अँगूठे की व्यथा

15-08-2024

अँगूठे की व्यथा

मधु शर्मा (अंक: 259, अगस्त द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

पहाड़ करे पहाड़ी से सतत मधुर प्रेमालाप, 
चिंता मत करो प्रिया! बादल हो या तूफ़ान, 
भूगर्भ से आई हो मेरी ओट में रहने के लिए, 
पर्याप्त हूँ मैं ही उन सब से उलझने के लिए। 
 
तख़्ती के लिए तख़्त ने काटा अपना ही अंग, 
पा लिया उसने भोले ग्रामीण बच्चों का संग। 
पाकर नाम तख़्त का बनी उसकी अर्द्धांगिनी, 
कृतार्थ हुई जिसके अनुग्रह से पूजनीय बनी। 
 
नेत्र अश्रुओं से और खचाखच कूड़े से भरी, 
टूट जाने के भय से कोने में पड़ी थी टोकरी। 
सहा न गया टोकरे से देख टोकरी का बोझ, 
सहारा समीर का लेकर उड़ चला उसी ओर। 
 
क्या मन भाया परन्तु दोगली उस अँगूठी को, 
नाम मिला मुझ से और अपनाया अंगुली को? 
अँगूठा मुझ अँगूठे को दिखा उँगलियों में सजे, 
हाँ, वहमियों के अँगूठे में ही यदा-कदा दिखे। 
 
पहाड़, तख़्त, टोकरे सा कैसे बनूँ प्रेमी अनूठा, 
गुरु मिले तो काट अँगूठा भेंट करूँ मैं 'अँगूठा'। 

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