्रोफ़ेसर पन्त की भूमिका का यह कथन पूरी तरह से सही है। हर पृष्ठ पर उकेरी छवियाँ रंगीन है, हिन्दी के फॉण्ट बड़े-बड़े है और पन्नों की गुणवत्ता भी उच्च-स्तरीय है। आधुनिक प्रतिस्पर्धात्मक युग में जहाँ वर्तमान पीढ़ी कम्प्यूटर, इंटरनेट, स्मार्ट मोबाइल फोन पर व्यस्त है, तो ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए बाल-साहित्य की पुस्तकों को अंतर्राष्ट्रीय पुस्तकों से प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। यह सत्य है कि बाल-साहित्य की पुस्तकों के प्रकाशन काफ़ी महँगा होता है और लेखकों को यह सारा ख़र्च अपने स्रोतों से जोड़कर उठाना पड़ता है। अगर सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थानों से उन्हें अनुदान मिलता है तो यह कार्य कुछ सहज हो सकता है। प्रभा पन्त जी का यह संकलन पाँच से आठ साल के बच्चों के लिए लिखा गया है। जिसमें उन्होंने प्रकृति, विज्ञान, सामाजिक पहलुओं, जीव-जन्तुओं तथा अमूर्त विषय की अंतर्वस्तुओं को अपनी बाल-कविताओं का आधार बनाया है। परिवार एवं प्रकृति के प्रति बाल-पाठकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए उन्होंने ‘पेड़’, ‘मैं बताऊँ’, ‘फुर्र से उड़ जाऊँगी’, ‘क्यों, क्या, कैसे’, ‘नाचें-गाएँ’, ‘बोला बंदर’, ‘छुपाना’, ‘आगे बढ़ती जाऊँगी’, ‘सोचता हूँ मैं’, ‘दादी’, ‘अच्छा बच्चा’, ‘कट्टी है तुमसे’, ‘पापा तुम्हारा मुस्कराना’, ‘बड़ा होकर’, ‘संग उनके मुस्काऊँगी’, ‘आँख मिचौनी’, ‘कैसे माँ को पाऊँ’, ‘मैं पैर तुम्हारे दबाऊँगा’, ‘बचपन जीने दो’, ‘पढ़ो-सुनो’, ‘मेरी टोली’ और ‘पृथ्वी दिवस’ जैसी बाईस छोटी कविताएँ सरल और सहज भाषा में लिखी। इन कविताओं में द्वित्व वाले शब्दों की भरमार है जैसे काँव-काँव, चूँ-चूँ, चीं-चीं, म्याऊँ-म्याऊँ, भौं-भौं, टिम-टिम, रुनझुन-रुनझुन आदि। उदाहरण के तौर पर उनकी कविता ‘मैं बताऊँ . .’ की पंक्तियाँ: 

गुटर गूँ, गुटर गूँ गाता कबूतर/तोता टैं-टैं, टैं-टैं करता है
खौं-खौं कर डराता बन्दर/घोड़ा हिन-हिनाता है। 
चूँ-चूँ, चीं-चीं करती चिड़िया/पीउ-पीउ, पपीहा बुलाता है। 
म्याऊँ-म्याऊँ करती बिल्ली/बछड़ा, अम्मा कहता रंभता है। 
काँव-काँव करता है कौवा/कोयल, कुहुकता-गाता है। 
मैं-मैं कर मिमियाती बकरी/भौं-भौं कर, कुत्ता भगाता है। (बचपन जीने दो, पृष्ठ-2) 

इन शब्दों की वजह से भाषा में न केवल माधुर्य आता है, बल्कि ध्वन्यत्माकता के कारण बाल-मस्तिष्क पर अमिट बिंब बन जाते हैं। कहा जाता है कि बचपन के संस्कारों संसार का परिवेश बदल देता है। बच्चों के मन से शुद्ध पर्यावरण हेतु पेड़ों के गुणों के बारे में अवगत कराने, प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से भी जात-पाँत की दीवार को तोड़ने, प्रेरक शब्दावली जैसे, ‘बच्चों को बचपन जीने दो’, लोकोक्ति जैसे ‘उँगली पकड़कर चलना सिखाना’ से परिचित कराने की बीड़ा कवि प्रभा पन्त ने अपने कंधों पर उठाया है, जो पूरी तरह सराहनीय क़दम है। 

