एक थका हुआ सच

महिलाओं के सशक्तीकरण के लिये हम साहित्य की कौन-सी मशाल लेकर चलें ताकि मानवता अंधेरे से उजाले में आ जाए? 

देश की प्रगति में महिलाओं की उतनी ही भागीदारी है जितनी पुरुषों की। स्वतंत्रता के बाद महिला राजनैतिक, सामाजिक, शिक्षण व रोजगार के हर क्षेत्र में तेज़ी से भागीदारी ले रही है। यह नारी विमर्ष का असर है या नारी जागरूकता का, तय कर पाना मुश्किल है, पर एक बात निश्चित है कि शिक्षा की रोशनी में नारी अपने आपको जानने, पहचानने लगी है। शक्ति प्रतिभा एवं समान अधिकार उसका जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे पाने के लिये उसका हर क़दम अब आगे और आगे बढ़ रहा है। 

कल और आज की नारी में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। आज नारी अपनी सोच को ज़बान देने में कामयाब होती जा रही है, अपने भले-बुरे की पहचान रखते हुए अपनी सुरक्षा, आत्मनिर्भरता व प्रगति की हर दिशा में अपना अधिकार पाने की राहें तलाश रही है। 

माना कि औरत का असली स्थान घर में है, पर उसकी परीधियों की पहचान दीवारें तय नहीं कर पातीं। ईश्वरीय प्रतिभा एक फलाँग में सदियाँ लाँघ जाती है और जहाँ मुल्कों की सरहदें नहीं होतीं औरत वहीं अपने वजूद की खुशबू हवाओं में बिखेर देती है यह कहते हुए : 

मैं तुमसे ज़हीन हूँ 
मैं अदब की अल्ट्रा साउंड मशीन हूँ 
तुम्हारे भीतर का आदमी मुझसे छिपा नहीं है। 

आँखों से आँखें मिलाकर कहने की तौफ़ीक रखने वाली यह बाग़ी शायरा अतिया दाऊद, इन्सानी ज़हन की नाआसूदगी से होकर उभरती तंग दिली और औरत की मौजूदगी को रद्द करने वाली हर सम्भावना से बगशवत करते हुए अपने आसपास की गिरफ्ष्त से युद्ध को आज़ाद कराने की छटपटाहट में, हर उस नाजायज़ नज़रिये को रद्द करते हुए तेज़ाबी तेवरों में अपनी महसूस की हुई, जी हुई, भोगी हुई जिन्दगी की सोच को अभिव्यक्त करते हुए कहती है."नज़रिये सब नज़र का फरेब है और आखिर में वे सब बयाबान में भटक जाते हैं : 

और फिर— 

अंधेरे के गर्भ से रोशनी का जन्म हुआ! एक सच, नंगा सच सामने आता है सिन्ध की सुपुत्री की जबानी जो समाज की कुरुप व्यवस्था का जिया हुआ सच सामने रखती है—
दुनिया में आँख खोली तो मुझे बताया गया 
समाज जंगल है, घर एक पनाह है 
मर्द उसका मालिक और औरत उनकी किरायेदार 
भाड़ा वह वफ़ा की सूरत में अदा करती है! (क : 6) 

औरत का परिचय खुद से भी शायद अधूरा है। कहीं न कहीं, किसी न किसी मोड़ पर उसे खुद से जोड़ती हुई कोई कड़ी मिल जाती है जो उसकी पहचान के विस्तार को वमीह करती है। अतिया दाऊद के सिन्धी काव्य संग्रह ‘अणपूरी चादर’ की प्रति जब मुझे श्री नंद जवेरी के घर पर हासिल हुई, तो मैं अपने पढ़ने की लालसा का मोह भंग न कर पाई। घर आकर जब पढ़ने की पहल की, तो शेख़ अयाज़ के पुरो वाक्य सामने थे.‘अतिया दाऊद के काव्य पर उर्दू शायरा सारा शगुफ्ता की सोच का असर दिखाई देता है।’ यह सच है, मैंने भी उनकी पुस्तक ‘आँखें’ एक नहीं, कई बार पढ़ी है और हर बार अपने अन्दर एक धधकते हुए सच का ऐलान सुनती हूँ, अपने ही किसी कटे हुए वजूद का, जो ‘अमीबा’ की तरह अपने आप में एक सम्पूर्ण वजूद बन गया! 

