एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
सिसकी, ठहाका और नज़्म 

 

मैं अपने पैरों तले जन्नत निकालकर 
खुशी से तुम्हें सौंपने के लिये तैयार हूँ 
अपने पैरों में पहनी 
गृहणी और ममता की ज़ंजीर को 
फ़क़त थोड़ा ढीला कर रही हूँ 
मैं ज़्यादा दूर नहीं जाऊँगी 
खुद से मिलने जा रही हूँ 
एक ठहाका लगाकर, सिसक कर 
या एक नज़्म लिखकर और आऊँगी 
मैं आज़ाद औरत हूँ पर...! 
अगर मेरे बच्चों के बालों में लीखें पड़ जायें 
गर्दन पर पसीने से मिली मैल नज़र आए 
मेरे खाने में मसाले की तरतीब गड़बड़ हो जाय 
बच्चों के होमवर्क वाली कॉपी पर 
छवज कवदम लिखा आ जाय 
मैं घर आए मेहमानों का स्वागत करते हुए 
एक प्याली चाय भी न पिला सकूँ 
ऑफिस से लौटे, थके मांदे पति से 
हाल भी न पूछूँ 
सिसकियों में जकड़ी सांसें, हँसी से फटी हुई आँखें 
नज़्म अधूरा ख्वाब लगती है 
खुदा ने प्रतिभा अता करते हुए, इमाम बनाते हुए 
पूरी कलंदरी बख़्श्ते हुए 
मुझपर एतबार न किया था 
बाक़ी कौम को बेहतरीन नस्ल देने की 
ज़िम्मेदारी मेरी है                 
उन आला मनसूबों पर काम करते 
मैं थक भी तो सकती हूँ 
मेरी इक़्तिफाक़ी छुट्टी मंज़ूर हो चुकी है 
मैं जा रही हूँ 
एक सिसकी, एक ठहाका लगाने 
और नज़्म लिखने 
छुट्टी नैतिकता के तौर मंजूर हो जाने के बाद भी 
घर की हर इक चीज़ को मुझसे शिकायत क्यों है 
बच्चों के चेहरों पर गुस्सा देखकर सोचती हूँ कि 
ठहाका अय्याशी, सिसकी आशा 
और नज़्म मेरे पावों में चुभा शीशा है 
मेरी माँ कहती है कि 
‘तुम मुझसे बेहतर माँ नहीं हो’ 
मेरी बेटी मेरे हाथों से क़लम छीनकर कहती है 
‘फ्रेंच फ्राइज बनाकर दो’ 
मैं सोचती हूँ कि मेरी बेटी को भी जब 
एक ठहाका, सिसकी, नज़्म या तस्वीर बनाने के लिये 
अपनी ज़िन्दगी की तिजोरी से 
कुछ पलों की दरकार होगी 
तो मैं उसे क्या सलाह दूँगी? 
ठहाका बचपन की कोई बिछड़ी सखी 
सिसकी, हाथों से उड़ा हुआ परिन्दा 
और नज़्म गुनाह है! 

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