स्त्री जाति की बुनियाद बीबी हव्वा ने रखी थी, जब उसने हज़रत आदम की अनुमति के बिना गेहूँ का दाना खाया था। पता नहीं कि वह अन्तःप्रज्ञा स्त्री में इतने समय तक गुप्त क्यों रही, जब तक पश्चिम में स्त्री को अपनी समानता का अहसास हुआ, जिसका उल्लेख आगे चल कर करूँगा। फ़िलहाल सिंध में स्त्री जाति की शायरी की बेहतरीन लेखिका अतिया दाऊद के संबंध में लिखता हूँ।
अतिया दाऊद वैसे तो कराची में सत्रह वर्षों से रही हैं, परन्तु मुझसे लगभग पाँच वर्ष पूर्व मिली थीं, जब वह स्टेनोग्राफर थीं और किसी प्राइवेट कम्प्यूटर पर छपाई का काम सीखती थीं। वह बातचीत में उर्दू लेखिका किशोर नाहेद की भाँति तेज़ नहीं और न उसकी ज़बान लगातार चलती है। वह बातचीत में उलझती है और क्रमबद्ध नहीं रहती है। इसलिये पहली बार मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। कुछ समय बाद उसने मुझे स्वर्गीय उर्दू कवयित्री सारा शगुफ़्ता की पुस्तक ‘आँखें’ उपहार में दी और बताया था कि सारा में रामबू की भाँति दीवानगी थी, जिसकी भँवर में उसके हाथ शायरी को टटोलते रहते थे। वह अमृता प्रीतम की सहेली थी। उसके पास कुछ समय तक रही थी। अमृता प्रीतम ने उसकी पुस्तक ‘आँखें’ की प्रस्तावना भी लिखी थी। अमृता ने एक पत्र में उसे लिखा था, "मन चाहता है कि तुम समीप रहो तो तुम्हारे दुखों का विष अपनी हथेलियों से धो डालूँ।" और सारा की मृत्यु के बाद उसने लिखा था "यह ज़मीन ऐसी नहीं थी जहाँ वह अपने मकान का निर्माण कर पाती, इसलिए उसने उसमें कब्र का निर्माण किया था।" प्रस्तावना में सारा की इतनी प्रशंसा पढ़कर मैंने उसकी नज़्में ग़ौर से पढ़ीं और पुस्तक में कुछ आश्चर्यजनक पंक्तियाँ पाईं। वे कुछ नीचे प्रस्तुत हैं, जिनसे अनुमान लगाया जा सकेगा कि सारा शगुफ़्ता की गहन मित्रता का अतिया पर कितना प्रभाव पड़ा होगा :
"आग की तलाश में मेरे सारे चराग़ बुझ गये"
"कांटों पर कोई मौसम नहीं आता है"
"मैं अपनी कब्र को सांस लेते सुन रही हूँ"
"डूबते सूरज में से सिगरेट जलाने की आदत ने मुझे पूरी तौर व्यवस्था की माँ बना दिया है"
इस बीच मैंने अतिया की नज़्में पढ़ीं, जो उसने कॉपी कर मुझे पढ़ने के लिए दी थीं ताकि मैं उसे अपने मत से अवगत करवा सकूँ। अतिया दाऊद की शिक्षा-दीक्षा अधिक नहीं थी, परन्तु फिर भी उसमें रामबू वाली भरपूर दैवीय देन थी। उस में सारा की दीवानगी तिल मात्र भी नहीं थी। उसकी सभी नज़्में इतनी क्रमबद्ध थीं, जितनी किसी पक्के अभ्यासी गद्यात्मक पद्य वाले कवि की हो सकती हैं। वह उपन्यासकार वर्जीन्या वोल्फ़ के कथन पर भी खरी नहीं लगी, जिसने कहा था :
"कुछ स्त्रियों को उत्साहित किया गया है और उनसे शिक्षा-दीक्षा लेने का पक्का वचन लिया गया है और जिस समय उन्होंने शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की, उसके साथ आर्थिक स्वतंत्रता तथा ‘अपना विश्रामगृह’ भी प्राप्त किया है, जिसे वर्जीन्या वोल्फ़ ने कला और प्रफुल्लता के लिये आवश्यक माना है। उस समय भी वास्तविक दीवारें, आर्थिक, सामाजिक एवं लैंगिक, स्त्रियों के रचनात्मक अमल और स्त्री कलाकार की मान्यता के सम्मुख आती थीं। जौहरी की दुकान में जिस प्रकार आँखें चुंधियाँ जाती हैं, उसी प्रकार अतिया की प्रत्येक नज़्म चमकदार लगती है। अतिया की प्रतिभा उपमहाद्वीप की किसी भी कवयित्री से कम नहीं है। यह बौद्धिक पीड़ा, यह लैंगिक श्रेष्ठता, यह अपनी जाति का ज्ञान जो ‘विदीर्ण शरीर’ शब्द में फहमीदा रियाज़ समा नहीं पाई थी, इसकी कविताओं में चमक रहा है। सैफ़ो में अभिव्यक्ति की इतनी स्वतंत्रता मिलती है और फिर कई शताब्दियों तक गुम हो जाती है। इसकी शायरी क्रांतिकारी शायरी नहीं है। क्रांति के पीछे तो मार्क्स, ट्राटस्की, बिकोनिन, माओ, होची मिन इत्यादि के दृष्टिकोण थे, सभी दृष्टिकोण दृष्टि का धोखा होते हैं और अन्त में बीच राह में भटका कर चले जाते हैं। यह विद्रोह की शायरी है। मानवीय समझ की दरिद्रता से उभरती है। तंगदिली/अदूरदर्शिता से फैलती है और परामर्श के प्रयास से सारी ज़ंजीरें तोड़ देती है और उसकी आँखों में आँखें मिलाकर कहती है : "मैं तुमसे प्रतिभावान हूँ, मैं साहित्य की अल्ट्रासाउंड मशीन हूँ। तुम्हारा अन्तर्मन मुझसे छिपा हुआ नहीं है।"