शेख़ अयाज़ की लिखी प्रस्तावना के कुछ अंश पढ़कर मुतासिर होते हुए इस कृति का हिन्दी अनुवाद अतिया दाऊद की अनुमति से ‘एक थका हुआ सच’ के रूप में आपके सामने है जिसका एक अंश कहता हैः 

आँखों में झूठा प्यार सजाकर 
मेरे सामने आओ 
कानों में प्यार भरी झूठी सरगोशियाँ करो 
पाखंड की ज़जीरें         
कंगन बनाकर मुझे पहनाओ 
इतनी मक्कारी से मुझे प्यार करो 
कि रूह बर्दाश्त न कर पाए 
और तड़प कर मेरे वजूद से आज़ाद हो जाये! (क-7) 

शब्दों की ऐसी तासीर समुद्र के सीने पर सोई हुई लहरों में तहलका मचा सकती है। स्त्री की अधीनस्थ अवस्था जैसे नियति का वरदान है। पर अब उस कवच के भीतर से बनी स्त्री ‘स्व’ विकास के लिये, स्वतंत्रता के लिये, स्व अधिकार के लिये यदि समाज के सामने, परिवार व देश के सामने खड़ी हो तो यह पुरुष प्रधान समाज उसे सहज स्वीकार नहीं पाता। उसका वजूद कंटीली झाड़ियों में फंसे उस फूल की तरह है जो अपने आसपास के कंटकों से रक्तरंजित होता रहता है। 

सारा शगुफ्ता की पुस्तक ‘आँखें’ की प्रस्तावना लिखते हुए अमृता प्रीतम ने लिखा है.‘कमबख़्त कहा करती थी.ऐ खुदा मैं बहुत कड़वी हूँ, पर तेरी शराब हूँ। और अब मैं उसकी नज़्मों को और उसके ख़तों को पढ़ते-पढ़ते ख़ुदा के शराब का एक-एक घूँट पी रही हूँ...!’ 

अमृता प्रीतम ने यह संग्रह, सारा शगुफ़्ता की मौत के बाद खुद प्रकाशित करवाया था। आगाज़ के अंत में वही छटपटाता दर्द आंहें भरता हुए लिखता है : ‘कमबख़्त ने कहा था."मैंने पगडंडियों का पैरहन पहन लिया है।".लेकिन अब किससे पूछूँ कि उसने यह पैरहन क्यों बदल लिया है? जानती हूँ कि ज़मीन की पगडंडियों का पैरहन बहुत कांटेदार था और उसने आसमान की पगडंडियों का पैरहन पहन लिया, लेकिन...और इस लेकिन के आगे कोई लफ़्ज़ नहीं है, सिर्फ आँख के आँसू हैं...।’ 
इस संग्रह के सिन्धी प्रारूप में अतिया दाऊद की रचनात्मक क्षेणी को पैनी नज़र से देखते हुए, पढ़ते हुए, ज़ब्त करते हुए पाया कि अतिया के पास तीक्ष्ण नज़र है जो अलौकिक सौंदर्य भेदती हुई कल्पना और यथार्थ को जोड़ पाने में सक्षम है। उसकी दूरदर्शिता सदियों की कोख से होती हुई आज भी नारी के हर संकल्प व संभावना की कसौटी पर खरी उतरती है।

इन काव्य मणियों का अनुवाद करते हुए मैंने भरपूर कोशिश की है कि लेखिका की भावनात्मक अभिव्यक्ति में समाई सोच, समझ और सौंदर्य भाव को हिन्दी भाषा में उसी नगीना-साज़ी के साथ सामने लाऊँ। इसी वजह से कहीं-कहीं उर्दू-सिन्धी के लफ़्ज़ों को बरकरार रखा है ताकि भावनाओं की खुशबू बनी रहे। आसान कुछ भी नहीं होता और वह भी भाषाई परीधियाँ फलाँघते हुए लगता है गहरे पानी में उतरकर मोती ढूंढ लाने हैं—उन्हीं से एक लड़ी पिरोकर ‘एक थका हुआ सच’ आपके सामने ले आई हूँ। 

