रूखे तने की वेदना
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
समय का चक्र तेज़ी से घूम रहा था। पहले बाबू और लीला त्योहारों पर बड़े भाई चंदू को याद कर लेते थे, पर अब दोनों अपनी-अपनी दुनियाओं में रच-बस गए थे।
उस समय अहमदाबाद के वीएस वाडीलाल साराभाई अस्पताल का ख़ूब नाम था। अच्छी और सस्ती चिकित्सा के लिए गुजरात भर से लोग वहाँ आते थे। मरीज़ों के साथ आए परिजनों से अस्पताल का परिसर हमेशा चहलपहल से भरा रहता था।
जनरल वार्ड में भीड़ बढ़ चुकी थी। इसलिए बाद में आने वाले मरीज़ों को पलंग की जगह फ़र्श पर गद्दा बिछा कर रखा जाने लगा था। ऐसे में दूर गाँव से आए कालीदास अंतिम अवस्था की टीबी से जूझ रहे थे। सूख कर काँटा हो चुका शरीर बिलकुल काला पड़ चुका था। वह गद्दे पर लेटे थे और उनका अट्ठारह साल का बेटा चंदू चिंता में डूबा बग़ल में बैठा था।
पचास साल के कालीदास ने चंदू से पूछा, “तू खाना खा आया?”
चंदू जानता था कि पिता को बोलने में बहुत कठिनाई होती है। पिता आगे और कुछ पूछते, उससे पहले ही उसने सारी बातें बता दीं, “यहाँ पीछे ही गोपी डाइनिंग हाल है। साढ़े तीन रुपए में अच्छा खाना देते हैं। उसके मालिक दामूभाई भी बड़े दिलदार हैं। मैंने उनसे अपनी हालत बताई तो वह बोले कि साढ़े तीन रुपए की जगह तीन रुपए दे देना। दो बजे जा कर खाना खा आता हूँ। सुबह-शाम दोनों का एक ही साथ निपटा लेता हूँ। फिर शाम को अस्पताल से जो खिचड़ी-कढ़ी आपको मिलती है, उसमें से जो बचता है, वह मैं ले लेता हूँ। आप मेरी फ़िक्र मत करें।”
कालीदास की आवाज़ भर्रा उठी, “चिंता तो मुझे लीला और बाबू की होती है। हम दोनों यहाँ हैं और वे दोनों गाँव में अकेले, कहीं उन्हें कोई परेशानी न हो?”
“पड़ोसी अच्छे हैं, ” चंदू ने ढाढ़स बँधाया, “लीला तो घर के काम में निपुण है और बाबू भी समझदार है। आप बस ठीक हो जाएँ, फिर हम सब साथ हो जाएँगे।”
कालीदास ने धीमे से कहा, “इस बार ठीक होना मुश्किल लगता है। कल डॉक्टर तुझसे जो कह रहे थे, मैंने सुन लिया था। अब मेरे दिन थोड़े ही बचे हैं।”
आँखें छलक आईं, पर वह कुछ और बोलते उससे पहले ही तेज़ खाँसी आई और मुँह से ख़ून निकल आया। उसी रात हालत और बिगड़ी। मृत्यु का संकेत मिल चुका था। कालीदास काँपती आवाज़ में बोले, “चंदू, चाहे कैसी भी घड़ी आए, मेरी एक बात याद रखना। सात साल पहले तेरी माँ चली गई थी, तब से मैंने ही माँ-बाप बन कर तुम तीनों को पाला है। तुम्हें कभी माँ की कमी नहीं होने दी। अब साँस लेने में भी कठिनाई होती है। मेरी आँखें बंद हों, उसके बाद बाबू और लीला की ज़िम्मेदारी तेरे कंधों पर है।”
इतना कह कर उन्होंने चंदू का हाथ कस कर पकड़ लिया, “मुझे वचन दे कि तू दोनों का ख़्याल रखेगा।”
चंदू की आँखें भर आईं। उसने रुआँसी आवाज़ में कहा, “मैं आपका बेटा हूँ बापू। आपकी ही तरह माँ-बाप बन कर बाबू और लीला को सँभालूँगा। उन्हें खिला कर ही ख़ुद खाना खाऊँगा।”
कालीदास ने विश्वास से उसकी ओर देखा और कुछ ही घंटों में देह छोड़ दी। कालीदास जनता सहकारी बैंक में चपरासी थे। नख से शिख तक ईमानदार, गाय की तरह विनम्र। बाप की सारी अच्छाई जैसे चंदू में ही उतर आई थी। उनके देहांत के बाद बैंक प्रबंधकों की बैठक में तय हुआ कि बेचारे कालीदास ने पूरी उम्र बैंक को दे दी। उसका बड़ा बेटा चंदू अट्ठारह साल का है, नौवीं पास है। उसे पिता की जगह पर दया नियुक्ति दे देनी चाहिए।
चंदू बैंक में चपरासी बन गया था।
उससे छोटा बाबू पंद्रह साल का था। और सबसे छोटी बहन लीला तेरह साल की। सुबह पाँच बजे उठ कर चंदू खाना बनाने में लग जाता। बाबू ग्यारहवीं में था। उसने कहा, “भैया, मैं पढ़ाई छोड़ कर नौकरी कर लूँ?”
