पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
शरद ऋतु में सितंबर

 

पता नहीं, 
क्यों लुभाती है मुझे पराजय? 
क्यों याद आते हैं मुझे मेरे पूर्वज, दुर्योधन, कर्ण? 
मैं भी ऐसे ही जिया और मर गया, 
फिर तुम मुझे क्यों पकड़ते हो? 
मैं हूँ हस्तिनापुर के मेले में, 
आहत और जल्द निर्णय ने मुझे बनाया विनीत, 
क्यों नहीं मुझे बनाया सशक्त? 
 
मेरे प्रियतम, 
तुम साक्षी हो सहस्र समर
वर्तमान में अतीत और भविष्य की अधर
जीवित प्राणी है अनजान, 
क्षण-भंगुर, क्षुद्र अहंकार, अभिमान। 
 
क्या है जीवन की परिभाषा
नीरस निराशा, या विवेकपूर्ण जीने की अभिलाषा? 
मैं अवश्य ज़िद्दी हूँ और चतुर सत्य-सुदामा, 
चाहे कितने भी दुश्मन करें मुक़द्दमा
 
सापेक्षवाद पर आधारित विजय
हो तुम्हारा विकास या पतन
मैंने सँभालकर रखी पराजय
उदात्त, निरा, निर्भय
मैं प्रकृति, मैं स्थिति
कौरव गौरव या मेरा वर्तमान पुरुषत्व
 
पराजय परम-सौन्दर्य सूत्रित
अलौकिक, अकेला और अवलंबित
फिर भी चाहता हूँ पराजय
कलात्मक हवाई महल अजेय

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