नारी अपने अस्तित्व की स्थापना चाहती है, अपने होने न होने के अस्तित्व को अंजाम देना चाहती है। उन वादों की तक़रीरों और तहरीरों से अब वह बहलाई नहीं जा सकती। वह प्रत्यक्ष प्रमाण चाहती है। अपने होने का, जिन्दा रहने के हक़ का, और उन हक़ों के इस्तेमाल का—

‘तुम्हारे वादे जो दावा करते थे कि 
नारी खानदान का गष्ुरूर है, घर की मर्यादा है 
आँगन की शान, बच्चों की माँ और 
तुम्हारे जीवन का सुरूर है, सबके सब... 
हाँ! सबके के सब झूठे साबित हुए हैं।" 

मर्द होने के नशे में पुरुष को औरत फ़क़त एक हाड़-माँस का तन मात्र दिखाई देती है उसे, जिसे वह अपनी मर्ज़ी से जब चाहे, खेल सकता है, तोड़-मरोड़ सकता है। 

पर अब ऐसा नहीं, अपने अतीत को दफश्न करते हुए नारी कह उठती है—‘तुम मोड़ सकते थे, पर अब नहीं।’ अब उसे अपने जीवन पर नियंत्रण है। वह जीने का मंत्र जान चुकी है, अपनी खुद की पहचान पा चुकी है। इसीलिये अपने विचारों को अभिव्यक्त करते हुए कहती है : 

‘मेरे महबूब, मुझे तुमसे मुहब्बत है 
पर मैं तुम्हारी आँगन का कुआँ बनना नहीं चाहती, 
जो तुम्हारी प्यास का मोहताज हो। (क-22)

अपने हिस्से की जंग लड़ने की हिम्मत बनाये रखने की चाह में अपनी पहचान के अंकुश को मील का पत्थर बनाना चाहती है, ताकि जब भी आने वाली सदियों के पथिक वहाँ से गुज़रें, उन्हें वह याद दिलाता रहे कि नारी मात्र पत्थर नहीं, बुत नहीं, जिसे तोड़ा-मरोड़ा जा सके, न ही वह किसी मंदिर में स्थापित की जाने वाली संगमरमर की मूर्ति है जिसके सामने धूप-दीप-आरती घुमाई जाए। वह प्रसाद में बंटने वाली चीज़ नहीं! 

चाणक्य ने भी स्त्री के विषय में लिखा है—‘हे स्त्री, तू स्त्री है इसीलिये तेरी ओर मैं अधिक अपेक्षा...से देखता हूँ। इस संसार को बदलने का सामर्थ्य मात्र तुझमें है। अपने सामर्थ्य को पहचान! अगर स्थितियाँ स्वीकार नहीं हैं तो उन्हें बदल। जिसके अंदर जितना सच होगा, उसे उतना ही सामर्थ्य प्राप्त होगा।’ 

और शायद इसी सामर्थ्य को परिभाषित करते हुए अतिया दाऊद ने लिखा है—

‘मुझे गोश्त की थाली समझकर 
चील की तरह झपटे मारो 
उसे प्यार समझूँ 
इतनी भोली तो मैं नहीं (क-12) 

हर औरत यह अधिकार चाहती है कि वह अपने जीवन की नायिका बने, शिकार नहीं...। आज की जागृत नारी शिक्षा की रोशनी में अपने आपको तराश रही है, अपनी पहचान को ज़ाहिर करने के लिये अपनी प्रतिभा के इन्द्रधनुषी रंग अपनी अभिव्यक्ति में ज़ाहिर कर रही है। ऐसा ही एक रंग अतिया दाऊद की काव्य प्रतिभा दर्शा रही है—

‘मैं बीवी हूँ, मैं वैश्या हूँ, महबूबा हूँ, रखैल हूँ 
तुम्हारे लिये हर रूप में एक नया राज़ हूँ 
तुम जिस कोण से भी देखोगे 
तुम्हें उसी स्वरूप में नज़र आऊँगी 
गिद्ध की नज़र से देखोगे तो गोश्त का ढेर हूँ...। (क-10) 

