एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
आत्मकथा 

सखी तुम पूछती हो कि 

मैं जीवन कैसे गुज़ारती हूँ 

शादी के बाद ‘लिखती’ क्यों नहीं? 

मैं फ़रमाबरदारी की टेस्ट-ट्यूब में पड़ी 

‘पारे’ की तरह मौसमों की मोहताज हूँ 

जन्म से माँ वफ़ा की घुट्टी पिलाती आई है 

जो ख़ामोश लिबास की तरह वजूद से चिपटी है 

दुखों का तापमान बढ़ने पर भी 

टेस्ट-ट्यूब तोड़कर बाहर न निकल पाई हूँ 

मेरा घर ऐसा जादुई है 

कि मैं ख़ुद को भूलकर मशीन बन जाती हूँ 

समूचा व्यवहार मैं इसके चुटकी बजाने पर कर डालती हूँ 

अपने भीतर झाँककर जब ख़ुद को देखती हूँ 

तो घर मेरे लिये दलदल बन जाता है 

मैं तिनके की सूरत में रेत की बवंडर में फेंकी गई हूँ 

और वक़्त के क़दमों में लोटती हूँ! 

दुनिया में आँख खोली तो मुझे बताया गया 

समाज जंगल है 

घर इक पनाहगाह 

मर्द उसका मालिक और औरत किरायेदार! 

किराया वह वफ़ादारी की सूरत में अदा करती है 

मैं भी रिश्ते-नातों में ख़ुद को पिरोकर 

किस्तें अदा करती हूँ! 

सखी, मैं इसीलिये नहीं लिखती, क्योंकि

मैंने सभी जज़बात एकत्रित करके 

वफ़ादारी के डिब्बे में बंद कर दिये हैं 

मेरी सोच, बुद्धिमानी और 

ढेर सारी इकट्ठी की हुई किताबों को दीमक चाट रही है 

मैं अपने शौहर की इज़्ज़त और अना का प्रमाण पत्र हूँ 

जिसे वह हमेशा तिजोरी में बंद रखना चाहता है! 

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