आशा या निराशा 

01-07-2024

आशा या निराशा 

मधु शर्मा (अंक: 256, जुलाई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

आशा कहा करती है, स्वयं को सम्भालो, 
निकम्मी निराशा छोड़ गले मुझे लगा लो। 
पालोगे मुझे तो मंज़िल को भी पा लोगे, 
निराशा के सहारे रहा-सहा भी गँवा दोगे। 
 
परन्तु उत्तर उसे मिलता है, 
हौसला तो तुम दोगी परन्तु साथ कभी नहीं, 
निराशा कुछ तो देगी चाहे मीठा दर्द ही सही। 
बेघर है वह लेकिन तुम महलों की शहज़ादी, 
अँधेरे में भी वह ख़ुश, उजालों की तुम आदी। 
 
सुनकर यह जवाब, भली आशा होती हताश, 
करना चाहे भला तो निराशा लग जाती हाथ। 
आशा सदा अपना सा मुँह लेकर रह जाती है, 
निराशा यूँ ही ज़िंदगी को व्यर्थ कर डालती है। 

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