ऐसी एक नहीं, अनेक कविताएँ पढ़ते हुए सोच भी ठिठक कर रुक जाती है कि कौन-सी पीड़ा के ज्वालामुखी के पिघले द्रव्य में कलम डुबोकर सिन्ध की इस कवयित्री ने औरत के दर्द की परतों के भीतर धंसकर, उसकी हर इच्छा, अनिच्छा को ज़बान दी है। जैसे एक जौहरी की दुकान में, रोशनी को देखते हुए आँखें चुंधिया जाती हैं, ऐसे ही अतिया दाऊद की हर नज्ष्म एक आबदार मोती का आभास करवाती है। उसकी विचारधारा एक धारावाहिक अभिव्यक्ति में एक क्रांति ले आने का शौर्य रखती है। उनकी ज़हनी सोच जैसे हर बड़े शहर में सहरा बनकर बस गई है—

मैं जानती हूँ सहरा को सदियों से 
यहाँ छाँव का वजूद नहीं होता! 

और यह सोच जब शब्दों का लिबास पहनकर नारी जाति का संदेश पहुँचाने की ख़ातिर जन-जन के बीच पहुँचती है तो अतिया जी के अल्फाज़ में—

जो भी सुनता है 
चौंक उठता है 
आज एक लड़की ने 
सदके की कुरबान गाह पर 
सर टिकाने से इन्कार किया है 
उसने जीना चाहा है, पर 
लोग तन्ज़ के पत्थर लेकर 
संगसार करने आए हैं। 

यह समाज आज रिश्तों का जंगल बना हुआ है। अपने-अपने हिस्से की लड़ाई लड़ते हुए, रिश्तेदारियाँ निभाते हुए इन्सान भीतर ही कहीं न कहीं टूटता-बिखरता जा रहा है। आर्दशों की चौखट पर सभी स्वाहा हो रहे हैं...मेरी सोच के ताने बाने भी कुछ उलझे धागों से बुनी अभिव्यक्ति में कह रहे हैं—

रिश्तों की बुनियाद 
सुविधा पर रखी गई हो, तो 
रिश्ते अपंग हो जाते हैं 
अर्थ सुविधा के लिये स्थापित हों, तो 
रिश्ते लालच की लाली में रंग जाते हैं 
और अगर... 
रिश्ते, निभाने की नींव पर टिकें हों, तो 
जीवन मालामाल हो जाता है...! 

वाक़ई वक्त की पगडंडियों पर ये निशान नक्शे-पर बनकर आने वाली पीढ़ियों की राहें रौशन करेंगे। पढ़ते हुए आभास होता है कि यह हक़ीक़त है या ख़यालों की जन्नत.‘जो पल की उड़ान’ में हासिल होती है :

‘बादल बयाबान में बरस रहे हैं 
सहरा में दरिया उमड़ पड़ा है 
जलती आग में फूल खिल उठे हैं 
वीराने में सुर खनक उठे हैं 
किसने वजूद को सलीब से उतारा है 
आँखों में सपने सजने लगे हैं 
भीतर की प्यास कैसे सैराब हो गई 
कैसे जाम लबों तक आ पहुँचे 
आग बदन को जलाती क्यों नहीं? 
यह कौतुक क्योंकर होने लगा है. 
एक लम्हें ने मुझे कहाँ पहुँचा दिया है 
यह हक़ीकत है या ख़्यालों की जन्नत 
इतनी तेज़ उड़ान तो हवा की होती है 
या फिर... 
ख़्वाब की... 
आमीन (क-5) 

बस इतना ही...सफ़र आगे और है, चलिये इन वक्त की पगडंडियों पर साथ-साथ चलते हैं। 

इस संग्रह का अनुवाद अतिया दाऊद की अनुमति के सिवा हो नहीं सकता। था मैं तहे दिल से उनकी आभारी हूँ जो मुझे अपनी स्वीकृति दी। 
इस संग्रह में शामिल शेख़ अयाज़ की प्रस्तावना का हिन्दी अनुवाद भोपाल के दस्तावेज़ अदीब श्री खेमन मूलाणी ने किया है। इस सहकार के लिये मैं तहे दिल से उनकी आभारी हूँ। 

आपकी 
देवी नागरानी     

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