एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
समंदर का दूसरा किनारा 

तुम इन्सान के रूप में मर्द 
मैं इन्सान के रूप में औरत 
‘इन्सान’ अक्षर तो एक है 
मगर अर्थ तुमने कितने दे डाले 
मेरे जिस्म की अलग पहचान के जुर्म में 
एक इन्सान का नाम छीनकर 
और कितने नाम दे डाले 
मैं बीवी हूँ, मैं वेश्या हूँ, महबूबा हूँ, रखैल हूँ 
तुम्हारे लिये हर रूप में एक नया राज़ हूँ 
तुम जिस कोण से भी देखोगे 
तुम्हें उसी स्वरूप में नज़र आऊँगी 
गिद्ध की नज़र से देखोगे तो 
गोश्त का ढेर हूँ 
मेटरनिटी होम की बिल्ली की नज़र से देखोगे तो 
ख़ून का तालाब हूँ 
बच्चे की तरह खिलौना तोड़कर देखोगे तो 
मेरे भीतर कुछ भी नहीं हूँ 
जिस्म के पेचीदगी से सफश्र करते 
तुम लज़्ज़त की जिस मंजिल तक पहुँचते हो 
वहीं से मेरे राज़ की शुरुआत होती है 
तुम डुबकी लगाने से समन्दर के दूसरे किनारे को 
छू नहीं सकते 
अगर समझ सको तो राज हूँ 
जज़्ब करो तो कतरा हूँ 
महसूस कर सको तो प्यार हूँ! 

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