पारिवारिक जीवन की यह कल्पना न केवल विक्टोरिया के दौर में अंग्रेज़ स्त्री को चौंका देती, परन्तु आज तक समूचा पश्चिम उसे हज़म नहीं कर पाया है। यदि कारान राक्स या शोल्यम एन्स या लेवन पोरस की भाँति निम्नलिखित वाक्य किसी उपन्यास में वार्तालाप के दौरान आते या कहानी, यात्रा वृत्तांत, रिपोर्ताज, डायरी इत्यादि में आते तो उन्हें अधिक निखार देते। जिस प्रकार भ्रमर के लिए कूणियों (तालाब में उगने वाले एक पौधे का नाम) से भरे तालाब में कूणियों का चुनाव करना कठिन हो जाता है और वह जहाँ चाहे मंडरा सकता है वैसे ही अतिया की शायरी में चुनाव करना कठिन कार्य है। देखिये :
"मैं सारा जीवन
परायों की बनाई शराफ़त की
पुल-सुरात पर चली हूँ
पिता की पगड़ी और भाई की टोपी के लिये
मैंने हर सांस उनकी इच्छा से ली है।
जब बागडोर मेरे पति के हाथों में दी गई
तब से चाबी वाले खिलौने की भाँति
उसके इशारे पर हँसी और रोई हूँ।
अथवा
मैं प्रीत की रीत निभाना जानती हूँ
तेरे मेरे बीच में यदि नदिया होती
तो पार करके आ जाती
पहाड़ों से गुज़रना होता
तो उन्हें भी लाँघ जाती
परन्तु यह जो तुमने मेरे लिये
तंगदिली का दुर्ग बनाया है
और परामर्श की छत डालकर,
रीति रस्मों का रंग दिया है
छल का फ़र्श बिछाकर
शब्दों की जादूगरी से
उसे सजाया है
तुम्हारे उस मकान में
मैं समा नहीं पाऊँगी।"
और मैं उसे केवल इतना कहूँगा, "नूरी! (सिंधी लोक कथा की एक नायिका का नाम) कींझर झील का सारा तट तुम्हारा है, तुम कहाँ किसी के मकान में समा पाओगी!"
यह है अतिया जिसने अंग्रेज़ी साहित्य का भी अधिक अध्ययन नहीं किया है और जिसमें से साहित्य ज्वाला की भाँति निकल रहा है।
अतिया की शायरी में कला को प्राथमिकता है। उसने किसी राजनैतिक डाकिये का काम नहीं किया है। वैसे भी साहित्य डाक है, कई राजनीतिज्ञ संसार में कभी संदेश पहुँचाकर ऐसे गुम हो गये जैसे बालू पर पदचिह्न गुम हो जाते हैं। सैद्धांतिक राजनीति को छोड़कर, वैचारिक राजनीति पर सोचा जाए तो कई आये गये अफ़्लातून, अरस्तु, थामस हॉब्स (Thomas Hobes), लॉक, अमेरिकी तथा फ्रांसीसी क्रांतियों वाले मान्टेस्को, जेफ़रसन, बर्क, लेनिन, ट्राटिस्की, स्टालिन, लास्की, स्ट्राची, आख़िर कितने नाम लूँ!
जहाँ तक उन्नति का प्रश्न है, वे किसी राजनैतिक चयनिका (Anthology) में तो आयेंगे और उनकी किसी-किसी पंक्ति में शाश्वता भी है, परन्तु वह अमर छाप जो होमर से शाह भिटाई तक शायर इंसान की आत्मा पर लगा गये, वह शायरी जो उसमें मयूर पंख हो जाती है और जीवन की तपन में घनघोर घटाओं की भाँति बरसती है, वह चीज़ वैचारिक राजनीति में कहाँ है? हाँ, उस दर्शन में अवश्य है जो किसी समय राजनैतिक दृष्टिकोण के बावजूद, शाश्वत है और जिसका शायरी की तरह उन मूल्यों से संबंध है, जो राजनीति की भाँति पतनगामी नहीं है।
अतिया की शायरी में समाज के उस हर मूल्य से विद्रोह है जो स्त्री में कोई हीन भावना उत्पन्न करता है। क्या तो उसने नज़्म लिखी है "अपनी बेटी के नाम!" मानो कोई भूचाल समाज के ढाँचे को डावांडोल कर रहा है। वह पंक्ति है या झांसी की रानी की तलवार है जो चारित्रिक मूल्य को तहस-नहस कर रही है :
"यदि कलंक लगाकर तुम्हारी हत्या करें,
मर जाना, परन्तु प्रेम अवश्य करना।"
यह पंक्ति उपमहाद्वीप की सम्पूर्ण स्त्री जाति की शायरी पर भारी है। यह शायरी मार्क्सवादी शायरी की प्रतिध्वनि नहीं है, जिसे उर्दू में तरक्क़ी पसन्द प्रगतिशील शायरी कहा जाता है। उस समय संभवतः अख़्तर हुसेन रायपुरी ने इस नाम का आविष्कार किया था जब उसने "उर्दू और अदब और इंक्लाब" (उर्दू और साहित्य और क्रांति) लिखी थी। मैं नहीं समझता कि अतिया इस पंक्ति पर ऐसे पछतायेगी जैसे साम्यवादी लोग एंग्लिज़ की पुस्तक ‘ओरीजिन ऑफ फेमिली’ (Origin of family) पर पछताये थे और फिर उन्होंने समाज में वंश को केन्द्रीय हैसियत दी थी। अतिया ने उपमा और रूपक में (तिल्सम सामिरी) सामिर नगर का इंद्रजाल बनाया है, जिसे देखकर आदमी दंग रह जाता है। इसे पढ़कर ऐना अख़्मतोवा याद आ रही है। देखो अतिया क्या कहती है :
"अमन के ताल पर मैंने जहाँ शताब्दियों से नृत्य किया था,
वहाँ मौत का सौदागर पंख फैला रहा है,
धारीदार पायजामा, फूलदार चोली और गुलाबी दुपट्टा,
मैंने पेटी में छिपाकर रखे हैं।
अपनी पहचान को निगरण कर निगल लिया है,
रास्ते पर चलते हुए आकाश में उगा हुआ चौदहवीं का चाँद देखकर
मैं तुम्हें शायद अब्दुल लतीफ़ भिटाई का बैत सुना नहीं सकती।"
मानों कराची के किसी रास्ते पर वह मुँह फेरकर आँसू पोंछ रही है। मानो अतिया ओरंगी, लाईन्स एरिया अथवा लियाकताबाद इत्यादि के किसी रास्ते पर घूम रही है और रास्ते उसके पैरों को दाग रहे हैं और कह रहे हैं कि हम पिछली शताब्दी से भयानक सपने देख रहे हैं, तुम कौन होती हो, उन सपनों में बाधा डालने वाली?
