मिलन की रैना और ‘अभिमान’ का अंत
वीरेन्द्र बहादुर सिंहजिस साल अमिताभ बच्चन की पहली सुपरहिट फ़िल्म ‘ज़ंजीर’ आई (मई 1973), उसके तीन महीने बाद जुलाई में ‘अभिमान’ आई। निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी की अमिताभ के साथ यह पहली फ़िल्म थी। इसके बाद तुरंत चार महीने में ‘नमक हराम’ आई। इसके बाद तो ऋषि दा की अमिताभ के साथ ‘चुपके चुपके’, ‘मिली’, ‘अलाप’, ‘ज़ुर्माना’ और ‘बेमिसाल’ आई थीं। ‘ज़ंजीर’ जैसी मारधाड़ वाली ऐक्शन फ़िल्म के बाद अमिताभ ने कम बजट वाली समांतर और ‘साफ-सुथरी‘ फ़िल्में करना चालू रखा था। इसकी शुरूआत ‘अभिमान’ से हुई थी।
‘अभिमान’ एक असामान्य फ़िल्म थी। गीत-संगीत के एक ही व्यवसाय में काम करने वाले दंपती के बीच एक-दूसरे की प्रतिभा और लोकप्रियता को ले कर अभिमान की टक्कर होती है, इस तरह की कहानी का विचार ऋषिकेश मुखर्जी को तब आया, जब सिनेमा से जुड़े लोगों के परिवारों की आंतरिक खटपट की ख़बर उजागर हुई थी। फ़िल्म इतनी अधिक वास्तविक और प्रामाणिक लग रही थी कि इसके पीछे किसी असली दंपती का संदर्भ न हो तो आश्चर्य की बात थी। उस समय और आज भी लोग सोचते हैं कि यह किस की कहानी थी, जिसे ऋषि दा ने परदे पर साकार किया था।
ब्रिटिश राज में (मध्य प्रदेश) के मैहर स्टेट के महाराजा बृजनाथ सिंह के दरबार में सरोदवादक बाबा अलाउद्दीन खान के यहाँ तालीम लेने आने वाले 18 साल के पंडित रविशंकर और 13 साल की उनकी बेटी अन्नपूर्णा का विवाह हुआ था। दोनों ही शास्त्रीय संगीत में माहिर थे। इसीलिए एक हुए थे। पर समय बीतने के साथ यही विवाद का कारण बना। कहा जाता है कि अन्नपूर्णा को अधिक कार्यक्रम और वाहवाही मिलती थी, जिससे रविशंकर का ‘पुरुष अहं’ घायल होता था।
परिणामस्वरूप अन्नपूर्णा देवी पंडितजी और सार्वजनिक जीवन से खिसकती गईं। 1962 में पंडितजी से अलग हो कर उन्होंने मुंबई के फ़्लैट में ख़ुद को क़ैद कर लिया था। ‘मानुषी’ के नारीवादी संपादक मधु किश्वर ने ट्विटर पर लिखा है कि ‘रविशंकर ने अन्नपूर्णा के संगीत को कैरियर बरबाद कर दिया है। वह पंडित की अपेक्षा अधिक प्रतिभावान थीं और एक कार्यक्रम में तो पंडित ने क्रूरता से उन्हें घसीटा था। उसी दिन से उन्होंने कार्यक्रम बंद कर दिया था।’
‘अभिमान’ की ऐसी ही कहानी थी। एक प्रोफ़ेशनल गायक सुबिर (अमिताभ) गाँव की गोरी उमा (जया बच्चन) से मिलता है और उसकी प्रकृति द्वारा मिली गायकी से आकर्षित हो कर उससे विवाह करता है। विवाह के बाद उमा की गायिकी रंग लाती है और उसका कैरियर चमक उठता है, जबकि सुबिर का कैरियर डूबने लगता है। इससे उसका अहंकार घायल होता है और दंपती के बीच खटराग शुरू हो जाता है। परिणामस्वरूप उमा गायिकी छोड़ कर मायके चली जाती है।
गुजराती लेखक-कार्टूनिस्ट आबिद सुरती के बेटे आलिफ सुरती ने 2002 में ‘मेन्स वर्ल्ड’ नामक अंग्रेज़ी अख़बार के लिए अन्नपूर्णा देवी का एक दुर्लभ इंटरव्यू किया था। (अन्नपूर्णा देवी न तो फ़्लैट से बाहर आती थीं न किसी से मिलती थीं)। उसमें उन्होंने कहा था, ‘मैं जब परफ़ॉर्म करती थी और लोग दाद देते थे तो यह पंडितजी को अच्छा नहीं लगता था। मुझे तो वैसे भो परफ़ॉर्म करने में कोई रुचि नहीं थी, इसलिए मैंने परफ़ॉर्म करना बंद कर दिया और साधना चालू रखी।’
सुरती लिखते हैं कि ‘अभिमान’ फ़िल्म शुरू करने से पहले ऋषिकेश मुखर्जी ने अन्नपूर्णा देवी से कहानी को लेकर चर्चा की थी। फ़िल्म में तो दंपती बाद में मिल जाते हैं, पर असल जीवन में रविशंकर और अन्नपूर्णा देवी ने तलाक़ ले लिया था। विवाह को बचाने के लिए अन्नपूर्णा देवी ने बाबा और शारदा माता के समक्ष वचन दिया था कि वह कभी भी सार्वजनिक रूप से परफ़ॉर्म नहीं करेंगी। पर उनका यह बलिदान भी उनके दांपत्य को बचा नहीं सका था।
