मकान

राजेश ’ललित’ (अंक: 237, सितम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

हाँ, अब यह
मकान भर रह
गया है
पहले यह घर था
कुछ लोग थे
सब मिल कर परिवार था
हँसी थी
ख़ुशी थी
ठिठोली थी
अठखेली थी
झगड़े थे
लड़ाई थी
जीव थे
सब जीवंत था
 
वक़्त ने अँगड़ाई ली
ऊँची एक हिलोर उठी
दीवारें घर की 
डोल उठीं 
ज़र्रा ज़र्रा
बोल उठा
या ख़ुदा
ये क्या कर दिया? 
 
जो होना था
वो हो गया
जितना हँसना था
वो हँस लिया
जो रोना था
वो रो लिया
जो घर था
सब उजड़ गया
ईंट ईंट कर
बिखर गया
 
घर चाहे यह
बिखर गया
चार दीवारें खड़ी रहीं
ईंट ईंट कुछ
कह रही
आदमजात 
कहीं नहीं
हाँ, जीव‌ जगत
है बसा हुआ
कहीं मकड़ी के
जाले हैं
कहीं काकरोच
डेरा डाले हैं
कभी बिल्ली की म्याऊँ है
कभी कुत्ता
भाऊँ भाऊँ है
 
बस यूँ ही
दुनिया चल रही
कहीं लुटती
कहीं उजड़ रही
कहीं बस रही
वैसे तो कोई बात नहीं
बेवजह ही जब
कुछ होता है
धरती रोती
अंबर भी रोता है
 
हाँ भ‍इया
घर यही है
अब मकान रह गया है
इन्सान नहीं
जीवों का डेरा हो गया है। 

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