शहर उसमें अकेलेपन का अहसास बढ़ाता है और वह कहती है, "अकेलेपन का भार लाश की तरह भारी है "यही अहसास, अन्दर से सिन्ध की याद से मिल जाता है, उसमें इस तरह अभिव्यक्त होता है :
"मैं अकेलेपन की यात्री
दुरूह पगडंडियों पर पैदल,
तप्त बालू पर चलने की आदी,
मैं जानती हूँ मरुस्थल को शताब्दियों से,
यहाँ छाया का अस्तित्व होता नहीं है।"
कराची में निवास के दौरान मैंने भी शिद्दत से अकेलापन महसूस किया है। पहले 1943 से 1963 तक मैं जब कराची में था, तब विभाजन के समय कराची की जनसंख्या साढ़े चार लाख से कुछ अधिक थी और अब सत्तर अस्सी लाख को छू रही है। उस समय भी गीत "सांझ की बेला, पंछी अकेला" सुनकर शरीर में झुरझुरी आ जाती थी। अब तो बड़े-बड़े कारखाने, आकाश छूने वाले भवन, फाइव स्टार होटल, बैंक, यार्ड तथा हवाई अड्डे अकेलेपन का अहसास बढ़ा रहे हैं। लन्दन, न्यूयार्क, डाक यार्ड पैरिस, मास्को या टोक्यो में रास्ते इतने चौड़े हैं कि आदमी संकरा हो जाता है। छोटा हो जाता है। कराची भी मुम्बई अथवा पूर्व के हर बड़े नगर की भाँति अकेली, उदास, बाहर से उज्ज्वल, अन्दर गंदी है। मुझे याद आ रहा है कि पुणे में कहानीकार तारा मीरचन्दाणी की दावत पर मैं, ज़रीना, रीटा शहाणी, गुनो सामताणी, हरी मोटवाणी और इन्द्रा पूनावाला बातचीत कर रहे थे कि अचानक तारा ने फ़रमाइश की कि मैं उन्हें कुछ गीत सुनाऊँ। एक तो मैंने इतनी तेज़ी से लिखा है कि मुझे शेर याद ही नहीं रहते और दूसरा कि मैं अमीर मीनाई वाली कमज़ोरी "सौ बोतलों से शह है इस वाह-वाह में" से ऊपर उठ चुका हूँ। बहरहाल हम लोग ऐसी अवस्था में थे, कि कुछ गीत मुझे वैसे ही याद आ गये, जैसे कबूतर संध्या के समय दरबे में लौट आते हैं। जब मैंने अपना गीत "हेखलिड़ो मनु हेखलिड़ो" (अकेला मन अकेला) पढ़ा, जो पहले छप चुका है तो गुनो सामताणी ने चौंककर कहा, "अयाज़! तुम्हारी शायरी में तो भरपूर आधुनिकता (Modernism) है।" उससे पूर्व मुम्बई में नन्द जवेरी जब मुझे उसके घर ले गया था तब उसने मुझे एक बड़ी पुस्तक ‘माडर्निज़्म’ उपहारस्वरूप दी थी जो वह अमेरिका से लाया था, जहाँ उसका बेटा रहता है।
गुनो सामताणी को साहित्य अकादमी पुरस्कार काफ़ी समय पहले मिला था। अभी उसे महाराष्ट्र सरकार ने एक लाख का दूसरा पुरस्कार भी दिया था और उसके साथ सुंदरी उत्तमचंदाणी, श्याम जयसिंघाणी, अर्जन शाद, कीरत बाबाणी इत्यादि को भी एक-एक लाख रुपये के पुरस्कार दिये गये थे। गुनो महाराष्ट्र सरकार में गृह सचिव हैं और मेरे उससे संबंध 1963 से थे। वह मुझे अत्यन्त ही पश्चिमी प्रतिभावान और साहित्य का अच्छा जानकार लगा। यदि मैंने अपना यात्रा वृत्तांत लिखा तो उस पर विस्तार से लिखूँगा। हर बड़े नगर में यही आत्मा का मरुस्थल है,
"मैं जानती हूँ मरुस्थल को शताब्दियों से
यहाँ छाया का अस्तित्व होता नहीं है।"
कितना न अच्छा होता यदि यह शायरी गद्य की बजाय आज़ाद नज़्म (Verse Libre) में होती और मैं इसकी यूरोप व अमेरिकी कवयित्रियों से तुलना कर पाता।
कहा नहीं जा सकता कि गद्यात्मक शायर को भविष्य कब तक स्वीकार करेगा या वह उपन्यास, कहानी रिपोर्ताज या अन्य किसी विधा में समा जायेगी, परन्तु ऐसी उपमाएँ जिस भी विद्या में हों, वहीं अमर हैंः
"तुम और मैं विरोधी दिशाओं की ओर जाएं और
मेरा हाथ तुम्हारे हाथ में रहे—
इतनी लम्बी बाँह तो मेरी नहीं है!"
