कोरा काग़ज़: तीन व्यक्तियों की भीड़ की पीड़ा
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
गुरदासपुर (पंजाब) के आनंद बंधु चेतन, देव और विजय हिंदी सिनेमा के आकाश में अनोखी छाप छोड़ गए हैं। ज्येष्ठ बंधु चेतन आनंद पूरी तरह फ़िल्म निर्देशन में समर्पित थे। बीच के देव आनंद ने सदाबहार हीरो के रूप में स्थापित हो कर निर्माता-निर्देशक के रूप में भी नाम कमाया। तीसरे विजय आनंद ने भी अभिनय और निर्देशन, दोनों घोड़ों की सवारी की। पर सिनेमा प्रेमी उन्हें हीरो के रूप में कम, निर्माता के रूप में अधिक याद करते हैं। जैसे कि उनकी चार लाजवाब फ़िल्में—गाइड, तीसरी मंज़िल, ज्वेल थीफ़ और जानी मेरा नाम (चारों में देव आनंद ही हीरो थे) हिंदी सिनेमा की मील का पत्थर फ़िल्में थीं।
1957 में विजय आनंद ने एक्टर (आगरा रोड) और डायरेक्टर (नौ दो ग्यारह) के रूप में शुरूआत की थी। पर उनकी निर्माता आत्मा को कहानियाँ कहना ज़्यादा अच्छा लगता था, इसलिए देव आनंद की नवकेतन फ़िल्म्स में ठीक से व्यवस्थित हो गए थे। फिर भी एक्टर के रूप में उन्होंने लगभग जिन दस फ़िल्मों में काम किया था, उनमें ‘कोरा काग़ज़’ (1974) यादगार साबित हुई थी। इस फ़िल्म में विजय आनंद ने साबित कर दिया था कि उन्होंने अगर निर्देशन के बजाय एक्टिंग में गंभीरता से रुचि दिखाई होती, बराबरी की बात की जाए तो उनमें संजीव कुमार की बराबरी की गहराई थी।
एक इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार भी किया था कि “देव साहब मेरे भाई न होते तो मैं एक्टर होता। मेरे अंदर टैलेंट की कमी नहीं थी। पर मैंने कैमरे के पीछे रहना पसंद किया और एक्टर के रूप में अपनी इमेज बनाने की कोशिश नहीं की।”
‘कोरा काग़ज़’ उस साल आई थी, जब मनोज कुमार की ‘रोटी कपड़ा और मकान’, धर्मेन्द्र की ‘दोस्त’, राजेश खन्ना की ‘प्रेम नगर’, देव आनंद की ‘अमीर-गरीब’, अमिताभ बच्चन की ‘मजदूर’ और जितेन्द्र की ‘विदाई’ का डंका बजा था। 70 के इस दशक में मसाला फ़िल्मों का दौर था। ऐसे समय में विवाह जैसे वैवाहिक खटराग जैसे ‘बोरिंग’ विषय को ले कर फ़िल्म बनाना और दर्शकों का प्यार जीतना, यह साहस और सफलता दोनों कहा जाएगा।
‘कोरा काग़ज़’ बंगाली फ़िल्म ‘सात पाके बंधा’ (सात फेरों का बंधन) की हिंदी रिमेक थी। 1963 में आई इस फ़िल्म में सौमित्र चटर्जी और सुचित्रा सेन मुख्य कलाकार थे। बंगाली में यह सफल रही थी और फिर हिंदी के अलावा तेलुगु में ‘विवाह बंधन’ और तमिल में ‘ललिथा’ नाम से बनी थी। बंगाली में यह आशुतोष मुखोपाध्याय नाम के जाने-माने लेखक के इसी नाम के उपन्यास पर बनी थी। उनकी तमाम कहानियों पर सुंदर फ़िल्में बनी थीं। जैसे कि तलाश, सफ़र, ख़ामोशी और बेमिसाल।
‘कोरा काग़ज़’ का निर्देशन मूल बंगाल के अनिल गांगुली ने किया था। निर्देशक के रूप में ‘कोरा काग़ज़’ उनकी पहली फ़िल्म थी। इसमें उन्होंने वैवाहिक खटराग को इतनी संवेदना से चित्रित किया था और विजय आनंद तथा जया भादुड़ी से इतना अच्छा अभिनय कराया था कि फ़िल्म 1975 का राष्ट्रीय पुरस्कार ले गई थी। दूसरे ही साल उन्होंने राखी को लेकर राजश्री प्रोडक्शन के लिए ‘तपस्या’ बनाई थी और यह भी राष्ट्रीय पुरस्कार ले गई थी।
फ़िल्म में साहित्य के प्रोफ़ेसर सुकेतु दत्त (विजय आनंद) और मिडल क्लास की लड़की अर्चना गुप्ता (जया भादुड़ी) मुंबई की बेस्ट बस में अचानक मिलते हैं। सुकेतु साधारण परिवार से हैं और मुश्किल से जीवनयापन करते हैं। दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं और विवाह कर लेते हैं। बेटी के लिए डॉक्टर, इंजीनियर या बिज़नेसमैन का सपना देखने वाली अर्चना की माँ मिसेज गुप्ता (अचला सचदेव) को यह बिलकुल पसंद नहीं था।
