स्वतंत्रता दिवस की सच्ची मनाई
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
पहाड़ों की तलहटी में बसा एक छोटा सा शहर विसनगर, जो अपनी धार्मिक प्रतिभा के कारण प्रसिद्ध था। यहाँ एक श्रीकृष्ण-राधा का विशाल मंदिर था, जो श्रद्धा का केंद्र बन चुका था। इस मंदिर में चारधाम की प्रतिमाओं की भी स्थापना की गई थी। जो लोग चारधाम की यात्रा नहीं कर सकते थे, वे यहाँ आ कर पूजा करते और चारधाम की यात्रा का संतोष प्राप्त करते। इस मंदिर में जाति-पांत और ऊँच-नीच का भेदभाव किए बग़ैर सभी को प्रवेश मिलता था। मंदिर में रोज़ाना शाम को हवन, भजन-कीर्तन और रामायण कथा होती थी। जिसका लाभ लेने के लिए तमाम लोग मंदिर में आते थे।
एक दिन शहर के जानेमाने व्यापारी सेठ धनपत राय अपने परिवार के साथ आलीशान गाड़ी में बैठ कर मंदिर में दर्शन के लिए आए। उस दिन उनके बेटे आनंद का जन्मदिन था। उसी दिन उन्होंने वह नई कार ख़रीदी थी। सेठ-सेठानी और उनका बेटा आनंद नई कार से उतर कर मंदिर में अंदर गए। वहाँ प्रभु की आरती-पूजा की, प्रसाद चढ़ाया और पुजारी को मोटी दक्षिणा दे कर तीनों मंदिर से बाहर आए।
मंदिर की सीढ़ियों पर तमाम भिखारी बैठे थे। उन्हें उम्मीद थी कि इतने बड़े सेठ से अच्छे पैसे मिलेंगे। सभी सेठ को ताक रहे थे। कई बालभिखारी सेठ के आगे हाथ फैलाए खड़े थे। एक छोटे बच्चे ने सेठ का कुरता खींच कर आगे हाथ फैला दिया। सेठ चिल्लाए, “हट . . . हट, दूर रह . . . पागल कहीं का . . . गिर पड़ रहा है . . . दूर हट।”
“साहब बहुत भूख लगी है। कुछ खाने के लिए . . .”
“दूर रह . . . छूना नहीं इन गंदे हाथों से . . .” सेठानी चिल्लाईं।
“मम्मी ऐसा मत करो, बेचारे को भूख लगी है। आज मेरा बर्थडे है, कुछ दे दो न बेचारे को,” आनंद ने कहा।
“बर्थडे है तो क्या हुआ? मंदिर में पूजा की, प्रसाद चढ़ाया, पंडित को दक्षिणा दी, यह क्या कम है? रात को पार्टी भी रखी है। अब चलो यहाँ से . . .” सेठानी आनंद का हाथ पकड़ कर गाड़ी की ओर बढ़ीं।
तीनों आगे बढ़े थे कि सेठ धनपत राय के दोस्त अजीत सेठ और उनकी पत्नी शीतल मिल गईं। चारों बातों में लग गए। तभी आनंद की नज़र अपने स्कूल के चपरासी रघुनाथ पर पड़ी। रघुनाथ मंदिर के आगे बैठे उन ग़रीब भिखारियों को लड्डू बाँट रहा था। आनंद तुरंत रघुनाथ के पास पहुँच गया और बोला, “गुडमार्निंग रघु अंकल।”
जवाब में रघुनाथ ने कहा, “गुडमार्निंग बेटा।”
“अंकल आज आप सभी को लड्डू क्यों दे रहे हैं? आप का बर्थडे है क्या?”
रघुनाथ खिलखिला कर हँसते हुए बोले, “बेटा, आज मेरा नहीं, अपनी भारतमाता, अपने देश का बर्थडे है।”
“अपने देश का बर्थडे, वह कैसे?”
