एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
काश मैं समझदार न बनूँ 

तजुर्बेकार ज़हन गर सब समझ जाये 
ज़हन में सोचों को बंद करके 
ताला लगा दूँ 
चालाक आँखें जो सब कुछ ताड़ जाती हैं 
उन पर लाअलमी के शीशे चढ़ा दूँ 
अपनी ही हसास दिल को 
कभी गिनती में ही न लाऊँ 
माज़ी की सारी तुलना और तजुर्बा 
जो ज़हन पर दर्ज है 
उसे मिटा दूँ 
मेरी अक़्ल मेरे लिये अज़ाब है 
काश, मैं समझदार न बनूँ! 
तुम्हारी उँगली पकड़कर 
ख़्वाबों में ही चलती रहूँ 
तुम्हारे साथ को ही सच समझकर 
सपनों में उड़ती रहूँ 
तुम जो भी मनगढ़ंत कहानी सुनाओ 
बच्चे की तरह सुनती रहूँ 
मेरे ज़हन को पतंग बनाकर 
जिस ओर उड़ाओगे, उड़ती रहूँ 
मेरी अक्ल मेरे लिये अज़ाब बनी 
काश, मैं समझदार न बनूँ!     

<< पीछे : तख़लीक़ की लौ  आगे : प्रस्तावना >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो

अनुवादक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता

पुस्तकें

लेखक की पुस्तकें
लेखक की अनूदित पुस्तकें
अनुवादक की पुस्तकें