मुग़ल-ए-आज़म की दूसरी अनारकली

15-06-2023
  • मधुबाला और दिलीप कुमार (मुग़ल-ए-आज़म)
    मधुबाला और दिलीप कुमार (मुग़ल-ए-आज़म)
  • शहनाज़ बिया
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  • शहनाज़ बिया  और दिलीप कुमार
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  • शहनाज़ बिया  और प्रशंसक
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मुग़ल-ए-आज़म की दूसरी अनारकली

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 231, जून द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

नियति कहें या संयोग, कभी-कभी कुछ घटनाएँ एक-दूसरे पर इस तरह प्रभाव डालती हैं कि बाद में हम उन्हें याद करते हैं तो लगता है कि यह चमत्कार कैसे हुआ था। आप हिंदी सिनेमा की सब से महान फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की कल्पना मधुबाला के बिना कर सकते हैं? हाँ, ऐसा होते-होते रह गया था। यहाँ आप को पता चलेगा कि मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच बोलचाल का भी सम्बन्ध नहीं था, फिर भी उन्होंने किस तरह दिल से अनारकली की भूमिका के साथ न्याय किया था। तीसरी नियति, ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के समय मधुबाला मर रही थीं। हाँ, उन्हें हृदय की बीमारी थी और डॉक्टरों ने हाथ ऊपर कर दिए थे। फिर भी मधुबाला ने अपने कैरियर का श्रेष्ठ परफ़ॉर्मेंस इस फ़िल्म में दिया था।

‘मुग़ल-ए-आज़म’ (1960) बनी तब मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच बोलचाल नहीं थी। फिर भी उनकी व्यावसायिक ईमानदारी इतनी अच्छी थी कि सलीम और अनारकली के पात्र में उन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी थी। झगड़ा बी.आर. चोपड़ा की फ़िल्म ‘नया दौर’ (1957) के आऊट डोर शूटिंग में जाने को लेकर हुआ था। वैजयंतीमाला ने इसमें रजनी नाम की लड़की की जो भूमिका की थी, वह मधुबाला को करनी थी। उन्होंने एडवांस में पैसों की किश्त भी ले ली थी और 15 दिन की शूटिंग भी की थी।

इसकी एक आऊट डोर शूटिंग ग्वालियर में तय की गई थी। उस समय दिलीप कुमार और मधुबाला के रोमांस की बातें ख़ूब उड़ी थीं। मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान ने मधुबाला को आऊट डोर शूटिंग के लिए न फ़रमा दिया था। उन्हें लगता था कि दिलीप कुमार के कहने पर ही आऊट डोर शूटिंग रखी गई है। जिससे मधुबाला के साथ उन्हें खुला मैदान मिल सके। चोपड़ा ने दिलीप साहब से मदद माँगी। तब दिलीप साहब और मधुबाला का एंगेजमेंट हो गया था। दिलीप साहब ने मध्यस्थता की, पर मधुबाला ने पिता की अवज्ञा करने से मना कर दिया और आऊट डोर पर जाने से भी इनकार कर दिया। इसलिए चोपड़ा प्रोडक्शन ने मधुबाला पर मुक़द्दमा कर दिया, जो एक साल चला।

इसी की वजह से दोनों के बीच ब्रेकअप हो गया। मधुबाला ने किशोर कुमार से विवाह कर लिया, इसका मूल कारण यही ब्रेकअप था। मधुबाला को बचपन से ही वेंटिक्युलर सेप्टल डिफ़ेक्ट नाम की बीमारी थी, जिसे हम हृदय में छेद कहते हैं। इस बैकग्राउंड के बीच दोनों ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में इकट्ठा हुए और इतिहास रच गया। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के कुछ दृश्यों में मधुबाला फीकी नज़र आती हैं, वह इसी ख़ून की बीमारी की वजह से। फ़िल्म से जुड़े लोगों का कहना है कि ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की मुश्किल शूटिंग के कारण मधुबाला पर अधिक दबाव पड़ा था, पर वह जैसे मौत के सामने ज़िद कर बैठी थीं, इस तरह काम कर रही थीं। फ़िल्म के प्रसिद्ध गाने ‘बेकस पे करम कीजिए . . . ’ की शूटिंग में शरीर पर निशान पड़ जाएँ इस तरह लोहे की भारी ज़ंजीरों में परफ़ॉर्मेंस दिया था।

दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘मुग़ल-ए-आज़म‘ की आधी शूटिंग पूरी हो गई, तब तक हमारे बीच बोलचाल का सम्बन्ध नहीं था। फ़िल्म का जो यादगार दृश्य है, जिसमें हमारे दोनों के होंठों के बीच परदा आता है, वह शूट हुआ था तब हम दोनों एक दूसरे की ओर देखते भी नहीं थे।

आज आप ‘मुग़ल-ए-आज़म‘ की अनारकली की भूमिका में मधुबाला के अलावा किसी दूसरी ऐक्ट्रेस की कल्पना भी नहीं कर सकते। पर हक़ीक़त यह है कि इस भूमिका के लिए मधुबाला पहली पसंद नहीं थीं। यह तीसरी नियति की बात है। सोफिया नाज़ नाम की पाकिस्तान स्थित कवयित्री ने सनसनीखेज़ दावा किया है कि ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में अनारकली के रोल के लिए पहली पसंद उनकी माँ शहनाज़ बिया थीं। परन्तु परिवार के फ़िल्मों के प्रति विरोध के कारण उन्हें यह रोल छोड़ना पड़ा था। मधुबाला को उनके बाद पसंद किया गया था। 

पाकिस्तान के प्रतिष्ठित ‘डाॅन’ समाचारपत्र में एक लेख में नाज़ ने यह दावा किया है। उनके कहने के अनुसार, 1950 के शुरूआत में भोपाल से शादी कर के उनकी माँ मुंबई आईं तो एक नाटक में उन्होंने अनारकली की भूमिका की थी। के. आसिफ ने उस नाटक को देखा था और उन्हें अनारकली की भूमिका के लिए वह कलाकार पसंद भी आ गया था। उन्होंने ‘मुग़ल-ए-आज़म‘ के सेट्स पर इस अनारकली के दो सौ फोटो भी लिए थे। जिसमें एक प्रसिद्ध वह फोटो भी था, जिसमें सलीम उसे चुंबन करने जाता है तो अनारकली के चेहरे पर एक परदा लहराता है। नाज़ कहती है कि यह और अनेक फोटो अलबम में थे और माँ कराची में स्थायी हुईं तो बारबार खोल कर देखती थीं। उसमें मुंबई की फ़िल्मी पार्टियों, दिलीप कुमार और जवाहरलाल नेहरू के साथ के अनेक फोटो थे। 

नाज़ का दूसरा सनसनीखेज़ ख़ुलासा यह भी है कि घर में उनकी माँ को बहुत मारा जाता था (उनका पति उन्हें ‘चालू’ कहता था)। उनका पति राजनेता और बैरिस्टर था। सात सालों तक उनकी माँ (मार के निशान न दिखाई दें इसलिए) चेहरे पर पालव डाल कर उनके साथ सभा और यात्रा पर जाती थीं। उस समय के मुंबई के प्रसिद्ध डॉ. वी.ऐन. शिरोडकर ने उनकी माँ से यह भी कहा था कि अगर इन्होंने जल्दी डिवोर्स नहीं लिया तो मार खा-खा कर छह महीने में मर जाएँगी। 

उन्होंने डिवोर्स तो लिया, पर पति ने दो बच्चों को क़ब्ज़े में ले लिया। इसके बाद वह शादी कर के कराची में स्थायी हो गईं। फिर वह 20 साल तक बच्चों के लिए लड़ती रहीं। पर बच्चे भी मिलने को तैयार नहीं थे। पति ने बच्चों के भी दिमाग़ में भर दिया था कि वह ‘चालू’ औरत है। 

