शौक़ीन

मधु शर्मा (अंक: 256, जुलाई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

शौक़ न था कभी खटाई का, मलाई का, 
लार टपके थी नाम सुन सिर्फ़ मिठाई का। 
दुकान है न वो नुक्कड़ पर जो छोटी सी, 
धंधा चले था हमारे कारण उस हलवाई का। 
 
और इक रोज़, 
देख टपकती लार इक ख़ातून बिगड़ गई, 
सर-ए-बाज़ार बना दिया पहाड़ राई का। 
बाल सफ़ेद, दाँत तक नहीं मुँह में हमारे, 
पिट गये भइया रहा न ज़माना भलाई का। 
 
उड़ी ख़बर तो घर तक पहुँचनी वाजिब थी, 
पूछो न क्या हशर हुआ टूटी कलाई का। 
लेंगे न भूले से कभी अब नाम मिठाई का, 
टीस सी उठे है याद कर उस पिटाई का। 

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