बादल 

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा (अंक: 225, मार्च द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)


रूई से नरम बादल कितने अच्छे हैं। 
धुएँ से सफ़ेद बादल बने लच्छे हैं॥
 
उमड़-घुमड़ नभ में उड़ते जाते हैं। 
कभी गरजते रहते, कभी बरस जाते हैं॥
 
काली-काली घटा अँधेरी बनाकर डराते हैं। 
बादल प्यासी धरती की प्यास बुझाते हैं॥
 
कभी रात को तो कभी दिन को बरसते हैं। 
बादल सुबह-शाम जमकर बरसते हैं॥
 
बादल अपनी मनमर्ज़ी के मालिक होते हैं। 
कहीं सूखा तो कहीं मूसलाधार बनके बरसते हैं॥
 
रूई से नरम बादल कितने अच्छे हैं। 
धुआँ से सफ़ेद बादल बने लच्छे हैं॥

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