मज़हब की तेज़ छुरी से
क़ानून का वध करने वालो
तुम्हारा कसाई वाला चलन
अदालत की कुर्सी पर बैठे लोग
तुम्हारी तराज़ू के पलड़ों में खोट है
तुम्हारे समूरे बाट खोटे हैं
तुम जो हमेशा मज़हब के अंधे घोड़े पर सवार
फ़तह का परचम फहराते रहते हो
क्या समझते हो? औरत भी कोई रिसायत है
मैं ऐसे किसी भी ख़ुदा, किसी भी किताब
किसी भी अदालत, किसी भी तलवार को नहीं मानती
जो आपसी मतभेद की दुश्मनी में
छुरी की तरह मेरी पीठ में घोंप दी गई है
क़ानून की किताबें रटकर डिग्री की उपाधि सजाने वाले
मेरे वारिस भी तो तुम जैसी मिट्टी के गूँथे हुए हैं
किसी को रखैल बना लें, रस्म के नाम पर ऊँटनी बना लें
ग़ैरत के नाम पर ‘कारी’ करके मार दें
किसी को दूसरी, तीसरी और चौथी बीवी बनाएँ
तुम्हारी तराज़ू के पलड़े में मैं चुप रहूँ
ख़ला में झूलती रहूँ
एक पलड़े में तुम्हारे हाथों ठोकी रीतियों, मज़हब
जिन्सी मतभेद के रंगीन बाट डाले हैं
दूसरे पलड़े में मेरे जिस्म के साथ तुम्हें साइन्सी हक़ीक़तें
मेरी तालीम और शऊर के बाट इस्तेमाल करने होंगे
तुम्हें अपने फ़ैसले बदलने होंगे!
विषय सूची
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- कविता चीख़ तो सकती है
- आईने के सामने एक थका हुआ सच
- अपनी बेटी के नाम
- सफ़र
- ख़ामोशी का शोर
- एक पल का मातम
- सच की तलाश में
- लम्हे की परवाज़
- एक थका हुआ सच
- सपने से सच तक
- तन्हाई का बोझ
- समंदर का दूसरा किनारा
- जज़्बात का क़त्ल
- शोकेस में पड़ा खिलौना
- रिश्ते क्या हैं, जानती हूँ
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-
- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
- अनूदित कविता
- पुस्तक चर्चा
- बाल साहित्य कविता
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