एक थका हुआ सच

 

शहर भंभोर के मंज़र में 
तेरे मेरे बीच में जो सफ़र था 
वो मैं न कर पाई 
पहाड़ मेरे जज़्बों के आड़े 
मोम की मानिंद थे 
तेरे मेरे बीच में थी एक लकीर 
वह मैं उलाँघ न पाई 
बिरह की आग मेरे लिये शबनम थी 
तुम्हारी याद की चिंगारी को 
मैं बुझा न पाई 
प्रीत का पंछी तुम बिन उदास 
मेरे हाथों में निढाल निढाल 
चाहने पर भी उड़ा न सकी! 

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