ऐसा लगता है मानो शीमा किरमानी मेरी नज़्म "ये गीत प्यासे मयूरों के" (ही गीत उञायल मोरनि जा) पर भरत नाट्यम कर रही है।
Verse Libre—फ्रेंच शब्द है आजशद नज़्म के लिये, फ्रांस का यह प्रथम आविष्कार था।
यह नगर जो स्वर्गीय अली मुहम्मद शाह जी के कथनानुसार एक सलाद के प्याले (Salad Bowl) की भाँति है। उसमें मनुष्य की हैसियत सलाद के पत्ते से भी कम है। थार मरुस्थल का विस्तृत आकाश देखकर (निकट अतीत में अतिया दाऊद और उसका पति थार मरुस्थल से हो आये हैं और वर्षा ऋतु में वहाँ के लोगों के नृत्य देख आये हैं।) लोग ऐसा समझते हैं कि मैं इस संसार से भी बड़ा हूँ। यह संसार मुझमें है, मैं इस संसार में नहीं हूँ।
साम्यवादी (Communist) समूह का नारा झूठा सिद्ध हुआ और यह भी सिद्ध हुआ कि मनुष्य को भेड़िये के नाखून होंगे तो वह तुम्हारी आँखें निकाल देगा, वह स्वाभाविक रूप से अत्याचारी और मूर्ख है और प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ दर्जा हासिल करने के लिये उसे संघर्ष करना है। इसी विषय पर कई वर्ष पूर्व आर्थर कोइस्लर ने अपनी पुस्तक योगी और कमीसार लिखी थी, जिसका उद्देश्य यह था कि कमीसार में जब तक योगी की विशेषताएँ नहीं हैं, उसकी सफलता असंभव है। दुनिया को अर्थशास्त्र से अधिक चरित्र की आवश्यकता है। इस चरित्र का स्वतंत्रता में लालन-पालन होता है और यह कोई किसी पर आच्छादित नहीं कर सकता परन्तु यह मानवीय विवेक में से यों स्वतः उभरती है, जिस प्रकार दक्षिणी सिन्ध में वर्षा के बाद धरती से कुक्कुरमुते उभरते हैं। स्वयं मेरे जीवन में जो साम्यवादी आये हैं, उनमें से निर्लज साम्यवादी निकाल दिये जायें तो शेष ऐसे दर्शन की तलाश में हैं कि मुक्ति का मार्ग दिखा पायें जो पूंजीवादी अर्थशास्त्र में नहीं मिलता। यूरोप के सभी साम्यवादी अब यह मान रहे हैं कि स्वीडन में कल्याणकारी राज्य की कल्पना आदर्श राज्य की तुलना है। स्कैंडेन्योरिया जिसका स्वीडन नार्वे सहित भाग है, मनुष्य के शारीरिक संबंध के बारे में उसके विचार अत्यन्त क्रांतिकारी हैं।
यूरोप में स्त्री जाति के आन्दोलन पर लिखूँ, उस से पूर्व केवल यह लिखना चाहता हूँ कि अतिया जो मूलेडिनो लाड़क ग्राम नोशहिरो फ़िरोज ज़िले में जन्मी और जवान हुई और सत्रह वर्षों से कराची में निवास कर रही है, कराची में वही अकेलापन तथा उदासी महसूस करती है जो हर संवेदनशील साहित्यकार तीसरी दुनिया के बड़े नगर में महसूस करता है, जहाँ भीड़ है; जहाँ लोग एक दूसरे को धक्का देकर अपने लिये रास्ता बनाते हैं और जहाँ "कष्टों में संसार, खुशी दिखाये खोखली" वाली अवस्था है। तीसरी दुनिया में स्त्री सबसे दलित वर्ग है और न केवल उस पर वही ज़बरदस्ती तथा अपहरण हो रहा है परन्तु बढ़ रहा है। उसकी कविताएँ कराची के शहरी जीवन में घृणा और विद्रोह को अभिव्यक्त करती हैं :
"जब वह किसी निपुण टाइपिस्ट की भाँति
मेरे शरीर के टाइपराइटर पर
अपनी अंगुलियों को तेज़ी से हरकत में लाता है
तब मैं उसे वही परिणाम देती हूँ,
जो उसे चाहिए होता है।" (मशीनी आदमी)
"तुम जिस कोण से देखोगे
मैं तुम्हें उस अनुसार नज़र आऊँगी
रहस्य की दृष्टि से देखोगे
तो गोश्त का ढेर हूँ,
प्रसूति गृह की बिल्ली की दृष्टि से देखोगे,
तो रक्त का तालाब हूँ,
बच्चे की तरह खिलौना तोड़कर देखोगे
तो अन्दर कुछ भी नहीं हूँ।
मेरे शरीर के आवां पर यात्रा करते हुए
तुम स्वाद की जिस मंज़िल तक पहुँचते हो
वहीं से मेरा रहस्य प्रारम्भ होता है
तुम डुबकी लगाने से समुद्र के दूसरे तट को छू नहीं सकते
यदि समझ सको तो रहस्य हूँ,
सोख सको तो बूँद हूँ,
महसूस कर सको तो प्यार हूँ।
यह यूनानी कवयित्री सैफ़ो की बहन, उससे कई शताब्दियाँ बाद में जन्मी है और इसकी पच्चीस तीस नज़्में उसे अमर जीवन देने के लिये काफ़ी है। इनका चुनाव कैसे करूँ? इनका चुनाव हो नहीं सकता, हर नज़्म हीरे की भाँति है और उनका यदि आकलन करता हूँ तो कई हीरे बन जाते हैं, जिनकी चमक दमक वही है। उनमें न क्रांति के लिये आह्वान है, न ग्लोटीन के स्वप्न है, न उनमें स्त्री जाति का दुष्प्रचार है, न उसने अपनी चुनरी को पताका बनाया है और न समाज सुधार के लिये जोश में आई है। उसके भीतर अनोखी पीड़ा है जो उसकी आत्मा से झरने की तरह फूटकर निकलती है। यह सही है कि वह पीड़ा उसके समाज का प्रतिबिंब है, जिसमें स्त्री की नाराज़गी तथा अर्थहीनता है। उस पर सदैव प्रतिबंध और कठिनाई है, मानो किसी बुलबुल को पिंजरे में बन्द रखा गया है और कभी पुरुष उसे हाथ पर बिठाकर ललचाने वाला स्वादिष्ट खाना खिलाता है और कभी थोड़ी देर के लिये हवा में उड़ने के लिये छोड़कर उसकी डोरी खींच लेता है। बचपन में जब हम लोग बुलबुलों को फंसाते थे, तब किसी-किसी खींच के कारण बुलबुल की कमर घायल हो जाती थी और हम लोग उसे ‘मुल्हियूं?’ कहते थे। बहरहाल ‘मुल्हियूं’ हों या नहीं, स्त्री की डोरी सदैव पुरुष के हाथ में है। सिन्धी भाषा में यह लोकोक्ति भी है कि ‘भले ही मारें भाई लोग, गले पर देकर लात।’ यह लोकोक्ति माताएँ अपनी रोने वाली बेटियों को धैर्य बंधाने के लिये सुनाती थीं जब बड़े भाई उनसे मारपीट करते थे।
अतिया की एक संवेदनशील चित्रकारा वाली अंदरुनी आँख है। वह कुछ चित्र फ्रांसीसी चित्रकारा आंद्रे बर्त्यून की भाँति खींच लेती है। उदाहरणस्वरूप ‘सत्य की तलाश’ और कुछ सैल्वीडार डाली की तरह जैसे ‘प्रतिज्ञा’ या ‘पल का मौसम’ में देखें क्या पंक्तियाँ हैं :
"रंगों में रक्त ऐसे दौड़ता है
जैसे नदी के तट में दरार पड़ गई हो।"
‘जाति’ के तत्व की तलाश करने में उसमें रहस्यवाद की रेखा मिलती है। उसकी शायरी में एक रंग नहीं है और न उस पर डर तथा जुनून सवार है, जैसे फ्रेंच क्रांति उस टूटे दाँतों वाली श्रमिक स्त्री पर सवार थी, जो मेरी ऐन्टोनेट को ग्लोटीन के नीचे देखकर ठहाके मार रही थी।
‘विश्वासघाती’ कविता में उसकी यर्थाथता शिखर पर है :
"मैंने तलाक़ शुदा स्त्री को
ज़माने की नज़र से ध्वस्त होते,
कई बार देखा है,
इसलिये वर्षा से डरी हुई बिल्ली की तरह
घर के एक कोने में
तुम्हारे नाम के उपयोग में किफ़ायत की है मैंने।"
. . .
"स्वर्ग विश्वास से अधिक कुछ भी नहीं है
और नरक सुरैत के ठहाकों से भारी नहीं है।"
. . .
"लोगों की ठिठोलियों से
दया से भरी आँखों से दुष्कर
कोई पुल सुरात नहीं है।"
. . .
"मेरी ओर देखते हुए खुशी उसके सीने में,
हाथ में पकड़े कबूतर की भाँति छटपटाने लगती है।"
यह है कला के नारे से निःस्पृह, जिसे देखकर मनोभाव हाथ में पकड़े हुए कबूतर की भाँति छटपटाने लगते हैं। एक जगह कहती हैंः
"उससे पहले कि शक्ति मेरे अंदर से घृणा बनकर फूटे
आओ मिलकर वे दूरियाँ जड़ से उखाड़ कर फेंकें
और बराबरी के आधार पर समाज की चक्की बोयें।"
यह कामना है उसी स्त्री की, जो समझती है कि :
"शारीरिक मतभेद के अपराध में
ज़ंजीरों से बाँधी गई हूँ..."
और किसी पुरुष को संबोधित करते हुए कहती है।
"तेरा मुझसे मोह ऐसे
जैसे बिल्ली का छीछड़े से
उसे प्यार समझ लूँ
इतनी भोली नहीं हूँ!"
भारतीय सन्त रजनीश ने यदि अतिया को पढ़ा होता तो वह अपने संभोग वाले भाषण में कुछ इज़ाफ़ा, कुछ संशोधन करते।
अब मैं वे उदाहरण देकर स्मरण करवाता हूँ कि वे गद्यात्मक पद्य भी हैं परन्तु किसी उपन्यास, कहानी अथवा यात्रा वृत्तांत के कुछ अंश भी हो सकते हैं। उदाहरण स्वरूप मैं अमेरिका के नीग्रो उपन्यास तथा गद्यात्मक पद्य के दो अंश प्रस्तुत करता हूँ, जो उपन्यास अथवा शायरी दोनों में प्रयोग में लाये जा सकते थे।
नीग्रो उपन्यासकार विलियम डेम्बे ने एक उपन्यास लिखा है :
"डोरस कमरे में ऐसे तेज़ी से आई, जैसे सूर्य उगने के बाद सूर्यमुखी धमाके से खिल जाते हैं। उसमें हमेशा की तरह नृत्य घर वाली आश्चर्यजनक प्राणशक्ति है, जो मुझे डरा देती है। प्रायः मेरे स्टूडियो में उसकी अचानक होती मुलाकातें देखकर, मैं इस बात पर लज्जित हो गया कि मैं लेखक हूँ! उसकी बवंडर जैसी टकसाल से निकले ताज़ा सिक्के जैसी उपस्थिति देखकर, मेरी आत्मा सिकुड़ कर संकीर्ण हो जाती है और एक पादरी की तरह पाजी और बुरी हालत में लगता है। मेरा लेखक का मुखौटा गले तक ढीला होकर उतर आता है और किसी लेखाकार जैसे मेरी खोपड़ी पर गंभीर मुस्कराहट दिखाई देती है।"
क्या यह अंश डोरस के आगमन पर गद्यात्मक पद्य नहीं लगता? निम्नलिखित गद्यात्मक पद्य पढ़कर देखिये और सोचिये कि क्या यह किसी उपन्यास का अंश नहीं हो सकता।
"मैंने नदियों को जाना है।
मैंने इस संसार से भी प्राचीनतम नदियों को जाना है
नदियाँ, जो मेरी नसों में ख़ून के प्रवाह से भी प्राचीनतम हैं,
