कृषक दुर्दशा
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
दीन-हीन किसान
क़र्ज़ का मारा
स्वयं रहे भूखा
पर संसार की भूख मिटाता।
साधन विहीन
रहता चिंतित हमेशा
कहते लोग सेठ उसे
करते अपमानित . . .
फटे-पुराने चिथड़ों में
करता रहता हरदम काम
कर्म संत से पूजित उसके
पर चूस रहा उसको संसार।
कुछ धन्ना सेठ बने नाम के किसान
दिखा रहे दौलत-शोहरत
सरकार देख उनकी ख़ुशहाली
करती विज्ञापन बाज़ी!
पर सच में,
असली किसान
पीड़ा से तड़प रहे
और चूम रहे फाँसी के फँदे।
कृषक दुर्दशा
लिखी न जाये/
कही न जाये/
सुनाई न जाये/
देखी न जाये . . .
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