उनकी एक कविता ‘पृथ्वी दिवस’ में एक तरफ़ पृथ्वी को सजाने की ओर रुझान, तो दूसरी तरफ़ प्राकृतिक संसाधनों का महत्त्व स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसा लगता है मानो वे दोनों के बीच में तालमेल बैठाना चाहती हैं। बच्चों को समाजोन्मुखी बनाने के लिए उनकी कविताएँ ‘दादी’, ‘पापा’, ‘माँ’, ‘मेरी टोली, ‘बड़ा होकर’ बहु प्रशंसित रही हैं। जीव-जंतुओं को प्रतीक बनाकर उनकी लिखी कविताओं जैसे ‘बोला बंदर’, ‘फुर्र से उड़ जाऊँगी’, ‘मैं बताऊँ’ बच्चों को भाषा की अभिव्यंजना के नज़दीक ले जाती है। उनमें प्रयुक्त मुहावरे/लोकोतियों जैसे ‘आँखें मलना’, ‘फुर्र से उड़ना’, ‘टैं-टैं करना’, ‘मिमियाना’ पर ध्यान आकर्षित किया गया है। उनकी प्रेरक कविता ‘सोचता हूँ मैं’ बच्चों को ईमानदारी का महत्त्व सिखाती है। इस कविता-संग्रह में “छिपी है अग्नि चिंगारी में /बीज में वृक्ष समाहित है”, “आनंद अमृत पीने दो/ बच्चों को बचपन जीने दो” और “पढ़ो-सुनो रामचरित मानस/ बन सकते हो तुम भी राम” जैसे आप्त-वाक्यों द्वारा बच्चों को प्रेरित करने के साथ-साथ अनुशासित और संस्कारित होने का संदेश देने के साथ ही उन्हें उपदेश दिए बिना हल्ला-गुल्ला न करने, स्कूल में देर से नहीं जाने और अपना काम समय पर करने की शिक्षा भी दी गई है। 

2. तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी—इस बाल कविता-संग्रह में दस कविताएँ संकलित है, जिसे प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डॉ. दिविक रमेश ने भूमिका में इसे सुरुचिपूर्ण बाल-कविताओं का महकता-चहकता गुलदस्ता कहा है, “प्रभा पन्त की बाल कविताओं के शिल्प का प्रमुख वैशिष्ट्य प्राय: कथा-कविता के रूप में है। लेकिन कुछ छोटे आकार की इस शिल्प से हटकर भी कविताएँ हैं जैसे मेरा दोस्त, माँ मुझको, मुझको सूरज बनना है आदि। प्रभा पंत की समझ बच्चों को बचपन जीने दो में है, जो उचित ही है। वे चाहती हैं कि उनकी कविताएँ, सुनकर या पढ़कर बिना किसी बोझ के खेल-ही-खेल में बच्चों का शब्दभंडार समृद्ध करें और उनकी सोच को दिशा मिले तथा साथ ही उनमें मानवीय मूल्य विकसित हों। पाठक पाएँगे कि प्रभा पंत ने बालक की बाल सुलभ जिज्ञासाओं, उनकी कल्पना–प्रियता और सहभागिता को जगह-जगह अभिव्यक्ति दी है।”

इस संकलन में भी प्रभा पन्त जी की बाल-कविताओं की पृष्ठभूमि प्रकृति, पर्यावरण, परंपराएँ और संस्कार हैं। ये बच्चों का मनोरंजन करती है और सर्जनशील बनने के लिए मार्ग-दर्शन भी। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि प्रभा पन्त जी ने बच्चों का मनोविज्ञान, उनकी जिज्ञासाओं, आवश्यकताओं, आकांक्षाओं के साथ-साथ चारित्रिक विविधताओं को समझने का भरसक प्रयास किया है, जिसके लिए वे साधुवाद की पात्र है। 

