एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
नया समाज 

मेरे पिटारे में खोटा सिक्का डालते हुए 
टेड़ी आँख से क्या देखते हो? 
मुहब्बत और भूख, दोनों अंधी होती हैं 
उनकी डोर तुम्हारे हाथ में है 
जैसे चाहो, अपनी उंगली पर नचा सकते हो 
मेरी ज़रूरत तुम्हारे पास गिरवी है 
सो चाहो तो बबूल की झाड़ी भी खिला सकते हो 
बूँद-बूँद ज़हर तमाम उम्र मुझे पिला सकते हो 
मुट्ठी भर मुहब्बत एक बार देकर 
बाद में ऊँट की तरह कितना भी सफ़र करा सकते हो 
नज़रें मिलाते हुए कतराते क्यों हो? 
‘दुख’ और ‘इन्तज़ार’ दोनों गहरे होते हैं 
और उनकी नब्ज़ तुम्हारे हाथ में है 
इसलिये जितना चाहो इलाज में विलम्ब कर सकते हो 
चुपचाप नज़रें झुकाकर तुम्हारे पीछे चलती 
दुल्हन की बागडोर तुम्हारे बस में है 
जहाँ चाहो मोड़ सकते हो। 
बेजान मूर्ति की तरह तेरे शोकेस की ज़ीनत बनूँ 
मेरे हिस्से का जीवन भी तुम गुज़ारते हो 
रोजश् उभरता सूरज मुझे आस बंधाता है 
हमेशा ऐसे होने वाला नहीं 
आँखों में आँखें डालकर आख़िर तो पूछूँगी 
कि ‘मुझे इस तरह क्यों घसीट रहे हो?’ 
इससे पहले कि मेरी हिम्मत भीतर से नफ़रत बनकर फूटे 
आओ तो मिलकर ये समूरे फासले जड़ों से उखाड़ फेंकें 
बराबरी की बुनियाद पर नए समाज के बूटे बोयें!

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