सीधी-सच्ची बात
मुकेश कुमार ऋषि वर्माकाँईं-काँईं करती हुई लँगड़ी कुतिया अपना टूटा पैर खींचती हुई बाहर चली गई। काकी ने बड़ी ज़ोर से बेचारी कुतिया की पीठ पर डडोका (लट्ठ) जो मारा था।
काकी की ये हरकत आर्यन को क़तई अच्छी नहीं लगी। वो रुआँसा सा होकर काकी से बोला, "काकी तुम बुरी हो, तुमने उस बेचारी कुतिया को डंडा क्यों मारा? अगर तुम उसे रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं डाल सकती तो कम से कम डंडा तो मत मारो। बेचारी का एक पैर टूटा है।"
"अरे! वो जाती कहाँ है? कितनी बार भगाया, बार-बार आ जाती है," काकी झल्लाती हुई बोली।
"और वो... तिलक वाला! जो आड़े-तिरछे तिलक लगाकर रोज़-रोज़ आता है। उसे तो तुम थाली भरकर आटा दे देती हो। देखा नहीं कितना मोटा-तगड़ा पट्ठा जवान है," आर्यन काकी पर ग़ुस्सा होते हुआ बोला।
"अरे बेटा! वे ब्राह्मण देवता हैं, अगर उन्हें दान-दक्षिणा नहीं देंगे तो वे श्राप दे देंगे। समझे...!" काकी आर्यन को समझाते हुए प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली।
"पर... काकी, बेचारी उस लँगड़ी कुतिया का तो कोई घर नहीं, कोई खेत नहीं, उसके पास खाने को भी कुछ नहीं ऊपर से पैर भी टूटा और भूल से किसी के घर - आँगन चली जाये तो मार खाती है, फिर भी किसी को श्राप नहीं देती। कितनी अच्छी है न वो".... आर्यन एक साँस में सीधी-सच्ची बात कह गया।
आर्यन के इस भोलेपन पर लट्टू होते हुए काकी ने उसे अपने सीने से चिपका लिया।