एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
चादर 

मेरे किरदार की चादर 
सदा ही अपर्याप्त 
जितनी आँखें मेरे बदन पर गढ़ी 
वहाँ तक चादर मुझे ढाँप न पाई 
मेरे किरदार की चादर हमेशा से मैली 
धोते-धोते मेरे हाथ थके हैं 
जितनी ज़बानें ज़हर उगलती हैं 
उन्हें धोने के लिये उतने दरिया नहीं है मेरे देश में 
इस चादर में हमेशा छेद 
सात संदूकों में छिपाऊँ तो भी 
आपसी मतभेद के आक्रमणकारी चूहे कुतर जाते हैं 
इस चादर को हमेशा ख़तरा 
रीति-रस्मों के क़िलों में हमेशा इस पर पहरा 
तो भी मेरे सर से खिसकती रहती है 
रौशन रौशन नैनों वाली मेरी बेटी 
अँधेरे के ऊन से 
ऐसी चादर तुम्हारे लिये भी बुनी जा रही है 
जिस में ख़ुद को समई करने के लिये 
वुजूद को समेटते हुए सर झुकाना होगा 
अगर मेरे थके थके हाथ वह चादर तुम्हें पेश करें 
अपने पैरों तले रौंद डालना 
रीति-रस्मों के सभी पहाड़ फलाँग जाना 
मेरा हाथ पकड़कर मुझे वहाँ ले जाना 
जहाँ मैं अपनी मर्ज़ी से 
ज़िन्दगी से भरपूर साँस लूँ 
तुमसा एक आज़ाद क़हक़हा लगाऊँ! 

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