एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
ज़ात का अंश

शहर की रौनक़ें रास न आईं 
महफ़िलों ने मन में आग भड़काई 
दोस्तों की दिलबरी परख ली 
दोस्त और दुश्मन का चेहरा एक ही नज़र आया 
शहर छोड़कर मैंने सहरा बसाया 
पर वहाँ भी सभी मेरे साथ आए 
यादों के काफ़िले बनकर मेरे पीछे आए 
शहर की तरह सहरा भी मेरा न रहा 
मैंने दोनों बाँहें खोल दीं 
आओ दोस्तो! मेरे अंदर जज़्ब हो जाओ 
मेरे जिस्म की नसें 
तुम्हारे पैरों से लिपटी हुई हैं 
मैंने क़ुदरत के क़ानून पर संतुष्टि की है 
मैं समन्दर बन गई 
हर दरिया आख़िर मुझमें ही आकर समा जाता है 
मैं मरकब की हैसियत से वसीह हूँ पर 
मुझे अपनी ज़ात के अंश की तलाश है 
जानती हूँ कि वह इक क़तरा होगा 
एक पल में ही हवा में सूख जायेगा 
मैं एक पल के लिये ही सही 
उसे देखना चाहती हूँ 
फिर चाहे वह हमेशा के लिये फ़ना हो जाये 
मुझे अपनी ज़ात के अंश की तलाश है

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