विवाह के बाद माँ का हस्तक्षेप बढ़ जाता है। वह हमेशा विजय को उसकी ग़रीबी का भान कराती रहती है। माँ के ‘पुत्री प्रेम’ के कारण दंपती की गृहस्थी में रोज़ाना कोई न कोई नई प्राब्लम आती है। एक दिन माँ फ़्रिज भेजती है, उसके बाद टेलीफोन भेजती है। इसके बाद वह उसके जान-पहचान वालों से जाकर कहती है कि उसका दामाद पीएच.डी. करने के लिए लंदन जाने वाला है। विजय आदर्शवादी और आत्मगौरव वाला व्यक्ति था। उसे यह सब पसंद नहीं था। उसे लगता था कि उसका अपमान करने के लिए उसकी सास जानबूझकर कर समस्या खड़ी करती है।
अर्चना अपने पति के सिद्धांतों और माँ की दरकार के बीच सैंडविच हो जाती है। वह न तो माँ को रोक पाती है और न पति को मना पाती है। मिसेज गुप्ता का रिमोट कंट्रोल दंपती के बीच अंतर और अंटस पैदा करता है, जो अंत में दोनों को अलग होने तक ले जाता है। वर्षों बाद दोनों एक रेलवे स्टेशन पर वेटिंग रूम में मिलते हैं और नासमझी दूर कर के सहजीवन शुरू करते हैं।
जया भादुड़ी ने अगले ही साल वैवाहिक माथाकूट वाली फ़िल्म ‘अभिमान’ की थी। पर फ़िल्म ‘कोरा काग़ज़’ की अर्चना ‘अभिमान’ की उमा की तरह गूँगी गुड़िया नहीं थी। अर्चना अपने दिल और दिमाग़ की बात कहने के लिए सक्षम थी। ‘अभिमान’ में वह मौन रह कर पीड़ा सहती है। ‘कोरा काग़ज़’ में उसकी पीड़ा उसकी ज़ुबान से व्यक्त होती है। फिर भी ऐसा नहीं लगता कि जया ने दोनों फ़िल्मों में रिपीटेशन किया है। 26 साल की उम्र में जया ने जो परिपक्व अभिनय दिया था, वह क़ाबिले-तारीफ़ है। इसीलिए उन्हें उस साल का बेस्ट एक्ट्रेस का फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला था।
फ़िल्म में कल्याणजी-आनंदजी के संगीतबद्ध किए मात्र तीन ही गाने थे। पर वे उनके कैरियर-बेस्ट हैं। किशोर कुमार में गानों में मूड और भावनाओं के अनुसार आवाज़ को ‘मोल्ड’ करने की अच्छी योग्यता थी। इसका साक्ष्य ‘मेरा जीवन कोरा काग़ज़ कोरा ही रह गया . . . ’ है। इसमें सुकेतु की खिन्नता को किशोर ने हृदय को झकझोर दे, इस तरह विषाद के साथ व्यक्त किया है। किशोर कुमार कभी पार्टी नहीं करते थे। पर फ़िल्म ‘कोरा काग़ज़’ को बेस्ट म्यूज़िक का फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला तो नियम तोड़कर उन्होंने सेलिब्रेशन किया था।
अन्य दो गाने लता मंगेशकर ने गाए थे। दोनों ही गाने अर्चना के परस्पर विरोधी अवस्था को व्यक्त करते थे। ‘मेरा पढ़ने में नहिं लागे दिल . . .’ अर्चना के खिलंदड़ स्वभाव का प्रतीक था। जबकि ‘रूठे रूठे पिया मनाऊँ कैसे . . .’ उसके वैवाहिक जीवन की मजबूरी को प्रस्तुत करता था। लता ने भी इन दोनों गानों में अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन किया था और इसीलिए उन्हें दूसरा राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। (पहला जया की ही ‘परिचय’ फ़िल्म के लिए मिला था।
वैवाहिक माथाकूट वाली ऐसी ज़्यादातर फ़िल्मों में कड़वाहट आ जाने की सम्भावना अधिक होती है। पर ‘कोरा काग़ज़’ में सम्बन्धों के नाज़ुकपन को सावधानी से चित्रित किया गया था, इसलिए वह न तो नफ़रत में तब्दील हुआ था न ही टूट-फूट में। दो व्यक्तियों के नए सम्बन्ध की सम्भावनाओं और मर्यादाओं को समझने और उसमें व्यवस्थित होने में समय लगता है। उन्हें इसके लिए अवकाश और समय मिलना चाहिए। इसमें अगर तीसरा व्यक्ति ज़ोर डाले तो यह सम्बन्ध चल नहीं सकते इतने नाज़ुक होते हैं। फ़िल्म ‘कोरा काग़ज़’ में इस वास्तविकता को अच्छी तरह पेश किया गया है। दंपती की अपनी कोई ग़लती न होने की बात को गीतकार एम जी हसमत ने अपने टाइटल गीत में अच्छी तरह पेश किया था—न पवन की न चमन की, किसकी की है ये भूल, खो गई ख़ुश्बू हवा में, कुछ न रह गया . . .
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