सोफिया नाज़ लिखती हैं, “मैं अपनी माँ की ये बातें पहली बार सार्वजनिक कर रही हूँ। 2012 में उनकी मौत हो गई थी। उनका पहला पति अब ज़िन्दा नहीं है। मुंबई में लोग उसे इस्लामिक स्कॉलर और लेखक के रूप में याद करते हैं। मेरे सौतेले भाई-बहन मेरी माँ के साथ हिंसा की बात से इनकार करते हैं। मैंने उनकी बात मानी होती और मैंने भी मान लिया होता कि माँ ‘चालू’ थी तो आज मैं भी उसी घर में होती। पर मैं अपनी माँ को टूटने नहीं देना चाहती थी।” 

दिलचस्प बात यह है कि ‘डाॅन’ अख़बार में छपे इस पूरे लेख में सोफिया ने अपने सौतेले पिता का नाम नहीं लिखा। एकदम अंतिम लाइन में उसने ‘शहनाज़’ नाम का उल्लेख किया है, जो अधूरा है। जबकि बाद में जानकारों ने कहा कि उसका नाम शहनाज़ बिया था। सोफिया लिखती है, “मेरी माँ के इंतकाल के बाद मैंने अपनी माँ और पिता के सहनाम को त्याग दिया और बीच का नाम नाज़ अपना लिया। नाज़ भी मुझे उन्होंने अपने मुख्य नाम को तोड़कर दिया था। शहनाज़ ‘अपना’ इस अर्थ में या वह जब पाँच साल की थीं, तब परिवार द्वारा दिए नाम को ठुकरा कर उन्होंने ख़ुद अपना शहनाज़ नाम पसंद किया था। अब अपनी माँ की बेटी सोफिया नाज़ के रूप में मातृत्व का यह दायित्व अपनी मौत तक गर्व से निभाऊँगी।” सोफिया ने अपनी माँ के जो फोटो शेयर किए हैं, वे ख़ासे आकर्षक हैं। 

यह लेख इसलिए भी चर्चित हुआ है कि सोफिया ने अगस्त, 2020 में अपनी माँ ‘शहनाज़’ के नाम पर एक पुस्तक भी लिखी थी। इस किताब में उसने दावा किया था कि मुंबई में उसकी माँ के नाटक ‘अनारकली’ के तीन सप्ताह हो गए थे। इसके बाद के. आसिफ उनके ड्रेसिंग रूम में आए थे और उसकी माँ के सामने घुटनों के बल बैठ कर दोनों हाथ जोड़कर कहा था कि “अनारकली, तुम मुझे मिल गई हो और मैं तुम्हें हिंदुस्तान की सब से प्रसिद्ध स्त्री बना दूँगा। तुम्हें ‘मुग़ल-ए-आज़म‘ में काम करना है।”

के. आसिफ ने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के सेट पर अनारकली के ड्रेस में शहनाज़ की कुछ तस्वीरें ली थीं। इसी के साथ रुपए की गड्डी ले कर वह शहनाज़ के घर ‘सौदा’ पक्का करने गए थे। सोफिया के लिखे अनुसार, उस दिन घर में शहनाज़ के दो भाई अलिम मियाँ और धनी मियाँ संयोग से हाज़िर थे। के. आसिफ ने स्टुडियो में खींची तस्वीर के साथ रुपए की गड्डी मेज़ पर रख दी। यह देख कर दोनों भाई भड़क गए थे। अलिम मियाँ ने एक फोटो उठा कर फाड़ते हुए कहा था, “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यह कहने की। गेट आऊट।”

के. आसिफ एक शब्द बोले बग़ैर घर से बाहर निकल गए थे। उसी दिन मुंबई की ‘दूसरी’ अनारकली का स्वप्न बिखर गया था। 

(सोफिया नाज़ अनेक सांस्कृतिक पत्रिकाओं में अंग्रेज़ी-उर्दू में लिखती हैं। इनके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। यह दक्षिण एशियाई साहित्य के साप्ताहिक द सनफ्लावर क्लेक्टिव की पोएट्री एडीटर हैं। सोफिया महिला कवियों को समर्पित वेबसाइट भी चलाती हैं) 

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