सर्वप्रथम मुझे इस कविता संकलन का शीर्षक ‘तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी’ बहुत अच्छा लगा। एक तरफ़ कहानी, दूसरी तरफ़ दादी का प्यार अर्थात्‌ एक तरफ़ विज्ञान और दूसरी तरफ़ सामाजिक ज्ञान। कवयित्री ने भले ही गहराई तक बच्चों को सोचने के लिए विवश नहीं किया, किन्तु बड़ी सहजता के साथ उनके मन में मानवीय मूल्यों के बीज बो दिए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सभी के साथ मिल-जुलकर समरसता और सामंजस्य के साथ रहना ही हमारा धर्म और जीवन का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है, इस दृष्टिकोण से कवयित्री ने ‘मेरा दोस्त’, ‘माँ बताओ’, ‘मत घबराओ’, ‘मुझको सूरज बनना है’, ‘चोरी करना पाप है’ जैसी कविताएँ लिखीं, ताकि भविष्य में बालक द्वन्द्व-द्वेष से ऊपर उठाकर मानवीय गुणों के साथ काम करना पसंद करेगा। ‘मुझको सूरज बनना है’ कविता की प्रेरक पंक्तियाँ: 

चाँद नहीं बनना है मुझको। यह घटता-बढ़ता रहता है। 
माँ मुझको सूरज बना दो। हर रोज़ उजाला करता है। 
बिना तार के चमचम चमकता। करता है अँधियारा दूर। 
चमक-दमककर हम सबको। देता उजियारा वह भरपूर। (तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी, पृष्ठ-38) 

3. बच्चे मन के सच्चे–यह प्रभा पन्त जी का तीसरा आलोच्य बाल कविता-संग्रह है जिसमें कुल 20 कविताएँ है। इनकी कविताओं से बाल सुलभ जिज्ञासाओं, उनकी सहज प्रश्नाकुलता, मासूम शिकायतें और मस्ती की धर्मिता का जगह-जगह परिचय मिलता है। उनकी कविताओं में कहीं-कहीं स्थानिकता का भी प्रभाव हैं। उनके व्यक्तिगत गुण जैसे विनीत, मृदुभाषी और सरल-सहज स्वभाव उनकी बाल कविताओं में झलकते हैं। प्रभा जी की कविताओं में नैसर्गिक प्रकृति की अनुगूँज के साथ-साथ बाल-शिक्षा पर सूक्ष्मान्वेषी दृष्टि है। इस संकलन में ‘प्रार्थना’, ‘बच्चे’, ‘बोलो टीचर’, ‘डॉक्टर बनूँगी’, ‘यदि होती मैं’, ‘बुद्धिमानी होती अनमोल’, ‘आसमान पर जाऊँगी’, ‘तितली’, ‘मैं स्कूल जाऊँगी’, ‘स्कूल उसे ले जाऊँगा’, ‘शिकायत है हमें’, ‘वर्षा की बूँदें’, ‘बच्चे मन के सच्चे’, ‘आओ गिनती गाएँ हम’, ‘मीठा दूध’, ‘बंदूक मँगा दो’, ‘दादा-दादी’, ‘जगमगाते दीप’, ‘शिक्षक दिवस’ और ‘प्राणायाम’ जैसी कविताओं का सर्जन कर कवयित्री ने बाल पाठकों को संस्कार और शिक्षोन्मुखी बनाया है। बाल-साहित्यकार तो सच में बच्चा ही होता है, उनकी रचना की दुनिया बच्चों के मनोविज्ञान के इर्द-गिर्द होती है। तभी तो कवयित्री स्वयं कभी तितली, कभी मछली बनने की बातें तो कभी वर्षा की बूँदों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करती है तो कभी अपने स्कूली दिनों को ‘बोलो टीचर’, ‘मैं स्कूल जाऊँगी’, ‘स्कूल उसे ले जाऊँगा’, ‘शिक्षक दिवस’ आदि कविताओं में याद करती है। इस संकलन की कविता ‘प्रार्थना’ और ‘प्राणायाम’ मुझे बहुत पसंद आई क्योंकि बचपन से ही ये संस्कार बच्चों के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनिवार्य है। इन कविताओं की कुछ पंक्तियाँ निम्न द्रष्टव्य हैं:

बुद्धि-विवेक के बल से हम। देश को विकसित कर पाएँ। 
मानव को मानव समझें हम। परहित चिंतन नित किया करें। (बच्चे मन के सच्चे, प्रार्थना, पृष्ठ-1) 
तथा:

अनुशासित है जीवन जिसका। मिलता उसको यश-सम्मान। 
काम करें, हम काम करें। प्राण-विद्या पर मान करें। 
प्राण ब्रह्म है, नाद ब्रह्म है। प्रतिदिन प्राणायाम करें। (बच्चे मन के सच्चे, प्राणायाम, पृष्ठ-32) 

