रह गया

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 264, नवम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

ज़िन्दगी जीते जीते जीना ही रह गया। 
दूसरे की पंचायत करने में 
ख़ुद को पहचानना रह गया। 
सभी के बारे में जानकारी रखने में, 
अपने बारे में जानना रह गया। 
दूसरे के बारे में बुरा सोचते सोचते, 
अपना अच्छा करना ही रह गया। 
भले ज्ञान प्राप्त कर लिया तमाम, 
पर समझदारी पाना रह गया। 
दूर के संबंधों को सँजोते सँजोते, 
निकट के संबंधों को सँजोना रह गया। 
चारों दिशाओं के पत्थरों को तो पूज लिया, 
पर ईश्वर को पहचानना रह गया। 
नदी के बहाव की तरह बह गई यह ज़िंदगी, 
और फिर एक बार जीना रह गया। 
दूसरों के घर उजाला करते करते, 
अपने घर में दिवाली का दीप जलाना रह गया। 

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