आसुरी शक्ति पर दैवी शक्ति की विजय-नवरात्र और दशहरा

01-10-2025

आसुरी शक्ति पर दैवी शक्ति की विजय-नवरात्र और दशहरा

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

नवरात्र के दिन शक्ति की उपासना करने के दिन होते हैं। जगत में कोई भी नैतिक मूल्य केवल अच्छे होने से नहीं टिकते। उनके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उनके पीछे समर्थ लोगों की तपस्या का होना आवश्यक है। संसार में तपस्या को ही यश मिलता है, यह सत्य के उपासकों को नहीं भूलना चाहिए। तपस्या के बल से कई बार असत्य भी विजई हुआ है, यह बात हमें उपर्युक्त सत्य की झलक कराती है। निर्बल लोगों के सत्य, संस्कार या संस्कृति की कोई पूछ नहीं होती। 

कथा:

आश्विन महीने में आने वाले इस नवरात्र उत्सव के लिए एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। महिषासुर नामक एक राक्षस अत्यंत प्रभावशाली था। उसने अपने सामर्थ्य के बल पर सभी देवताओं और मनुष्यों को त्राहिमाम् पुकारने पर विवश कर दिया था। दैवी विचारों की प्रभा मंद पड़ गई थी। दैवी लोग भयभीत हो उठे थे। हिम्मत हार चुके देवताओं ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश की आराधना की। देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न हो कर आदि देवगण महिषासुर पर क्रोध से भर गए। उनके पुण्य-प्रकोप से एक दैवी शक्ति का जन्म हुआ। सभी देवताओं ने जयकार करते हुए उसका स्वागत किया और उसकी पूजा की। 

दैवी शक्ति ने अपने दिव्य आयुधों से अलंकृत हो कर नौ दिनों के युद्ध के बाद महिषासुर का वध किया, आसुरी वृत्ति को दबा कर दैवी सम्पत्ति की पुनः स्थापना की तथा देवताओं को अभय वरदान दिया। यही दैवी शक्ति हमारी जगदंबा हैं। 

इन दिनों में ‘माँ’ से सामर्थ्य माँगना चाहिए तथा आसुरी वृत्ति पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। आज भी महिषासुर हर एक के हृदय में अपना स्थान बनाए बैठा है और भीतर की दैवी वृत्ति को दबा रहा है। इस महिषासुर की माया को पहचानने तथा उसकी आसुरी नागपाश से मुक्त होने के लिए दैवी शक्ति की आराधना आवश्यक है। यही कारण है कि नवरात्र के नौ दिन अखंड दीप प्रज्वलित करके 'मां जगदंबा’ की पूजा की जाती है और उनसे शक्ति प्राप्त करने का अवसर माना जाता है। 

हमारे वेदों ने भी शक्ति की उपासना को अत्यंत महत्त्व दिया गया है। महाभारत में बालोपासना तथा शौर्य की पूजा का वर्णन है। व्यास, भीष्म और कृष्ण के समस्त व्याख्यान तेज, ओज, शौर्य, पौरुष और पराक्रम से ओतप्रोत दिखाई देते हैं। महर्षि व्यास ने पांडवों को शिक्षा दी थी और शक्ति उपासना का महत्त्व समझाया था। उन्होंने बताया था कि यदि धर्म के मूल्यों को टिकाए रखना है तो हाथ जोड़ कर बैठे रहना पर्याप्त नहीं है, शक्ति की उपासना करनी ही पड़ेगी। अर्जुन को दिव्य अस्त्र प्राप्त करने के लिए उन्होंने ही स्वर्ग जाने का संकेत दिया था। 

माँ जगदंबा की हमारी यह उपासना ही नवरात्र है

बोध:

यह उपासना नवरात्र से आरंभ होती है, किन्तु केवल नौ दिनों तक सीमित न रह जाए, इसका ध्यान रखना चाहिए। प्रत्येक क्षण की शक्ति उपासना हमें जड़वाद से घिरे इस जगत में टिके रहने की शक्ति प्रदान करेगी। ऐसा शक्ति-संपन्न जीवन माँ के चरणों में समर्पित होना चाहिए। माँ जगदंबा के चरणों में आराधना करते समय सच्चे भाव से प्रार्थना करनी चाहिए:

“हे माँ मैं तेरा कार्य करूँगा, मैं तेरा बालक हूँ, तू मुझे शक्ति प्रदान कर।”

वह प्रत्येक पर उपकार करने वाली अचिंत्य शक्ति है। 

चंडीपाठ का श्लोक:

टुगे स्मृताहरसि भीतिमशेषजन्तो। 
स्वस्थ्येः स्मृता मतिमत्तीय शुभाम् दयासि॥
दारिद्रय दुखः भय हारणी कात्वदन्या, 
सर्वोपकारकर्णाय सदार्दचित्ता॥

यह श्लोक हमारे दुख, दरिद्रता और भय का नाश करने वाली तथा हमें सुख-शांति देने वाली माँ दुर्गा को समर्पित है। हम उनका ध्यान करते हैं, पूजन करते हैं। वे अपने आश्रित भक्तों पर सदा दया करने वाली हैं। 

विजयादशमी:

गीता (अध्याय 18/श्लोक 78) 

