फूलन देवी
मुकेश कुमार ऋषि वर्माट्रेन सरपट दौड़ी जा रही थी। सामने वाली सीट पर भरे हुए बदन की एक उदास औरत बैठी थी। उसका दो साल का नटखट लड़का पूरी बोगी में धमाल मचाए हुए था। प्रणव उस औरत के गठे हुए बदन की ओर आकर्षित हुआ तो दिखावटी प्रेम से उसके लड़के से खेलने लगा। लड़का भी बड़ा क्यूट था।
प्रणव ने कई बार कोशिश की औरत से बात करने की पर बात बनी नहीं। देखने में वह विधवा लग रही थी। उसकी माॅंग बिना सिंदूर के सूनी थी, माथे पर कोई बिंदी नहीं थी। कोई सिंगार नहीं फिर भी उसकी सुंदरता ग़ज़ब ढा रही थी। बोगी का हर पुरुष ललचाई नज़रों से उसे काट खाने को उतारू था।
प्रणव ने आख़िरी दाँव चलाया, अपने बैग से बिस्किट का पैकेट निकाल कर खाने लगा। बिस्किट देख लड़का हँसता-खिलखिलाता प्रणव के पास आ गया। प्रणव भी तो यही चाहता था, उसने पैकेट औरत की तरफ़ आगे बढ़ाते हुए कहा, "लीजिए . . . खिला दीजिए . . . बच्चा भूखा होगा।”
औरत ने बग़ैर ना नुकुर के पैकेट हाथ में ले लिया। प्रणव को लगा कि अब बस मछली काँटे में फँस गई। बातचीत प्रारंभ हो चुकी थी और बातचीत का सिलसिला चल निकला। बातों ही बातों में पता चला कि औरत दिल्ली जा रही है अपने पति से मिलने, तिहाड़ जेल!
तिहाड़ जेल का नाम सुनते ही प्रणव की आशिक़ी का भूत उतर गया। वह सामान्य होकर बतियाने लगा। आगे औरत ने सच्चाई बताई कि वह अपने पति के साथ मिलकर एक ढाबा चलाती थी। एक रात तीन शराबी खाना खाने आये। उनकी नियत बिगड़ गई। मैंने सब्ज़ी काटने वाले हँसिये (गंडासा) से तीनों को काट दिया। मेरे उसी जुर्म को मेरे पति ने अपने सिर ले लिया।
अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो प्रणव फीकी सी मुस्कान के साथ फूलन देवी को नमस्ते करता हुआ उतर गया।
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