4. माँ सुनाओ कहानी—यह प्रभा पन्त जी का बाल-कहानी-संग्रह है। इसमें आठ कहानियों का संकलन है। सवा सौ सालों के दौरान देश में राजनीतिक उठापटक होने के बावजूद भी हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र से लेकर पंडित सोहन लाल द्विवेदी तक ने ढेर सारा बाल साहित्य माँ भारती को दिया है। बाद में लेखकों में निरंकार देव ‘सेवक’, चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’, राष्ट्रबंधु, जयप्रकाश भारती, उद्भ्रांत, विमला भंडारी, प्रभा पंत आदि ऐसे अनेक नाम है-उन्होंने बाल साहित्य के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए। ऐसे भी कहानी आदिकाल से मनुष्य के ज्ञानार्जन एवं मनोरंजन की साधन रही है। कहानीकार प्रभा पन्त जी ने बाल-मनोविज्ञान के अनुसार यथार्थ के धरातल पर बुनी कहानियों को पारिवारिक पृष्ठभूमि में अपने कल्पनाओं के बहुरंगी रंग भर कर सरल, सरस, बोधगम्य शब्दों के शिल्प से ऐसा रोचक रूप प्रदान किया है कि उसे पढ़-सुनकर बालक आलौकिक आनंदानुभूति करता हुआ उसमें अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, विश्वासों, मान्यताओं और आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी छवि के दर्शन करने लगता है। कहानीकार प्रभा पन्त का मानना है कि बालकहानियाँ केवल मनोरंजन का साधनमात्र नहीं, वरन् बच्चे के सोच को दिशा प्रदान करने तथा उसकी प्रतिभा को विकसित में भी सहायक होती हैं। कहानी सुनते समय बच्चा प्रश्न करता है; शब्द और वाक्यों के आधार पर अपने मानस पटल पर चित्र बनाता है; संवाद दोहराता है; पात्रों का अनुकरण करते हुए अभिनय भी करता है। इस तरह कहानी बच्चे की जिज्ञासा, एकाग्रता और कल्पनाशीलता में अभिवृद्धि करती है। कल्पना में यह शक्ति है, जो व्यक्ति को विचारक, वैज्ञानिक तथा आविष्कारक बनाने की सामर्थ्य रखती है। बाल्यकाल में व्यक्ति को कल्पना के पंख लगाकर उन्मुक्त गगन में उड़ने देना चाहिये ताकि बालक-बालिकाएँ अपनी कल्पना को साकार करने के लिए प्रयत्नशील बने रहें, और भविष्य में अपने आविष्कार, खोज तथा रचनात्मकत कौशल से विश्व को गौरवान्वित कर सकें।

इस संकलन की पहली कहानी है ‘मौली’, एक ज़िद्दी लड़की की, जो बार-बार अपना जन्मदिन मनाने के लिए हठ करती रहती है, इस वजह से ग़ुस्से में आकर उसकी माँ उसे पीट भी देती है। यह देखकर उसकी दादी को दुख पहुँचता है और वह अपने अर्जित अनुभवों के आधार पर उस समस्या का स्थायी हल निकालने के लिए बाल मनोविज्ञान का सहारा लेती है। वह मौली के साथ अपने संवाद स्थापित कर उसे अपना ‘बर्थडे’ याद आने तक का अवसर नहीं देती है। इस कहानी का मुख्य उद्देश्य है बाल-सुलभ बातों के माध्यम से बच्चों की कई समस्याओं का समाधान आसानी से किया जा सकता है, न कि उन पर हाथ उठाकर हिंसा के माध्यम से। 
‘निशू का पौधा’ कहानी में बाल सुलभ जिज्ञासा का वर्णन है। निशू को उसकी मम्मी उसे उसके जन्मदिन पर एक पौधे की रखवाली की ज़िम्मेदारी सौंपते हुए कहती है कि इन पौधों में भी जान होती है, वे भोजन करते हैं, साँस लेते हैं, बातें सुनते-समझते हैं हमारी तरह। माँ का यह कथन उसके भीतर जिज्ञासा पैदा करता है इसलिए वह अपनी पढ़ाई छोड़कर बार-बार जाकर अपने पौधों को देखता है कि वह पानी देने के बाद भी मुरझा क्यों रहा है? इस कहानी के माध्यम से प्रभा पन्त जी ने प्रकाश संश्लेषण क्रिया के वैज्ञानिक स्वरूप को सामने रखा है। 

