एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
शराफ़त के पुल 

मैं सारा जीवन 
औरों की बनाई शराफ़त के पुल 
पर चली हूँ 
पिता की पगड़ी, भाई की टोपी की ख़ातिर 
मैंने हर इक साँस उनकी मर्ज़ी से ली है 
जब बागडोर मेरे शौहर के हाथ में दी गई 
तब मैं चाबी वाले खिलौने की तरह 
उसके इशारे पर हँसी और रोई हूँ 
बचपन में, जिन-भूतों से डरा करती थी 
अब तलाक़ से डरती हूँ 
इज़्ज़त और शराफ़त की मर्यादा को 
मैंने लिबास समझ कर ओढ़ा है 
जब वह तलाक़ का नाम लेकर डराता है, तो 
ख़ुद को मायूसी के कफ़न में लिपटा हुआ पाती हूँ 
अब्बा ने दहेज़ में मुझे क़ीमती ज़ेवर दिया था 
सौत की तरह उसका हर लफ़्ज़ 
हृदय पर मूँग दलता है 
मेरे ज़हन का गला घोंटकर, जज़्बों के ख़ून में से 
क़लम डुबाकर भरोसे को गढ़ा गया है 
मेरे इन्सान होने, या न होने की बहस पर 
आधा इन्सान जानते हुए, कानून लिखा गया है 
मेरी सोचों, ख़्वाहिशों, जज़्बों और उमंगों की 
खोपड़ियों से, समाज की तामीर की गई है। 

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