वरिष्ठ फ़िल्म-पत्रकार राजू भारतन का दावा है कि ‘अभिमान’ की कहानी किशोर कुमार और रूमा देवी पर आधारित थी। एक जगह उन्होंने लिखा है, “हम जो जानते हैं उसके अनुसार, किशोर कुमार की पत्नी (अमित की माँ) रूमा देवी कम प्रतिभाशाली नहीं थीं। किशोर कुमार को उनके कैरियर के शुरूआत में कम संघर्ष नहीं करना पड़ा, पर उन्हें यह पता था कि रूमा में क़ुदरती रूप से ही संगीत की प्रतिभा थी।” ऋषि दा एक अच्छे कहानीकार थे। उन्होंने इस विषय को पकड़ कर ‘अभिमान’ में अच्छी कहानी गढ़ी थी।
किशोर कुमार तो ख़ैर बड़े भाई अशोक कुमार की देखादेखी फ़िल्मों में आए थे, पर संगीत तो रूमा देवी ठाकुरता के परिवार में ही था। उनकी माता सत्यजित रे के सम्बन्ध में थीं। रूमा ने बचपन में नृत्य सीखा था। उन्होंने दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ में काम किया था। 1951 में किशोर कुमार से विवाह कर के मुंबई आई थीं, पर विवाह के 8 साल बाद तलाक़ ले कर वह कोलकाता वापस चली गई थीं। कहा जाता है कि रूमा कैरियर पसंद स्त्री थीं। जबकि किशोर कुमार ‘घरेलू पत्नी’ चाहते थे। इसी वजह से दोनों में अनबन हुई थी।
रविशंकर-अन्नपूर्णा देवी और किशोर कुमार-रूमा देवी के वैवाहिक जीवन में काफ़ी समानता थी। हो सकता है ऋषि दा को इन दोनों पर ही फ़िल्म बनाने का विचार आया हो। जो कुछ भी हो, पर ‘अभिमान’ में उन्होंने वैवाहिक सम्बन्ध की जटिलता को नारीवादी दृष्टिकोण से जिस तरह पेश किया था, उसकी दर्शकों ने ख़ूब सराहना की थी। एक तो इसकी कहानी बहुत सशक्त थी, दूसरे इसके मुख्य कलाकार (अमिताभ, जया, बिंदु, असरानी, ए के हंगल, दुर्गा खोटे) ने उम्दा अभिनय किया था और तीसरे उसका संगीत (सचिनदेव बर्मन) लाजवाब था। फ़िल्म को 1974 को बेस्ट एक्ट्रेस, बेस्ट म्यूज़िक और बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर और एक्ट्रेस का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था।
अमिताभ और जया के विवाह के कुछ महीने बाद ही फ़िल्म रिलीज़ हुई थी और फ़िल्म में भी नवविवाहित दंपती की बात थी, इसलिए फ़िल्म की वास्तविकता बहुत निखरी थी। ख़ासकर इसमें सुबिर का ‘पुरुष अहं’ जिस तरह पेश किया गया था, उससे लोगों को लगा था कि कैरियर पसंद पुरुष ऐसे हो होते हैं और पत्नियों को उनकी परछाईं बन कर रहना पड़ता है। पत्नी की इस मजबूरी को मजरूह सुल्तानपुरी ने ख़ूबसूरती से इन शब्दों में पेश किया था:
‘पिया ऐसे रूठे कि होंठों से मेरे संगीत रूठा
कभी जब मैं गाऊँ लगे मेरे मन का हर गीत झूठा
ऐसे बिछड़े हो . . . ऐसे मोसे रसिया
पिया बिना पिया बिना पिया बिना बसिया’
फ़िल्म में अभिमान की लड़ाई इतनी तीव्र थी कि एक फ़ैन उमा को देख कर ज़ोर से ‘राधा ओ राधा‘ कहता है तो ईर्ष्या में जल उठा सुबिर धीरे से कहता है, “वाह, क्या क्लासिक नाम है।” इसी तरह सुबिर उमा से पूछता है कि क्या तुम्हें मेरा गाना अच्छा लगता है? तब उमा उसके गानों को ‘हा हू चिखना-चिल्लाना बताती है।’ तीसरे एक दृश्य में सुबिर उसकी एक दोस्त चित्रा (बिंदु) के यहाँ शराब के पैग में दुख को डुबोते हुए कहता है, “पहले भी अकेला था, अब भी अकेला हूँ।”
फ़िल्म नकारात्मक न बन जाए इसके लिए ऋषि दा ने मायके जा रही उमा का गर्भपात हो जाता है और सुबिर का हृदय परिवर्तन होता है, यह अंत करके फ़िल्म को पारिवारिक फ़िल्म बना दिया था। इसमें भी एक गाने में मजरूह साहब और बर्मन दा ने कमाल कर दिया था। फ़िल्म की शुरूआत किशोर कुमार के सोलो गाने ‘मीत न मिला रे मन का . . . ’ गाने से होती है (जो उमा का मन ‘चीखना-चिल्लाना’ वाला गाना है) और फ़िल्म का अंत किशोर-लता के ड्युएट से होता है। इसमें पति-पत्नी का पुनर्मिलन तो है ही, उमा की गायिकी की वापसी भी है। इसमें सुबिर गाता है, ‘तेरे मिलन की ये रैना नया गुल कोई खिलाएगी।’
उसका साथ देते हुए उमा कहती है, ‘नन्हा सा गुल खिलेगा अंगना सूनी बंइया सजेगी सजना।’
यह एक पंक्ति में सूना हाथ फिर से सजाने और नया जीवन शुरू करने की उम्मीद थी। यही ‘अभिमान’ का अंत भी था।
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