चंदू ने उसे प्रेम से डाँटा, “मैं हूँ न। तुम दोनों पढ़ो।”
लीला सुबह स्कूल जाती और शाम का खाना तथा घर के काम सँभाल लेती। चंदू पिता की पुरानी साइकिल से रोज़ बैंक जाता। समय बीतता गया। कालीदास की टीबी का कमज़ोर शरीर जैसे चंदू को विरासत में मिला था। बाबू और लीला माँ की तरह सुंदर और स्वस्थ थे।
दस सालों तक तीनों ने मेहनत और बचत से घर सँभाला। कपास के सीज़न में तीनों रात-दिन रूई छाँट कर थोड़ा-बहुत कमाते। चंदू के विवाह के कई प्रस्ताव आए, पर पिता को दिया वचन याद था, इसलिए वह कहता था कि पहले भाई-बहन को व्यवस्थित करूँगा। इसलिए वह हर रिश्ता ठुकरा देता।
सगे-संबंधी में किसी ने लीला की चर्चा एक सुहृद परिवार से की, वीरमगाम के श्रीखंड मठो के व्यापारियों से। उनका बेटा सुधीर बहुत ज़्यादा नहीं पढ़ा था, इसलिए शिक्षित लड़कियाँ उससे विवाह के लिए राज़ी नहीं थीं। जब उन्होंने लीला को देखा तो संस्कारी, रूपवान, कामकाज में निपुण लीला उन्हें तुरंत पसंद आ गई।
चंदू जैसे खिल उठा। सारी बचत ख़र्च कर के बहन का विवाह कर दिया।
बाबू ने बी.कॉम. कर लिया था, पर कोई काम-धंधा नहीं कर रहा था। सुधीर ने उसे साथ रखा, धंधा सिखाया और फिर सुरेंद्रनगर में दुकान खोल कर बाबू को सौंप दी। बाबू ने भी दिन-रात मेहनत की, जिससे उसका बिज़नेस चल निकला। जल्द ही उसका भी विवाह तय हो गया।
चंदू ने बैंक से लोन ले कर बड़े प्यार से बाबू का विवाह कर दिया। शादी के बाद बाबू पत्नी के साथ सुरेंद्रनगर लौट गया। लीला अपनी ससुराल में ख़ुश थी। बाबू का जीवन भी बढ़िया चल रहा था।
और इधर चंदू अपनी पुरानी साइकिल चलाता रहा। सुबह-शाम ख़ुद खाना बनाता, बैंक से मिलने वाले थोड़े वेतन में ही गुज़र करता। सफ़ेद होते बालों के साथ जीवन चुपचाप बहता रहा। विवाह का एक रिश्ता आया भी तो लड़की के माता-पिता ने कह दिया कि “उसके पिता टीबी से मरे थे, यह भी उसी तरह बीमार लगता है।”
चंदू को न कोई ख़ुशी हुई, न दुख। बस चुपचाप जीता रहा। सेवानिवृत्ति के बाद वह बाबू के पास सुरेंद्रनगर गया। बाबू चाहता था कि भाई उसके साथ ही रहे, लेकिन बाबू की पत्नी ने इतनी ऊँची आवाज़ में कहा कि चंदू सुन ले। उसने कहा, “रिटायर हुए बूढ़े को मैं नहीं झेल सकती! तुम्हें रखना है तो रखो, मैं मायके जा रही हूँ।”
बाबू की पत्नी की बात सुन कर चंदू ने दस मिनट में ही बैग उठाया और चला गया। बाबू केवल हाथ जोड़ कर माफ़ी माँग पाया। लीला अपनी बेटियों की शादी में व्यस्त थी।
चंदू चार दीवारों के बीच अकेला रहने लगा। बीमारी बढ़ी, लेकिन किसी पर बोझ न बनने का निश्चय उसके भीतर पत्थर की तरह जमा था। टूटे मन पर मृत्यु जल्दी ही आती है।
2016 की दिवाली के आसपास पड़ोसियों को चंदू के घर से बदबू आती महसूस हुई। उन्होंने बाबू और लीला को ख़बर की। दोनों आ पहुँचे। दरवाज़ा तोड़ा। भीतर लकड़ी की पुरानी कुर्सी पर बैठे-बैठे ही चंदू का अंत हो चुका था। आँखें खुली थीं, पर उनमें न कोई शिकायत थी, न उलाहना। बस वही पुरानी मौन, निःस्वार्थ मोहब्बत, जिसे उसने उम्र भर निभाया था।
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