सगुन-अगुन का भेद

01-05-2024

सगुन-अगुन का भेद

राजेश ’ललित’ (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

सगुनहि अगुनहि नहीं बहू भेदा।

गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा। 

(राम चरित मानस) 

देवता और देवी को प्रत्यक्ष मूर्ति के रूप में देखना और उनके दर्शन (philosophy) को स्वीकार करना अद्भुत है परन्तु उतना ही ईश्वर के निराकार रूप का दर्शन (philosophy) भी अद्भुत है। 

इनका अंतर तो मुनि, तपस्वी, ऋषि, बौद्धिक जन और वेदों का गहन अध्ययन करके ही कर सकते हैं। 

यदि आप किसी देवता और देवी को साक्षात्‌ रूप में देखना चाहते हैं तो उसके लिए तपस्वी बनना होगा। और निराकार का ज्ञान चाहते हैं तो अध्यात्म का गहन ज्ञान चाहिए; इसके लिए वेद; उपनिषद् और पुराणों को पढ़िए। तब निराकार और साकार ईश्वरीय दर्शन स्पष्ट होगा। 

विवेचना: राजेश'ललित'शर्मा

 

अगुन अरूप अलख अज जोई।

भगत प्रेम बस सगुन सो होई। 

 (राम चरित मानस) 

जिसका कोई रूप नहीं है; वह अलक्षित है; वह इन चीन्हा है; जिसे न सुलाया जा सकता है और न ही जगाया जा सकता है ‌; उसको केवल नाम से पुकारा जा सकता है (जो भी आपको अच्छा लगे) उसे ही अद्वैत, अगुन और निराकार कहते हैं। 

जो भक्ति और भक्त के वश और रस से सराबोर हो जाये और जो उसके नाम रस में डूब जाये और संपूर्ण रूप से समर्पित रहे तो ईश्वर को साकार रूप में भी पाया जा सकता है। उसके दर्शन सम्भव हैं। 

विवेचना: राजेश'ललित'शर्मा 

 

गुन रहित सगुन सोई कैसे।

जलु हिम उपल बिलग नहीं जैसे। 

(राम चरित मानस) 

जिसको गुणों का ज्ञान नहीं है; वह सगुण अर्थात्‌ साकार रूप को कैसे पहचान सकता है। जिस प्रकार जल को हिम कणों से अलग नहीं कर सकते उसी प्रकार सच्चे भक्त को भगवान की भक्ति से अलग नहीं कर सकते। 
इसको सरल शब्दों में समझने का प्रयास करें। यदि कोई व्यक्ति हमारे सामने बैठे हैं तो वह साकार रूप में है और यदि वह हमारे सामने नहीं है और कहीं चला गया है तो हम उसके बारे में बात करते हैं तो वह चाहे हमारे सामने नहीं है लेकिन हम उसे जानते हैं तों उसके निराकार रूप में बात करते हैं। उसी व्यक्ति को हम चाहे निराकार रूप में बात कर रहे हैं; परन्तु वह साकार रूप में किसी और जगह उपस्थित अवश्य है तो हम दोनों को अलग-अलग नहीं कर सकते। 

विवेचना: राजेश'ललित'शर्मा

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