शमा

मधु शर्मा (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

शमा बोली जाती हूँ, देखो सहर हो गई, 
मैं जली तुम्हारी ख़ातिर अब ग़ैर हो गई। 
 
महफ़िल जो मेरे जलने से रोशन होती थी, 
ख़ामोशी तुम्हारी से उसकी तौहीन होती थी, 
मौज़ मानिंद शायरी बेजान लहर हो गई, 
शमा बोली जाती हूँ, देखो सहर हो गई। 
 
रात-दिन जिनके लिए तुम लिखा करती थी, 
वो बज़्म जो तुम्हें सुनने को बेताब रहती थी, 
शुरूआत उनकी अब तुम्हारे ही बग़ैर हो गई, 
शमा बोली जाती हूँ, देखो सहर हो गई। 
 
हो जाएँगे फ़ना लेकिन परवाने मेरे कहाँ मानेंगे, 
दीवाने तुम्हारे तुम्हें तो क़रीब से भी न पहचानेंगे, 
बेरुख़ी जो तुम्हारी उनके लिए ज़हर हो गई, 
शमा बोली जाती हूँ, देखो सहर हो गई। 
 
चार दिन की चाँदनी और फिर अँधेरा हो गया, 
पहुँच कर बुलंदियों तक नाम तुम्हारा खो गया, 
अनाड़ी शायरों पे रब की जब से मेहर हो गई, 
शमा बोली जाती हूँ, देखो सहर हो गई। 
 
तुम्हारे अपने इक-इक करके रुख़्सत हो गये, 
क़िताबों में पढ़े अफ़साने हाए, हक़ीक़त हो गये, 
शाम रंगीन सूनी सुबह फिर तपती दोपहर हो गई 
शमा बोली जाती हूँ, देखो सहर हो गई। 

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