‘बुआ की सीख’ आधुनिक समाज में छोटी-छोटी लड़कियों के साथ हो रहे दुष्कर्मों से बचाने की सीख देने वाली शिक्षाप्रद कहानी है। किसी छोटी बच्ची को चॉकलेट आदि का प्रलोभन देकर कई आवारा लोग उनका अपहरण कर देह व्यापार हेतु बेच तक डालते हैं। इसलिए कहानीकार पंत ने ‘गुड टच, बैड टच’ वाली शिक्षा देने का सार्थक प्रयास किया है। 

‘बिट्टू और भोलू’ कहानी में बच्चों की जन्मजात जिज्ञासा प्रवृत्ति का वर्णन है, साथ ही साथ, गाँव और शहरों के बीच में बढ़ रही खाई को पाटने का भी मनोवैज्ञानिक प्रयास। गाँव कैसे होते हैं? पकवान क्या होते हैं? गाँवों में दिवाली कैसे मनाई जाती है? आदि के उत्तर इस कहानी में बिट्टू भोलू को देती है। 

प्रभा पन्त की ‘रुनझुन’ कहानी बच्चों के परवरिश की तरफ़ बड़ों का ध्यान आकर्षित करती है, जैसे एक माली अपने पेड़ों की हिफ़ाज़त करता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक माँ-बाप को भी अपने बच्चों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उनके मन को पढ़कर हिफ़ाज़त करनी चाहिए। ‘शुभम’ भी रुनझुन की तरह परवरिश पर आधारित कहानी है, जिसमें दादी बातों-बातों में, खेल-खेल में शुभम को अच्छे स्वास्थ्य की टिप्स देती है जैसे दाँत कब और कैसे साफ़ करने हैं? कब-कब हाथ धोने हैं? आदि। 

‘सच्ची मित्रता’ इस संकलन की प्रमुख कहानी है, इसमें दो दोस्तों नमित और कार्तिकेय के माध्यम से कहानीकार यह सलाह देती है कि दोस्त की सहायता उसकी आर्थिक और पारिवारिक परिस्थितियों को देखकर करनी चाहिए, ताकि आपका ग़रीब मित्र उस सहायता से विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए सफलता की ओर अग्रसर हो सकें। इसी उद्देश्य से नामित अपना पारितोषिक अपने ग़रीब मित्र कार्तिकेय को दे देता है। 
अंतिम कहानी ‘दादा का दुलारा’ में ‘जैसा बोओगे, वैसा पाओगे’ की तर्ज़ पर अपने पिता के द्वारा दादा के गले में घंटा बाँधने की युक्ति का पर्दाफ़ाश होने पर वह तय करता है कि भविष्य में वह भी अपने पिता के साथ ऐसा ही करेगा। यह कहानी बच्चों को शिक्षा देती है कि अपने घर वालों द्वारा बुज़ुर्गों के साथ हो रहे ज़ुल्मों को कभी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए, क्योंकि समय परिवर्तनशील है। 

वरिष्ठ बाल-कथाकार संजीव जायसवाल ‘संजय’ भी प्रभा पन्त की कहानियों से काफ़ी प्रभावित हैं, उन्होंने ब्लर्ब भी लिखा भी है, “ये कहानियाँ न केवल बच्चों का मनोरंजन करेंगी बल्कि उनकी जिज्ञासाओं को एक नई उड़ान देकर उनके व्यावहारिक एवं सामान्य ज्ञान में भी वृद्धि करेगी। शैली की सहजता सरलता और विविधता प्रो. प्रभा पंत की बाल कहानियों की सबसे बड़ी विशिष्टता रही है और यही उनकी पुस्तकों की लोकप्रियता का आधार भी है।”  

साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश शासन भोपाल के निदेशक डॉ. विकास दवे के शब्दों में, “प्रभा पन्त बाल मनोविज्ञान की निष्णात विदुषी हैं। आधुनिक युग का बालक जिस परिवेश में रह रहा है, और जिस ढंग से वह सोचता है उसे बहुत बारीक़ी से आकलित करते हुए प्रभा जी अपनी कहानियाँ लिखती हैं। बच्चों की कहानियों का यह संग्रह स्वाभाविक रूप से बालमन को न केवल प्रभावित करेगा, अपितु उन्हें मानवीय जीवन मूल्यों के निकट लाते हुए देश की राष्ट्रीय अस्मिता, सांस्कृतिक अस्मिता और देशज ज्ञान के प्रति बच्चों को आकर्षित करेगा।”  प्रभा पन्त की ये कहानियाँ सरल सहज शैली में लिखी गई है, इनमें बाल संवेदनाओं की गहरी पकड़ है। इस संग्रह की सभी कहानियों में प्रभा ने जीवन्त पात्रों को सिर्फ़ दूर से देखा नहीं, निकट से परखा भी है, जिसका सुखद परिणाम यह है कि इन कहानियों में अनुभव एवं अनुभूतियों की प्रामाणिकता है। 

प्रभा पन्त जी के सभी उपर्युक्त अवदानों पर दृष्टिपात करने से यह सिद्ध हो जाता है कि वे केवल प्रसिद्ध बाल-साहित्यकार ही नहीं है, बल्कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने के साथ-साथ कहानीकार, कवि, निबंधकार, संपादक, साहित्यिक संस्थानों से संपृक्त, नव लेखकों की प्रोत्साहक भी हैं। हिन्दी भाषा के प्रति उनके मन में असीम श्रद्धा और प्रेम होने के कारण अनवरत हिन्दी बाल-साहित्य और किशोर साहित्य के उन्नयन हेतु कटिबद्ध है। उनका समग्र साहित्य हिन्दी जगत में विशिष्ट स्थान बनाएगा। ईश्वर से यही कामना है कि उन्हें दीघार्यु बनाए, ताकि सुकोमल बाल-साहित्य का हिन्दी जगत में प्रचार-प्रसार हो सके। अंत में, फिर एक बार उन्हें बहुत-बहुत बधाई और अशेष अनंत शुभकामनाएँ। 

6 टिप्पणियाँ

  • 21 Oct, 2022 05:12 PM

    डॉ. प्रभा पंत Ma'am का बाल साहित्य बच्चों में संस्कार स्थापित करने और उनमें नैतिकता के बीज बोने में सहायक हैं साथ ही बच्चो के मनोभाव को समझने में बड़ो को भी सहायता देता हैं। जैसे 'मौली' कहानी में एक ज़िद्दी बच्ची को कितने प्यार से समझाया जा सकता हैं यह सीखा जा सकता हैं। ऐसे ही उनकी बाल-कविताओं के माध्यम से बच्चे आंनद और शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।

  • डा.पंत का यह कथन कि बच्चे लेख की अपेक्षा बडों के आचरण से अधिक सीखते हैं, बहुत ही महत्वपूर्ण है।आज नैतिकता की शिक्षा का पाठयक्रम आया है फिर भी बच्चे नैतिकता से दूर हैं जब कि पहले ऐसा नहीं था। मैं डा. पंत के विद्धवत्ता एवं सहृदयता से तो बहुत दिनों से परिचित हूँ।आज डॉ.पंत की लंबी साहित्यिक यात्रा के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त हुई बहुत बहुत धन्यवाद।

  • बच्चे लेख की अपेक्षा हमारे आचरण से ही सीखते हैं, डा. पंत की बात महत्वपूर्ण है।इसके चलते समाज को भी सही दिशा मे चलने की बाध्यता होगी

  • 14 Oct, 2022 06:14 PM

    प्रो॰ प्रभा पंत मैम की बाल कहानियाँ बच्चों के मनोविज्ञानिक चेष्टाओं को व्यक्त करतीं हैं। बच्चों के मन में उठने वाली उत्सुकताएँ कहानीयों से आसानी से समझीं जा सकतीं हैं। अभिभावक जब उनकी कहानियों को पढ़कर अपने बच्चों को सुनायेंगे तो ऐसे प्रतीत होगा की जैसे बच्चों से ही वार्तालाप की जा रही है, आसान भाषा के साथ नैतिक मूल्य के पाठ कहानियों के माध्यम से बच्चों को समझाए जा सकते हैं।

  • 14 Oct, 2022 03:00 PM

    प्रभा जी एक समर्पित साहित्यकार हैं। उनके साहित्य कर्म की पड़ताल कर अपने महत्वपूर्ण कार्य किया है । उनके साथ साथ आपको भी बहुत बधाई।

  • 12 Oct, 2022 12:28 PM

    बहुत खूब

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