मैं फ़रात में नहाया हूँ जब दुनिया भी अभी भोर सी थी,
कांगो नदी के पास में मेरी झुग्गी थी और वह मुझे
लोरियाँ सुनाकर उनींदा बना देती थी,
मैंने नील नदी की ओर देखा और उसके पास में
शुंडाकार मीनारें बनाई,
मैंने मिसीसिपी नदी को गाते हुए देखा, जब मैं नीचे
की ओर न्यू आर्लीन्स की ओर गया था और मैंने
उसके मटमैले पानी को अरुणोदय में सुनहला होते देखा है।
मैंने कई नदियों को जाना है।
प्राचीन, धूल भरी, धूसरित नदियां
और मेरी आत्मा नदियों की तरह गहरी हो गई है।
(नीग्रो कवि, लैगिस्टन हुग्स)
उपरोक्त उपन्यास के अंश और गद्यात्मक पद्य में विषय की समानता नहीं है परन्तु उनका शायराना प्रभाव एक जैसा है जो अन्दर में नज़्म की अवस्था उत्पन्न करता है और उस का स्वर माधुर्य गिट्टार की आवाज़ की तरह काफ़ी समय तक मन में कंपित होता रहता है।
स्त्री जाति का आंदोलन 1960 के दशक के लगभग मध्य में यूनाइटेड स्टेट्स में फिर जाग्रत हुआ। उससे पहले वह फ्रेंच क्रांति, अमेरिकी क्रांति तथा रूसी क्रांति से प्रभावित हुआ और इतिहास के अलग-अलग दौर में नये रंग रूप से उभरा था। मरी वोल स्टोन क्राफ्श्ट (Mary Woll Stone Craft) ने स्त्रियों के अधिकारों के समर्थन में पहली पुस्तक (A Vindication of the right of women) लिखी। उस पुस्तक को अमेरिका के स्वतंत्रता वाली घोषणा ने उत्साहित किया और उसके बाद सम्पूर्ण देश के उद्योगों पर प्रभाव पड़ा, जिसने वहाँ के समाज का ढाँचा डांवाडोल कर दिया और इसी कारण खानदान उत्पादन की इकाई (Family as the basic unit of production) नहीं रहा।
श्रमिक स्त्रियाँ और श्रमिक पुरुष इतने पराये नहीं लगे। स्त्रियाँ घरों में वस्तुएँ बनाने लगीं, जब तक तकनीक उन्हें बाहर श्रम करने के लिये खींच लाई। कपड़े के मिल अस्तित्व में आये और पाठशालाओं ने बच्चों की शिक्षा का भार अपने ऊपर लिया। श्रम का मूल्य रोकड़ में दिया गया और रोकड़ घर से बाहर श्रम कर प्राप्त की गई और जैसे समय बीता पुरुष का श्रम पर एकाधिकार समाप्त हो गया। आर्थिक आवश्यकता नई पद्धति के श्रम को बाज़ार में ले आई। सबने वहाँ अपने पालन-पोषण के लिये वेतन पर काम किया परन्तु साथ-साथ जो मध्यम वर्ग उभर रहा था, उसने स्त्री पूजा (Cult of the Lady) इतनी फैलाई कि इस समय पाकिस्तान के उच्च मध्यम वर्ग की भाँति, स्त्री के लिये खाली समय, निरर्थक व्यय, झाड़ फूँक, ठाट-बाट, पति के प्रति मिथ्या अभियान और टर्रुपन का प्रतीक बन गई और इस बात ने मध्यम वर्ग की स्त्री को नौकरी से रोके रखा और उससे पुरुष के वही जागीरदारी दौर वाले संबंध रहे। स्त्री जाति वैसे औद्योगिक दौर में मध्यम वर्ग एवं निम्न वर्ग का आन्दोलन नहीं रही है, जिसमें श्रमिक स्त्रियाँ अपनी लड़ाई स्वयं लड़ती रही हैं, विशेषकर उद्यमी आंदोलनों में प्रायः मध्यम वर्ग की निश्चिन्तता पर ईर्ष्या करती रही हैं और यह देख पाई हैं कि स्त्री का पुरुष पर आधारित रहना उसमें खून की कमी उत्पन्न कर उसे कमज़ोर कर देता है। कुछ भी हो परन्तु स्त्री जाति का आंदोलन अपने शिखर पर तब पहुँचा, जब मध्यम वर्ग एवं निम्न वर्ग की स्त्रियों ने वोट के अधिकार हेतु गठजोड़ किया। स्त्री के लिये प्रथम मताधिकार का विधेयक (National Suflearge) ब्रिटेन की संसद में प्रसिद्ध दार्शनिक स्टोअर्ट मिल ने 1867 ई. में प्रस्तुत किया। वह उस समय पास नहीं किया गया और फिर दो वर्षों बाद पास हुआ। वह प्रथम विधेयक था जिसने स्त्रियों को मताधिकार दिया। 1808 ई. से पूर्व अमीर वर्ग की कुछ स्त्रियाँ, तथा न्यूजर्सी (New Jersey) में ऐरिस्टोक्रेसी की कुछ स्त्रियाँ, कुछ विशेष परिस्थितियों में मध्यम दौर में यूरोप के कुछ देशों में वोट दे पाती थीं। कई दशकों के बाद मताधिकार को पूर्ण महत्व दिया गया। उन्नीसवीं शताब्दी में स्त्री जाति के आंदोलन का अधिक ज़ोर शिक्षा के अवसरों, नौकरियों तथा धंधों पर अधिकार तथा कानून की उन धाराओं को रद्द करने पर था; जो विवाहित स्त्रियों के अधिकारों को नकार रहे थे। हालाँकि स्त्रियों ने फ्रेंच क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। फ्रांस की स्त्रियों के अधिकारों पर अधिक बहस नहीं हुई, हालाँकि 1879 ई. में पहले राजनैतिक दल, जिसने स्त्रियों के अधिकारों की माँग की, वह फ्रांस की सोशल्सिट कांग्रेस थी। फ्रेंच स्त्रियाँ भी 1920 ई. के बाद महाविद्यालयों में प्रवेश ले पाईं और उन्हें मताधिकार 1944 ई. में दिया गया। इस देरी का कारण कैथोलिक चर्च का विरोध था।
