कालचक्र 

01-04-2025

कालचक्र 

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मैं रोज़ जीता हूँ 
और रोज़ मरता हूँ 
सूर्य की सुनहरी किरणों संग चलता हूँ 
बचकानेपन वाले मन से क्षण-क्षण लड़ता हूँ। 
 
स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाता हूँ 
स्वयं ही निराशा के सागर से निकल 
आशा के मोती चुनता हूँ 
मैं रोज़ जीता हूँ 
और रोज़ मरता हूँ। 
 
अकेला ही चल पड़ता हूँ 
उन वीरान रास्तों पर 
जिन पर चलना और फिर न लौटना 
पर मैं लौट आता हूँ 
मैं रोज़ जीता हूँ 
और रोज़ मरता हूँ। 
 
पल-पल अनर्थ से डरता हूँ 
कालचक्र से लड़ता हूँ 
भूत, भविष्य और वर्तमान से कहता हूँ
मैं रोज़ जीता हूँ 
और रोज़ मरता हूँ। 

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