संपर्क और कनेक्शन
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
एक दिन ऑफ़िस में आया साइकोलॉजिस्ट यानी मनोवैज्ञानिक पारिवारिक बातें कर रहा था, तभी एक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर युवक ने उस साइकोलॉजिस्ट से पूछा, “सर, यह संपर्क और कनेक्शन में क्या होता है?”
साइकोलॉजिस्ट ने उस युवक से पूछा, “आप के घर में कौन-कौन है?”
युवक ने कहा, “पिता का देहांत हो चुका है, माँ हैं। तीन भाई और एक बहन है। सभी की शादियाँ हो चुकी हैं।”
साइकोलॉजिस्ट ने अगला सवाल किया, “क्या आप अपनी माँ से बातें करते हैं? आपने अपनी माँ से आख़िरी बार कब बात की थी?”
“एक महीने पहले, ” सकुचाते हुए युवक ने कहा।
“आप ने आख़िरी बार परिवार के साथ बैठ कर कब बातचीत की थी या सब के साथ बैठ कर कब खाना खाया था?”
युवक ने कहा, “मैंने आख़िरी बार दो साल पहले त्योहार पर बैठ कर सब के साथ खाना खाया था और बातचीत की थी।”
“तुम सब कितने दिन साथ रहे?”
माथे पर पसीना पोंछते हुए युवक कहा, “तीन दिन . . .”
“आपने अपनी माँ के पास बैठ कर कितना समय बिताया?”
युवक अब परेशान और शर्मिंदा दिख रहा था। साइकोलॉजिस्ट ने कहा, “क्या आपने नाश्ता, दोपहर का भोजन या रात का खाना माँ के साथ किया? क्या आपने पूछा कि वह कैसी हैं? पिता की मौत के बाद उनके दिन कैसे बीत रहे हैं?”
युवक की आँखों से आँसू बहने लगे।
साइकोलॉजिस्ट ने आगे कहा, “शर्मिंदा, परेशान या उदास होने की ज़रूरत नहीं है। संपर्क और कनेक्शन यानी आपका अपनी माँ के साथ संपर्क तो है, लेकिन आप का उनसे 'कनेक्शन' नहीं है। आप उनसे जुड़े नहीं हैं। कनेक्शन दो दिलों के बीच होता है। एक साथ बैठना, भोजन करना और एक-दूसरे की देखभाल करना, छूना, हाथ मिलाना, आँख मिलाना, कुछ समय एक साथ बिताना। आप के सभी भाई-बहनों का एक-दूसरे से संपर्क तो है, लेकिन कोई कनेक्शन यानी जुड़ाव नहीं है।”
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