जर्मन स्त्री जाति का संबंध सोशल्ज़िम के आन्दोलन से था। रोज़ा लक्समवर्ग (जिसका जीवन चरित्र मैंने ताज़ा पढ़ा है) कलेरा ज़ेटिकन और ऑगस्ट बेबल ने स्त्रियों के अधिकारों के संबंध में लिखा परन्तु उनका इस बात में विश्वास था कि क्रांति के सिवाय, स्त्रियों को बराबरी का अधिकार मिल नहीं पायेगा, इसलिये स्त्री जाति के आन्दोलन केवल सामान्य आमोद-प्रमोद थे। फिर भी वेमर गणराज्य में सोशलिस्ट और स्वछंद सोच वाले लोग 1919 ई. में स्त्रियों के लिये मताधिकार ले पाये। जर्मनी चाहे स्कैंडनिटियोया में मताधिकार बिना किसी शोर गुल के मिल गया। 1902 ई. में फिनलैंड पहला देश था जिसने सभी स्त्रियों को मताधिकार दिया। नार्वे में 1913 ई. में दिया गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्वीडन की समाज सुधारक स्त्रियाँ, एलेन तथा केली व अन्य थीं, जिन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि माताओं, विवाहित चाहे अविवाहित स्त्रियों के बच्चों के पालन-पोषण के लिये क्षतिपूर्ति दी जाये। इस बात पर गर्भ निरोध ने कुछ सहायता की और कुछ जनता को माँ का सम्मान और कल्याणकारी राज्य की समझ दी। (यू.एस.एस.आर. के टूटने के बाद व वहाँ के राजनीतिज्ञ, दार्शनिक तथा विचारक स्वीडन के कल्याणकारी राज्य को आदर्श समझ रहे हैं। केवल प्रजातंत्र इतना सार्थक नहीं है जब तक अनिवार्य परिणाम कल्याणकारी राज्य नहीं है।) ग्रेट ब्रिटेन की स्त्रियाँ तब तक स्त्री जाति के नेतृत्व हेतु आगे नहीं आयीं, जब तक उन्होंने अपनी पॉलिसी नहीं बदली।
पूरे चार दशकों तक वे संसद के बाहर इकट्ठी होती रहीं। जॉन स्टोअर्ट मिल की पुस्तक ‘स्त्रियों की ग़ुलामी’ बाँटती रहीं। उसके बाद उन्होंने पाश्विक आचरण अपनाया तथा संसद पर हमला किया। मंत्रियों पर ताने कसे और मुंह बनाकर चिढ़ाया। शासकीय भवनों के विशाल दरवाज़ों में अपने हाथों को हथकड़ियों से बाँधे रखा और तब तक नारे लगाती रहीं जब तक उन्हें घसीट कर नहीं हटाया गया। उन्होंने शासकीय भवनों को आग लगाई और जब पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर उन पर अत्याचार किया तब उन्होंने जेलों में भूख हड़तालें कीं, जिसके कारण जनता की उनसे सहानभूति बढ़ी। प्रथम विश्वयुद्ध के कारण उन्होंने आन्दोलन स्थगित किया और उन में जो लड़ाका स्त्रियाँ थीं, वे युद्ध में सम्मिलित हुईं और युद्ध समाप्त होने के बाद तीस वर्षों से अधिक आयु वाली स्त्री की मान्यता के तौर पर मताधिकार दिया गया। उस की तुलना में अमेरिका में स्त्री जाति का आन्दोलन सम्मानजनक था। नावसा (The National American Women Sufgearge Assiociation) ने अमेरिका के एक राज्य के बाद अन्य राज्य की ओर ध्यान दिया और इस प्रकार 1912 ई. तक बीस लाख स्त्रियों को मताधिकार मिला। उसके बाद उन्होंने कांग्रेस की कमेटी बनाई, ताकि उनके संबंध में संघीय संशोधन लाया जा सके। जिस दिन वड्रो विल्सन उद्घाटन के लिये आये उस दिन कांग्रेस ने आठ हज़ार स्त्रियों को इकट्ठा किया। जब उसने गलियाँ खाली देखीं तब उसने पूछा कि लोग कहाँ हैं? उसे उत्तर मिला "वे स्त्रियों की सभा देख रहे हैं।" आगामी आठ वर्षों तक राष्ट्रपति विल्सन और सफ़रागिस्ट (स्त्रियों के मताधिकार हेतु सक्रिय कार्यकर्ता) टकराव में आये। हालाँकि स्त्रियों को शिक्षा, रोज़गार तथा अलग पहचान मिली थी, लेकिन उन्हें मताधिकार नहीं दिया गया था। उस अधिकार के सिवाय स्त्रियों को बाह्य जगत् की ओर ध्यान देने के कम अवसर थे और वे घरेलू कार्यों में व्यस्त रहीं। इस बात को लेकर धार्मिक दृष्टिकोणवादियों से वाद-विवाद होता रहा कि मताधिकार लेकर स्त्रियाँ पहले की तरह घर-चलाती रहेंगी या नहीं और सफ़रागिस्ट कहते रहे कि स्त्रियों को अवसर प्रदान किये जायें ताकि वे संसार में पुरुषों से प्रतिस्पर्धा कर पायें, हालाँकि वे यह भी कहते रहे कि स्त्रियों का वास्तविक स्थान उनका घर है।
