पतझड़ और बसंत

01-03-2022

पतझड़ और बसंत

राजेश ’ललित’ (अंक: 200, मार्च प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

पतों को, 
झड़ जाने दो; 
इनका चक्र, 
जीवन पूर्ण हुआ; 
तुमने जी लिया, 
जितना जीना था। 
 
नवजीवन को आने दो, 
नव पात आने दो, 
हरियाली छा जीने दो। 
बसंत आया है; 
बहार ज़रा नयी है, 
इसको खिलने का, 
अवसर दो। 
 
फागुन है, 
रंग पावन हैं, 
कण कण में, 
बिखर जाने दो; 
ज़रूरी नहीं, 
इंद्रधनुष वर्षा में हो; 
प्रकृति को रूप, 
अपना दिखाने दो। 
 
खिले हैं फूल, 
रंग बिरंगे, 
वहाँ यहाँ, 
जीवन है क्षणभंगुर; 
समझने दो, 
समझाने दो, 
सुबह खिले, 
दिन भर, 
हिले डुले, 
थोड़ा इन्हें, 
मुस्कुराने दो। 
झड़ जाना है; 
रात होने तक, 
कल कोई जन्म; 
नवांकुर लेगा, 
उपवन खिलेगा, 
महकेगा, 
चक्र जीवन का; 
चलता रहेगा, 
पतझड़ है तो, 
नवपात भी होगा।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

चिन्तन
कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
सांस्कृतिक आलेख
कविता - क्षणिका
स्मृति लेख
बाल साहित्य कविता
सामाजिक आलेख
कविता - हाइकु
लघुकथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में