एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
लम्हे की परवाज़ 

मैं तन्हाइयों की मुसाफिर 
असुवर शिकंजों का मोहरा 
जलते सूरज तले 
तपती रेत पर चलने की आदी 
मैं सदियों से सहरा से परीचित हूँ 
और जानती हूँ 
यहाँ छाँव का वजूद नहीं होता 
पर मैं यह धोखा कैसे खा बैठी 
एक पल मैं कहाँ आ पहुँची 
यह हक़ीक़त है या ख़्यालों की जन्नत 
बादल बयाबान में बरस रहे हैं 
सहरा में दरिया उमड़ पड़ा है 
जलती आग में फूल खिल उठे हैं 
वीराने में सुर खनक उठे हैं 
किसने वजूद को सलीब से उतारा है 
आँखों में सपने सृजन होने लगे हैं 
भीतर की प्यास कैसे सैराब हो गई 
कैसे जाम लबों तक आ पहुँचे 
आग बदन को जलाती क्यों नहीं? 
यह कौतुक किस तरह होने लगे 
एक पल ने मुझे कहाँ पहुँचाया है 
यह हक़ीक़त है या ख़्यालों की जन्नत 
इतनी तेज़ उड़ान तो हवा भरती है 
या फिर ख़्वाब...! 

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