“बेटा भूल गए, आज स्वतंत्रा दिवस यानी 15 अगस्त है।”
“यस . . . यस . . . आज मेरा भी बर्थडे है।” आनंद ने कहा, “अंकल अपने देश का बर्थडे, यह मैंने क्लास में सीखा था। पर एक बार फिर आप मुझे समझाइए।”
“बेटा, भारत के इतिहास में आज का दिन स्वर्ण अक्षरों में लिखा है। अपने कितने शहीदों के बलिदान के बाद भारत की सैकड़ों साल की ग़ुलामी की मज़बूत ज़ंजीरें इसी दिन टूटी थीं। सन् 1947 में 15 अगस्त को भारत की धरती पर आज़ादी का ध्वज लहराया था। इसी दिन स्कूलों, कालेजों, सरकारी कार्यालयों में ध्वजवंदन होता है और फिर उसके बाद छुट्टी हो जाती है। तमाम जगह पर आज़ादी के दृश्यों के साथ झाँकियाँ निकलती हैं, सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। शाम को सरकारी इमारतों पर रोशनी की जाती है। रोशनी का जगमगाता प्रकाश लोगों के दिलों में प्रकाश भरता है। ‘जयहिंद’ और ‘गांधीजी की जय’ के नारों से वातावरण गूँज उठता है। इतिहास का यह शुभ और गौरवमय दिन है। इसके पीछे बापू की तपस्या, जवाहरलाल का त्याग, सरदार वल्लभभाई का दृढ़निश्चय, सुभाषचंद्र बोस और भगत सिंह की क़ुर्बानी रही है। ऐसे महान और अनमोल दिन को हम जितनी ख़ुशी से मनाएँ, कम है। आज जगह जगह पर मिठाई भी बाँटी जाती है।
“अंकल, इसीलिए आज आप लड्डू बाँट रहे हैं?” आनंद ने पूछा।
“हाँ बेटा, मेरा मानना है कि इस शुभ दिन को कोई ग़रीब या भिखारी बिना मिठाई के न रहे।”
“रघु अंकल, आप की बातें मुझे बहुत अच्छी लगीं,” इतना कह कर आनंद अपने माँ-बाप के पास पहुँच गया। पर उसके मन में रघु अंकल की ही बातें घूम रही थीं।
शाम हुई। शाम को आनंद की बर्थडे पार्टी थी। उसके दोस्त अरमान, ध्वनित, शिवम, अर्श, तनय तथा मनस्वी, प्रियांशी, मैत्री सभी तरह-तरह के उपहार ले कर आ गए थे। बर्थडे पार्टी के लिए मिठाई और नाश्ते के बाक्स तैयार थे। रसोई में आनंद की बहनें विशाखा और निधि डिनर की तैयारी करा रही थीं।
आनंद आज रघुनाथ के रास्ते पर चलना चाहता था। उसने अपने दोस्त वर्तुल को अपनी योजना समझाई। घर के पिछले दरवाज़े से सभी दोस्त मिठाई और नाश्ते के बाक्स ले कर बाहर निकले। उन लोगों ने सभी बाक्स ध्वनित की गाड़ी में रख दिए। ड्राइवर उनके साथ था। योजना के अनुसार, कुछ मिठाई अनाथाश्रम में और बाक़ी मंदिर के पास बैठे भिखारियों में बाँट दी। इतना उत्तम काम कर के सभी बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी आनंद के घर आए।
रास्ते में अरमान ने कहा, “हम सभी त्योहारों, शुभ समारोहों और पार्टी में पेट भर खाते हैं, पर कभी ग़रीबों के बारे में नहीं सोचते।”
“एकदम सही बात। हम सभी अपने फ़्रेंड सर्कल में ही मस्त रहते हैं। आज आनंद ने हम लोगों को एक बहुत अच्छी बात समझाई है,” ध्वनित और शिवम ने कहा।
जब पूरी हक़ीक़त की जानकारी आनंद के मम्मी-पापा को हुई तो वे लाल-पीले हो गए। पार्टी में आए जितेंद्र ने उन्हें शांत करते हुए कहा, “अरे यह तो बहुत गर्व की बात है कि आप के बेटे ने अपने और देश के बर्थडे की ख़ुशी में इतना उत्तम काम किया है। हम लोगों को तो उसे इतना अच्छा काम करने के लिए शाबाशी देनी चाहिए और मार्गदर्शन भी करना चाहिए।”
“एकदम सच कहा आपने जितेंद्र अंकल। मेरे मम्मी-पापा थोड़ा कंजूस हैं,” विशाखा बोली।
यह बात सुन कर सभी हँस पड़े।
“आनंद, तुम्हारा बर्थडे हम लोग ही नहीं, पूरा देश साथ-साथ मना रहा है, सही है न!” जितेंद्र अंकल ने आशीर्वाद देते हुए कहा।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- सामाजिक आलेख
- चिन्तन
- कविता
- साहित्यिक आलेख
- काम की बात
- सिनेमा और साहित्य
- स्वास्थ्य
- कहानी
- किशोर साहित्य कहानी
- लघुकथा
- सांस्कृतिक आलेख
- ऐतिहासिक
- सिनेमा चर्चा
-
- अनुराधा: कैसे दिन बीतें, कैसे बीती रतियाँ, पिया जाने न हाय . . .
- आज ख़ुश तो बहुत होगे तुम
- आशा की निराशा: शीशा हो या दिल हो आख़िर टूट जाता है
- कन्हैयालाल: कर भला तो हो भला
- काॅलेज रोमांस: सभी युवा इतनी गालियाँ क्यों देते हैं
- केतन मेहता और धीरूबेन की ‘भवनी भवाई’
- कोरा काग़ज़: तीन व्यक्तियों की भीड़ की पीड़ा
- गुड्डी: सिनेमा के ग्लेमर वर्ल्ड का असली-नक़ली
- दृष्टिभ्रम के मास्टर पीटर परेरा की मास्टरपीस ‘मिस्टर इंडिया'
- पेले और पालेकर: ‘गोल’ माल
- मिलन की रैना और ‘अभिमान’ का अंत
- मुग़ल-ए-आज़म की दूसरी अनारकली
- ललित कला
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- पुस्तक चर्चा
- विडियो
-
- ऑडियो
-