जैसा कि मैंने पहले कहा कि 1960 ई. में स्त्री जाति का आन्दोलन यूनाइटेड स्टेट्स में पुनः उभरने लगा और थोड़े समय में पूरे पश्चिम में और उससे बाहर भी फैल गया। 1966 ई. में नेशनल आर्गनाइजेशन ऑफ वूमेन (NOW) स्थापित की गई, जिसने संघीय कानून के उस भाग का विरोध किया जिसके अनुसार स्त्री से भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जा रहा था। NOW का अन्य कई राष्ट्रीय संस्थाओं ने साथ दिया, जैसे कि :
(1) Women’s Equality Action League (स्त्रियों को समानता हेतु संघ) (2) The National Women Political Caucus (स्त्रियों की राष्ट्रीय राजनैतिक गिरोह बंदी) (3) Fedrerally Employed Women (संघीय कार्यरत स्त्रियां) और अन्य कई स्त्रियों के समूह उभरे, जिन्हें पेशे के आधार पर संगठित किया गया और उन्होंने भी आंदोलन में साथ दिया, उनकी कई माँगें थीं, जो किसी सीमा तक पूरी भी की गईं। 1972 से 1974 ई. तक अमेरिकी कांग्रेस ने ऐसे कानून पारित किये जिनमें स्त्रियों के कई अधिकार सुरक्षित किये गये। 1972 ई. में कांग्रेस ने समान अधिकार संशोधन (Equal Rights Amendment) को स्वीकृति दी। यह प्रस्ताव अर्ध शताब्दी से उसके पास लंबित पड़ा था और उसमें यह बिल्कुल स्पष्ट किया गया था कि सरकार, लिंग के आधार पर अधिकारों की समानता पर किसी भी परिस्थिति में छेड़छाड़ नहीं कर पायेगी। 1972 ई. में यू.एस. के उच्चतम न्यायालय ने गर्भपात की अनुमति दे दी। कई स्त्रियाँ महत्वपूर्ण पदों के लिय चयनित की गईं। यूरोप के नवयुवक यू.एस.ए. से बहुत प्रभावित हुए। डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, इंगेंडिन, नीदरलैंड में कई स्त्रियों के आन्दोलन अस्तित्व में आये हैं और उनमें गृहणियाँ और विवाहित स्त्रियाँ भी हैं तो नवविवाहित स्त्रियाँ भी हैं।
मैंने साम्यवादी (Communist) स्त्रियों के संबंध में कुछ नहीं लिखा है, क्योंकि वे शासन और उनके कानून ऊपर नीचे हो चुके हैं। ऐसा दिखता है वहाँ स्त्रियाँ पुरुष से दुर्व्यवहार करने में समान रूप से भागीदारी थीं। भारत तथा पाकिस्तान में स्त्री से जो क्रेज़ की जाती है, वह हम सब जानते हैं। आश्चर्य इस बात पर है कि अतिया, जो सिन्ध के वातावरण में पली-बढ़ी है और जिसे पश्चिम के उपरोक्त आंदोलनों की कोई जानकारी नहीं है, वह समाज से इतना विद्रोह करने पर आमादा है। वाक़ई दैवीय देन एक डग में शताब्दियाँ लाँघ जाती है और उसके लिये देशों की सीमाएँ नहीं होती।
मूल लेखक : शेख़ अयाज़
हिन्दी अनुवाद : खीमन यू. मूलाणी
विषय सूची
- प्रस्तावना
- कविता चीख़ तो सकती है
- आईने के सामने एक थका हुआ सच
- अपनी बेटी के नाम
- सफ़र
- ख़ामोशी का शोर
- एक पल का मातम
- सच की तलाश में
- लम्हे की परवाज़
- एक थका हुआ सच
- सपने से सच तक
- तन्हाई का बोझ
- समंदर का दूसरा किनारा
- जज़्बात का क़त्ल
- शोकेस में पड़ा खिलौना
- रिश्ते क्या हैं, जानती हूँ
- सहारे के बिना
- तख़लीक़ की लौ
- काश मैं समझदार न बनूँ
- मन के अक्स
- उड़ान से पहले
- शराफ़त के पुल
- एक अजीब बात
- नया समाज
- प्रीत की रीत
- बेरंग तस्वीर
- प्यार की सरहदें
- मुहब्बतों के फ़ासले
- विश्वासघात
- आत्मकथा
- निरर्थक खिलौने
- शरीयत बिल
- धरती के दिल के दाग़
- अमर गीत
- मशीनी इन्सान
- बर्दाश्त
- तुम्हारी याद
- अन्तहीन सफ़र का सिलसिला
- मुहब्बत की मंज़िल
- ज़ात का अंश
- अजनबी औरत
- खोटे बाट
- चादर
- एक माँ की मौत
- नज़्म मुझे लिखती है
- बीस सालों की डुबकी
- जख़्मी वक़्त
- सरकश वक़्त
- झुनझुना
- ममता की ललकार
- क्षण भर का डर
- यह सोचा भी न था
- चाँद की तमन्ना
- झूठा आईना
- इन्तहा
- एटमी धमाका
- क़ीमे से बनता है चाग़ी का पहाड़
- उड़ने की तमन्ना
- सिसकी, ठहाका और नज़्म
- आईने के सामने
- अधूरे ख़्वाब
- आईना मेरे सिवा
- ज़िन्दगी
- चाइल्ड कस्टडी
- सभी आसमानी पन्नों में दर्ज
- फ़ासला
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
- कहानी
- अनूदित कहानी
- पुस्तक समीक्षा
- बात-चीत
- ग़ज़ल
-
- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
- अनूदित कविता
- पुस्तक चर्चा
- बाल साहित्य कविता
- विडियो
-
- ऑडियो
-
अनुवादक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
- कहानी
- अनूदित कहानी
- पुस्तक समीक्षा
- बात-चीत
- ग़ज़ल
-
- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
- अनूदित कविता
- पुस्तक चर्चा
- बाल साहित्य कविता