बाड़ में रहते-रहते उसे लगता है बढ़ रहा ज्ञान
पर हक़ीक़त में बढ़ता है ऊन।
जब ऊन उतार कर उसके शरीर को
अगली फ़सल के लिए तैयार हुए खेत की तरह
बना दिया जाता है तब भी
उसे यही लगता है कि वह नि:स्पृह बन कर
मोक्ष की ओर गति कर रहा है।
छोटे सँकरे बाड़े में भरी भारी मात्रा में भेड़ें
सिर उठा कर हमेशा एक-दूसरे को
चोट पहुँचाती रहती हैं।
इनके मालिकों को इनकी पहचान आसानी से हो जाए
इसलिए इनके शरीर पर निशान के लिए
लाल या हरा रंग हमेशा लगाते रहते हैं
जिसे भेड़ अपनी चेतना पर धारण कर के
श्रद्धापूर्वक हमेशा निभाती रहती है।
सूर्योदय होते ही वह शिष्ट संयमी
मूल्यबोध के होश वाले
आंदोलनकारियों की तरह निकलती हैं
और तब जैसे समग्र सृष्टि
नींद त्याग कर उनके साथ चलती है
इस भ्रम के साथ चलती है भेड़।
वह खुले में चर रही होती है तो
हवा उनके कान में कुछ कहती है
कलकल बहती उनकी नज़र में आने को उत्सुक होती है
उन्नत पर्वतमालाएँ उनके झुके सिर को
प्रेरित करने को तैयार होती हैं
सूर्य डूबने तक प्रयत्नशील होता है
उनकी दृष्टि की व्यापकता बढ़ाने को
पर भेड़! यह मरती नहीं बल्कि बढ़ती है
मालिकों की ज़रूरत के लिए और
गुणांक में बढ़ाती रहती है अपनी संख्या।
कभी सपने में भी पूरी पृथ्वी के गोले पर
मुझे भेड़ ही दिखाई देती है और मुझे लगता है
कि भेड़ से डरने और चेतने जैसा तो है ही।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
- सामाजिक आलेख
- चिन्तन
- साहित्यिक आलेख
- काम की बात
- सिनेमा और साहित्य
- स्वास्थ्य
- कहानी
- किशोर साहित्य कहानी
- लघुकथा
- सांस्कृतिक आलेख
- ऐतिहासिक
- सिनेमा चर्चा
-
- अनुराधा: कैसे दिन बीतें, कैसे बीती रतियाँ, पिया जाने न हाय . . .
- आज ख़ुश तो बहुत होगे तुम
- आशा की निराशा: शीशा हो या दिल हो आख़िर टूट जाता है
- कन्हैयालाल: कर भला तो हो भला
- काॅलेज रोमांस: सभी युवा इतनी गालियाँ क्यों देते हैं
- केतन मेहता और धीरूबेन की ‘भवनी भवाई’
- कोरा काग़ज़: तीन व्यक्तियों की भीड़ की पीड़ा
- गुड्डी: सिनेमा के ग्लेमर वर्ल्ड का असली-नक़ली
- दृष्टिभ्रम के मास्टर पीटर परेरा की मास्टरपीस ‘मिस्टर इंडिया'
- पेले और पालेकर: ‘गोल’ माल
- मिलन की रैना और ‘अभिमान’ का अंत
- मुग़ल-ए-आज़म की दूसरी अनारकली
- ललित कला
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- पुस्तक चर्चा
- विडियो
-
- ऑडियो
-