आत्म चिंतन
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
जब कुछ पुराने सम्मानित सहयोगी, सलाहकार, हितैषी, चाहने वालों . . . से काफ़ी समय से संपर्क नहीं होता है, न फोन, पत्र, व्यक्तिगत किसी भी माध्यम से। तो इसका मतलब ये क़तई न निकालें कि सामने वाला उन्हें भूल चुका है। यादें ज़िन्दा रहती हैं, बस वे सो जाती हैं या यूँ कहें कि कुछ धूमिल हो जाती हैं।
इंसान जब पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक संघर्षों से जूझता है तब वह अपने सच्चे चाहने वालों से धीमे-धीमे दूर होता चला जाता है। और सच्चे हितैषी उसे स्वार्थी समझ बैठते हैं। बस यहीं से आपसी सम्बन्ध टूटते चले जाते हैं।
कुल मिलाकर ग़लती दोनों तरफ़ से होती है। तो क्यों न इस ग़लती को समय रहते पुनः सुधारा जाये। आइए मिलाइए हृदय से हृदय . . .
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अपने तो अपने होते हैं
- आयी ऋतु मनभावन
- आस्तीन के साँप
- इंतज़ार
- इष्ट का सहारा
- ईश्वर दो ऐसा वरदान
- ऐ सनम मेरे
- कवि की कविता
- कृषक दुर्दशा
- गुलाबी ठंड
- चिट्ठियों वाले दिन
- जल
- दर्द
- दीप जलाएँ
- धरती की आस
- धोखा
- नव निर्माण
- नव वर्ष
- पछतावा
- पहाड़
- पुरुष
- प्रणाम बारम्बार
- प्रार्थना
- प्रिय
- बसंत आ रहा
- भारत गौरव
- मनुष्य और प्रकृति
- मेरा गाँव
- मेरा भारत
- मेरा हृदय लेता हिलोरे
- मेरी कविता
- मेरी कविता
- यादें (मुकेश कुमार ऋषि वर्मा)
- वृक्ष
- सच्चा इल्म
- सावन में
- हादसा
- हे ईश्वर!
- हे गौरी के लाल
- हे प्रभु!
- ज़िन्दगी
- चिन्तन
- काम की बात
- किशोर साहित्य कविता
- लघुकथा
- बाल साहित्य कविता
- वृत्तांत
- ऐतिहासिक
- कविता-मुक्तक
- सांस्कृतिक आलेख
- पुस्तक चर्चा
- विडियो
-
- ऑडियो
-