रणचंडी की पुकार
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
झाँसी की रानी फिर रणभूमि में गूँजी दहाड़ बनकर,
तलवारों की भाषा बोली, दुश्मन के प्रति प्रहार बनकर।
घोड़े पर बिजली-सी चमकी, उनकी रगों में ज्वाला थी,
स्वतंत्रता की पावन बुझी, पर रानी की लौ निराली थी।
मातृभूमि का मर्म समझकर, मृत्यु को भी हँसकर चूमा,
रणचंडी-सी आँखों में था, स्वतंत्रता का दीपक झूला।
अंग्रेज़ी फ़ौजें काँप उठीं, जब रानी ने हुंकार भरी,
धधक उठी थी धरती जैसे, कोई देवी तलवार धरी।
शौर्य उनका कालजयी है, गाथाएँ उनके संग चलें,
शक्ति का पर्व बने हर पल, जब हम रानी को याद करें।
आहुतियों से लिपटी धरा पर, उनका साहस अमिट लिखा,
‘जय भवानी’ की प्रतिध्वनि में, झाँसी का गौरव सदा दिखा।
रणचंडी की पुकार आज भी, हर नभ में गूँजा करती है,
रानी की वीरता पीढ़ी–पीढ़ी, जीवन में दीपक धरती है।
स्वतंत्रता के अमर चरित्र की, वह उजली अध्याय बनीं,
लक्ष्मीबाई आज भी भारत के, हर मन की तलवार बनीं।
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