यत्र योगेश्वरः कृष्णो, 
यत्र पार्थो धनुर्धरः। 
तत्र श्रीः विजयोभूति, 
ध्रुवा नीति: मति: मम॥

“जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धर पार्थ (अर्जुन) हैं, वहाँ विजय है। वहाँ लक्ष्मी है, कल्याण है और शाश्वत नीति है-ऐसा मेरा मत है।”

योगेश्वर कृष्ण का अर्थ है ईश्वरीय कृपा और धनुर्धर पार्थ का अर्थ है मानव प्रयास। जहाँ ये दोनों मिलते हैं, वहीं विजय का नाद सुनाई देता है। यही निर्विवाद सत्य है। दशहरा भक्ति और शक्ति के समन्वय का उत्सव है। नवरात्र में नौ दिन तक माँ जगदंबा की उपासना कर शक्ति प्राप्त करने के बाद विजय की आकांक्षा जागना स्वाभाविक है। इस दृष्टि से दशहरा विजय-प्रस्थान का उत्सव है। 

भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता का संचार हो, इसके लिए दशहरा मनाया जाता है। शत्रु की दुष्टता को दबाने का यह उत्सव है। भगवान रामचंद्र के समय से ही यह दिन विजय-प्रस्थान का प्रतीक बना। प्रभु रामचंद्र ने रावण जैसे राक्षस का संहार कर के इसी दिन प्रस्थान किया था। छत्रपति शिवाजी ने भी औरंगज़ेब को परास्त करने और हिंदू धर्म की रक्षा करने हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। हमारे इतिहास में अनेक उदाहरण हैं, जब हिंदू राजाओं ने इसी दिन विजय-प्रस्थान किया था। 

आज भी जड़वाद और भोगवाद मानव विकास के अवरोधक शत्रु बन कर खड़े हैं। सांस्कृतिक वीर ईश्वरवाद की गर्जना करते हुए इन शत्रुओं का नाश करने की प्रेरणा इस पर्व से पाते हैं। 

अंतःशत्रु:

जैसे बाहरी शत्रु होते हैं, वैसे ही हमारे भीतर भी कई शत्रु छुपे होते हैं: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर। ये मानव मात्र के षड्रिपु हैं। विजयादशमी के इस शुभ दिन इनकी चाल पहचान कर, इनके आक्रमण से पहले ही इन्हें परास्त करना चाहिए। 

आलस्य भी मनुष्य का एक बड़ा शत्रु है-

“आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः“

(आलस्य मनुष्य के शरीर में स्थित महान शत्रु है) 

दृढ़ संकल्प से इस स्थायी शत्रु पर क़ाबू पाना ही दशहरे का हृदय है। 

आज नैतिक मूल्य संकट में हैं, भव्य संस्कृति मृत्युशैया पर अंतिम साँसें ले रही है। ऐसे समय मैं चुपचाप कैसे बैठ सकते हैं? बढ़ती हुई आसुरी वृत्तियों को यथाशक्ति रोकने का प्रयास करेंगे। योगेश्वर मेरे साथ हैं, और मुझमें निहित सारी शक्ति को शत्रु को दबाने में लगा दूँगा। यही दशहरे का दृढ़ संकल्प है। 

सारांश:

दशहरा का दिन समाज में फैली दीनता, हीनता, लाचारी और भोग वृत्ति को दबाने का दिन है। वीरता का वैभव, शौर्य का शृंगार और पराक्रम की पूजा, शस्त्रों की पूजा-यही दशहरा है। दशहरा भक्ति और शक्ति का पवित्र मिलन है। 

कथा:

रघुराज ने कुबेर को, जो सदैव धन संचय में लगे रहते थे, सीमा उल्लंघन का अल्टीमेटम दिया। भयभीत हो कर कुबेर ने शमी वृक्ष पर स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की। शमी वृक्ष ने वैभव प्रदान किया। तभी से दशहरे पर शमी वृक्ष की पूजा की जाने लगी। पांडवों ने भी अपने दिव्य शस्त्र शमी वृक्ष पर छुपा कर रखे थे, इसलिए भी इसका महत्त्व है। 

इसी कारण दशहरा शस्त्र-पूजन का पारंपरिक दिन है। विजय दिलाने वाले शस्त्र ही हैं, इसलिए शस्त्र-पूजन द्वारा इस भाव को व्यक्त किया जाता है। व्यापारी अपने तराज़ू का, किसान, इंजीनियर, मिस्त्री, डॉक्टर आदि अपने-अपने औज़ारों का पूजन करते हैं। वाहन चालक अपने वाहनों का पूजन करते हैं। 

आज रावण का दहन तो होता है, किन्तु मन और बुद्धि पर क़ाबिज़-धन की ललक, सत्ता की लालसा, कीर्ति की भूख, अप्रामाणिकता, संग्रह प्रवृत्ति, कालाबाज़ारी, रिश्वत, भ्रष्टाचार, भोगवाद और अनैतिकता जैसे 'दशमुखी रावण’ का संहार करने का संकल्प लेने का यह दिन है। 

दशहरा शुभ विचारों का, शौर्य से भरा, सदा मंगलकारी और सदा पवित्र दिवस है। 
 

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